विपक्षी गोलबंदी की राह में है सबसे बड़ी चुनौती, जानिए क्यों कांग्रेस के साथ आने से बच रहीं क्षेत्रीय पार्टियां
Parliament Monsoon Session 2020 उत्तर प्रदेश में मायावती की सियासत जिस तरह प्रियंका गांधी वाड्रा के निशाने पर है उसमें बसपा सरीखे दल तो पहले से ही विपक्षी खेमे से दूर हैं।
संजय मिश्र, नई दिल्ली। अगले हफ्ते शुरू हो रहे मानसून सत्र के लिए कांग्रेस ने सरकार के खिलाफ विपक्ष के तीन बड़े वाजिब मुद्दों की पहचान कर ली है मगर इनको लेकर विपक्षी एकजुटता की कोई गंभीर सूरत एक बार फिर बनती नजर नहीं आ रही है। क्षेत्रीय पार्टियों की कांग्रेस से लगातार रखी जा रही दूरी साफ तौर पर विपक्षी गोलबंदी की राह में सबसे बड़ी चुनौती साबित हो रही है। विपक्ष की मुखर आवाज के लिए कांग्रेस के पास लोकसभा में दमदार चेहरे का नहीं होना भी इसकी एक बड़ी वजह है। वास्तव में 17वीं लोकसभा के सवा साल के दौरान अब तक बड़े राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर बिखराव का नाम ही विपक्ष रहा है।
कोविड-19 काल में होने जा रहे मानसून सत्र के लिए चीनी घुसपैठ, अर्थव्यवस्था की बदहाली और कोरोना महामारी जैसे तीन सबसे ज्वलंत मुद्दे उठाने की कांग्रेस ने तैयारी की है। मगर सरकार की घेरेबंदी के लिए सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट होंगी इसको लेकर खुद कांग्रेस के अंदर ही संशय है। बीते सवा साल के दौरान ट्रिपल तलाक, अनुच्छेद 370 और सीएए जैसे बड़े विधायी मसलों पर संसद में विपक्षी दलों का जैसा बिखराव सामने आया वह अभी तक संभला नहीं है। संसद सत्र से पहले बाहर आयी कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई ने इसमें बदलाव की गुंजाइश फिलहाल धूमिल कर दी है।
बसपा सरीखे दल तो पहले से ही विपक्षी खेमे से हैं दूर
विपक्षी पार्टियों को संसद के अंदर और बाहर एकजुट करने में कांग्रेस के सामने क्षेत्रीय पाटियों की चुनौती दोहरी है। इसमें एक ओर टीआरएस, वाइएसआर कांग्रेस, टीडीपी से लेकर बीजेडी जैसे दल हैं जिन्हें भाजपा से अपनी सियासी जमीन का सीधे कोई खतरा या डर नहीं। ऐसे में वे भाजपा की केंद्र सरकार से भिड़ने का जोखिम लेने की सोच ही नहीं रखते। तो दूसरी ओर कुछ ऐसे क्षेत्रीय दल हैं जिन्हें अपने सूबों की सियासत में देर-सबेर कांग्रेस से चुनौती मिलने की आशंका है। इसमें सपा, बसपा, राजद से लेकर तृणमूल कांग्रेस जैसे दल शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा, बिहार में राजद तो पश्चिम बंगाल में टीएमसी आज कांग्रेस की तुलना में बड़ी पार्टी है। जाहिर तौर पर इन राज्यों में ये पार्टियां अपना राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने के लिए एक सीमा से ज्यादा कांग्रेस से निकट नहीं हो सकतीं। उत्तर प्रदेश में मायावती की सियासत जिस तरह प्रियंका गांधी वाड्रा के निशाने पर है उसमें बसपा सरीखे दल तो पहले से ही विपक्षी खेमे से दूर हैं।
विपक्षी खेमे के नेताओं को प्रभावित करने में खरे नहीं उतरे अधीर रंजन चौधरी
दक्षिण की दो बड़ी पार्टियों अन्नाद्रमुक और द्रमुक के लिए तमिलनाडु में भाजपा कोई खतरा नहीं है। इसीलिए अन्नाद्रमुक जहां भाजपा-एनडीए के साथ है तो कांग्रेस के साथ गठबंधन होते हुए भी द्रमुक बहुत मुखर नहीं रहा है। सरकार की घेरेबंदी के लिए लोकसभा में विपक्षी दलों को साथ जोड़ने वाले विपक्ष के सबसे बड़े चेहरे की बड़ी भूमिका मानी जाती है। इस कसौटी पर कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी खरे नहीं उतर पाए हैं। बेशक अधीर की छवि जुझारू और आक्रामक है। मगर सदन में प्रभावशाली अंदाज में बोलने से लेकर विपक्षी खेमे के नेताओं को प्रभावित करने की कसौटी पर भी वे कमजोर साबित हुए हैं।
अधीर को लेकर कांग्रेस की दूसरी चुनौती यह है कि वे तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के मुखर विरोधी हैं। जबकि तृणमूल कांग्रेस के सदस्य संसद में विपक्षी खेमे के सबसे आक्रामक सांसद माने जाते हैं। मगर लोकसभा में अधीर रंजन चौधरी की विपक्षी खेमे की अगुआई उन्हें सहज स्वीकार नहीं होती।
मोदी सरकार को घेरने के लिए शरद पवार जैसे चेहरे की है जरूरत
संसद में कांग्रेस के रणनीतिक समूह के एक सदस्य ने विपक्षी एकजुटता की राह की इस चुनौती के बारे में पूछे जाने पर कहा कि बेशक मोदी सरकार को घेरने के लिए लोकसभा में सोनिया गांधी या शरद पवार जैसे स्तर के चेहरे की जरूरत है। 2004 और 2009 में सोनिया गांधी के विपक्षी नेतृत्व की अगुआई करने का उदाहरण देते हुए यह भी कहा कि तब विपक्षी खेमे के इन दलों को उन पर भरोसा था। पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेता ने कहा 'वास्तव में यह संसद सत्र विपक्ष का है क्योंकि सरकार के खिलाफ ज्वलंत मुद्दों की भरमार है, लेकिन सरकार में इसका कोई डर नहीं दिख रहा क्योंकि विपक्ष कमजोर और बिखरा हुआ है।'