मोदी सरकार का नया दांव, मंदिर निर्माण के लिए चौथी राह की तलाश
भाजपा की ओर से स्पष्ट कर दिया गया है कि वह रास्ता तब होगा जब कोर्ट और बातचीत का रास्ता खत्म हो जाएगा।
नई दिल्ली, जागरण ब्यूरो। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और संत समाज की ओर से राम मंदिर निर्माण के बाबत ठोस कदम उठाने को लेकर बढ़ रहे दबाव के बीच केंद्र सरकार ने दांव चल दिया है। सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर अयोध्या में विवादित भूमि को छोड़कर अधिग्रहित जमीन मूल मालिकों को लौटाने की अनुमति मांगी है। अगर जमीन वापस हुई तो इसमें संदेह भी नहीं कि राम जन्मभूमि न्यास समेत कई पक्षों को उस गैर विवादित जमीन पर निर्माण से रोकना मुश्किल होगा। बल्कि भाजपा ने यह स्पष्ट करने में भी कोई कोताही नहीं की कि न्यास वहां मंदिर बनाना चाहता है।
गौरतलब है कि राम मंदिर निर्माण के लिए संसद से राह निकालने की बातें होती रही हैं, लेकिन भाजपा की ओर से स्पष्ट कर दिया गया है कि वह रास्ता तब होगा जब कोर्ट और बातचीत का रास्ता खत्म हो जाएगा। ऐसे में सरकार की ओर से दायर याचिका को चौथी राह के रूप में देखा जा रहा है। ध्यान रहे कि चुनावी माहौल में जिस तरह यह मुद्दा गरम हुआ है उसमें भाजपा का चुप रहना संभव भी नहीं है।
यही कारण है कि केंद्रीय शिक्षा मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को मैदान में उतारा गया। उन्होंने कहा- सरकार विवादित भूमि को नहीं छू रही है। लेकिन कोई जमीन न्याय में हो रही देरी के कारण पच्चीस सालों से अटकी है तो उसे लौटाना ही वाजिब होगा। गौरतलब है कि विवादित भूमि .313 एकड़ है। उसके आसपास 67 एकड़ जमीन केंद्र सरकार की ओर से अधिग्रहित की गई थी। इसमें से 42 एकड़ जन्मभूमि न्यास का है। जावड़ेकर ने यह भी कहा कि न्यास वहां मंदिर का निर्माण करना चाहता है। जाहिर है कि अगर किसी भी भूमि पर निर्माण कार्य शुरू होता है तो वह भाजपा और सरकार के लिए राहत होगी।
दरअसल, इस्माइल फारूखी फैसले में सप्रीम कोर्ट ने ही सरकार को अधिकार दिया था कि वह अधिग्रहित जमीन पुराने मालिकों को लौटा सकती है। सरकार के एक मंत्री ने कहा कि वह जमीन सीमित वक्त के लिए और एक मकसद के लिए ली गई थी। उसे यूं ही अधर में लटका कर नहीं रखा जा सकता है। लिहाजा हम लौटाना चाहते हैं। फैसले में यह शर्त थी कि विवादित भूमि पर होने वाले फैसले को ध्यान में रखते हुए उतनी जमीन छोड़नी होगी जिससे विजयी पक्ष फिलहाल विवादित भूमि तक आ जा सके। उसकी सुविधाओं का ध्यान रखना होगा। अगर ऐसा होता भी है तो मंदिर के आसपास बहुत बड़ी जमीन पर निर्माण कार्य शुरू होने का रास्ता साफ हो जाएगा।
कोर्ट का रुख क्या होता है यह तो कहना मुश्किल है लेकिन सरकार की ओर से यह संदेश जरूर दे दिया गया है कि वह न सिर्फ जल्द से जल्द मंदिर निर्माण चाहती है बल्कि इसकी राह भी निकालने की कोशिश में जुटी है।
क्या है मामला?
केन्द्र सरकार ने 1993 में अयोध्या में विवादित भूमि सहित कुल 67.703 एकड़ जमीन अधिगृहित की जिसमें 0.313 एकड़ जमीन विवादित भूमि है जहां पर पहले ढांचा था और रामलला विराजमान हैं। यह अधिग्रहण अयोध्या भू अधिग्रहण कानून के नाम से जाना गया। इस कानून में यह भी कहा गया कि जमीन विवाद से संबंधित अदालत में लंबित मुकदमें समाप्त समझे जाएंगे।
अधिग्रहण को इस्माइल फारुकी ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। दूसरी ओर राष्ट्रपति ने भी सुप्रीम कोर्ट में रेफरेंस भेजा। कोर्ट ने दोनों पर एक साथ सुनवाई की। 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने इस्माइल फारुकी केस में फैसला दिया जिसमें पांच न्यायाधीशों ने 3-2 के बहुमत से अयोध्या भूमि अधिग्रहण को वैध ठहराया। हालांकि कोर्ट ने लंबित मुकदमों को समाप्त करने का अंश रद कर दिया और लंबित मुकदमों को पुनर्जीवित कर दिया। इसके साथ ही कोर्ट ने विवादित जमीन पर यथास्थिति कायम रखने के आदेश दिये। कोर्ट ने यह भी कहा कि केन्द्र सरकार अधिगृहित अतिरिक्त भूमि की पूर्ण मालिक है।
सरकार गैरविवादित भूमि मालिकों को वापस कर सकती है। हालांकि उसमें उतनी जमीन सरकार रखेगी जो कि विवादित जमीन का मुकदमा जीतने वाले पक्ष के अपनी जमीन पर आने जाने और उसका इस्तेमाल करने के लिए जरूरी होगी। अधिगृहित जमीन में 42 एकड़ जमीन राम जन्मभूमि न्यास की है। फैसले के बाद 6 जून 1996 को राम जन्मभूमि न्यास ने केन्द्र सरकार के पास अर्जी देकर अपनी जमीन वापस मांगी। सरकार ने 14 अगस्त 1996 को न्यास की अर्जी यह कहते हुए खारिज कर दी कि इस मांग पर इलाहाबाद हाईकोर्ट में लंबित मुकदमें पर फैसला आने के बाद ही विचार हो सकता है। इसके बाद 1997 में न्यास ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका कर केन्द्र को निर्देश देने की मांग की लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार का कहना सही है और याचिका खारिज कर दी। इसके बाद मोहम्मद असलम भूरे ने 2002 में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर अयोध्या में भूमि पूजन रोकने की मांग की।
31 मार्च 2003 को असलम भूरे की याचिका संविधानपीठ ने निपटा दी। उस 2003 के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में लंबित मुकदमें का फैसला होने तक जमीन पर यथास्थिति कायम रहेगी। 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राम जन्मभूमि मामले पर अंतिम फैसला दे दिया जिसमें विवादित जमीन को रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच बराबर बांटने का आदेश दिया था। उस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कुल 13 अपीलें लंबित हैं जिसमें रामलला सहित सभी पक्षकारों ने फैसले को चुनौती दी है। इन अपीलों को विचारार्थ स्वीकार करते हुए 9 मई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने मामले में यथास्थिति कायम रखने के आदेश दिए। उस आदेश में असलम भूरे के मामले में दिये गये यथास्थिति कायम रखने के आदेश को भी शामिल किया। जिसके कारण पूरी जमीन पर यथास्थिति कायम है।