राष्ट्रीय चरित्र के विकास की दरकार, समान नागरिक संहिता पर रचनात्मक सोच जरूरी
देश में समान नागरिक संहिता की जरूरत या गैरजरूरत वाली सोच का लंबा इतिहास रहा है। 1928 में पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा तैयार एक रिपोर्ट में पहली बार इसकी चर्चा की गई।
[रामिश सिद्दीकी]। देश में ऐसे राष्ट्रीय चरित्र के विकास की दरकार है जहां व्यक्तिगत शिकायतों का राष्ट्र निर्माण के सामने कोई वजूद नहीं रह जाता। समान नागरिक संहिता अपनाने जैसे कदम से देशभक्ति कभी पैदा नहीं हो सकती। लोगों की सोच को रचनात्मक दिशा में मोड़ना होगा।
देश में समान नागरिक संहिता की जरूरत या गैरजरूरत वाली सोच का लंबा इतिहास रहा है। 1928 में पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा तैयार एक रिपोर्ट में पहली बार इसकी चर्चा की गई। यह रिपोर्ट वास्तव में, स्वतंत्र भारत के संविधान का एक प्रारूप थी, जिसे मोतीलाल नेहरू ने तैयार किया था। इसमें यह प्रस्ताव था कि स्वतंत्र भारत में विवाह से संबंधित सभी मामलों को एक समान कानून के तहत लाया जाए। लेकिन तब ब्रिटिश सरकार ने इस रिपोर्ट को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था, क्योंकि इसमें भारत के लिए प्रभुत्व का प्रस्ताव रखा था, जो अंग्रेजों के लिए अस्वीकार्य था।
1939 में इस मुद्दे पर लाहौर में कांग्रेस द्वारा एक बैठक बुलाई गई जहां नेहरू की रिपोर्ट के व्यावहारिक पहलुओं पर चर्चा हुई लेकिन इसे अक्षमता के आधार पर खारिज कर दिया गया था। 1985 के बाद से समान नागरिक संहिता के मुद्दे ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के साथ एक नया आयाम ग्रहण किया। देश के शीर्ष न्यायालय की इस केस में भागीदारी 1985 में पूर्व मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ द्वारा दिए गए एक फैसले के साथ शुरू हुई।
शाहबानो मामले में अपने प्रसिद्ध फैसले में, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यह टिप्पणी करने की आवश्यकता महसूस की थी कि संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत अध्यादेश लाना समय की मांग है। इसके बाद 1985 में, सुप्रीम कोर्ट
के एक अन्य न्यायाधीश, श्री चिन्नप्पा रेड्डी ने एक समान मामले से निपटते हुए कहा था, ‘वर्तमान केस समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर केंद्रित एक और मामला है।’ यही बात 1995 में सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय बेंच; जस्टिस कुलदीप सिंह और जस्टिस आरएम के फैसले में भी नजर आई थी।
उनके फैसले में कहा गया था, ‘समान पर्सनल लॉ लागू करना राष्ट्रीय एकता की दिशा में एक निर्णायक कदम है देश में एक समान पर्सनल लॉ लागू करने में अनिश्चित काल तक देरी करने का कोई औचित्य नहीं है।’ लोग संविधान के अनुच्छेद 44 का उल्लेख करते हुए एक समान नागरिक संहिता की वकालतकरते हैं, लेकिन कम लोग इस तथ्य पर विचार करते हैं कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 में अनुच्छेद 44 का खंडन मौजूद है।
अनुच्छेद 25 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से धार्मिक स्वतंत्रता और अपनी धार्मिक पद्धति और उसका प्रचार करने का हक है। आज जिस ‘सामान्य भावना’ की बात की जा रही है वह सदियों से हमारे देश में मौजूद रही है। हमारे देश में विभिन्न समुदाय सौहार्दपूर्वक एक साथ रहते आये हैं, हालांकि उस समय में समान नागरिक संहिता जैसा कुछ भी नहीं था। प्रत्येक समुदाय की अपनी सांस्कृतिक पहचान रही और अपनी धार्मिक
परंपराओं के अनुसार उनके यहां विवाह किया जाता रहा। क्योंकि उस समय राष्ट्रीय एकीकरण के भाव में लोग परस्पर जीते थे।
यह शब्द अपने पूर्ण अर्थ में मौजूद था। जो संतुलन समान नागरिक संहिता की अनुपस्थिति के कारण नहीं बल्कि पूर्व ब्रिटिश सरकार की नीति से बिगड़ा। यह ब्रिटिश शासकों की एक सुविचारित नीति थी, जिसके कारण भारत में हमेशा से मौजूद राष्ट्रीयता का विघटन हो गया। समान नागरिक संहिता किसी भी तरह से एकरूपता या
राष्ट्रीय एकता से संबंधित नहीं है। यहां तक कि समान नागरिक संहिता का पालन करने वाले भी नियमित रूप से एक दूसरे से लड़ते रहे हैं।
21 अगस्त, 1972 को नई दिल्ली से छपे ‘द मदरलैंड’ को दिए एक इंटरव्यू में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ‘गुरुजी’ ने कहा था कि राष्ट्रीय एकता के लिए समान नागरिक संहिता आवश्यक नहीं। उनके अनुसार इस तरह की एकरूपता की आवश्यकता नहीं। भारतीय संस्कृति ने विविधता में एकता की अनुमति दी है। उनके अनुसार महत्वपूर्ण बात यह थी कि सभी नागरिकों; हिंदू और गैर-हिंदू के बीच तीव्र देशभक्ति और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देना आवश्यक है।वास्तव में भारत को एक एकजुट, शांतिपूर्ण और विकसित देश बनाने के लिए राष्ट्रीय चरित्र की आवश्यकता है।
जहां व्यक्तिगत शिकायतों का राष्ट्र निर्माण के सामने कोई वजूद नहीं रह जाता। समान नागरिक संहिता अपनाने जैसे सतही कदम से देशभक्तिकभी पैदा नहीं हो सकती। लोगों की सोच को रचनात्मक दिशा में मोड़ना होगा। इसके लिए हमें सभी संसाधनों का लाभ उठाकर जनता को शिक्षित करना होगा। हमें बौद्धिक जागृति और जागरूकता का एक व्यापक अभियान शुरू करना होगा।
शिक्षा का महत्व राष्ट्रीय निर्माण के उद्देश्य के लिए इतना महान है कि इसकी तुलना में समान नागरिक संहिता की बात गौण है। शिक्षा से व्यक्ति में सही सोच विकसित होती है। जो एक समाज या राष्ट्र निर्माण के लिए सबसे ज्यादा महत्व रखती है।
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