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क्षेत्रीय दलों की अपेक्षा कर्नाटक की सत्ता में रहा है राष्ट्रीय दलों का बोलबाला

अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों के मुकाबले कर्नाटक क्षेत्रीय दलों की बजाय राष्ट्रीय दलों को प्राथमिकता देता आया है। 35 वर्षों का इतिहास तो इसी बात की गवाही देता है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 07 May 2018 11:51 AM (IST)Updated: Mon, 07 May 2018 12:12 PM (IST)
क्षेत्रीय दलों की अपेक्षा कर्नाटक की सत्ता में रहा है राष्ट्रीय दलों का बोलबाला
क्षेत्रीय दलों की अपेक्षा कर्नाटक की सत्ता में रहा है राष्ट्रीय दलों का बोलबाला

नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। कर्नाटक की राजनीति क्षेत्रीय दलों के लिए कोई बहुत ज्‍यादा फायदेमंद सौदा नहीं रही है। यहां का राजनीतिक इतिहास भी इसकी गवाही देता है। हालांकि यहां पर क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, लेकिन इसके बाद भी यदि राज्‍य की सत्ता की बात करें तो यहां पर सत्ता ज्‍यादातर राष्‍ट्रीय दलों के ही हाथों में रही है। कहा जा सकता है कि यहां की जनता को क्षेत्रीय दलों से अधिक राष्‍ट्रीय दलों पर भरोसा रहा है। गौरतलब है कि कर्नाटक में 12 मई को विधानसभा के लिए मतदान होना है। इसको लेकर सारी पार्टियों ने पूरा जोर लगा रखा है। बावजूद इसके यहां पर कांग्रेस और भाजपा में ही सीधी टक्‍कर है। 

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प्रमुख चुनावों पर एक नजर
अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों के मुकाबले कर्नाटक क्षेत्रीय दलों की बजाय राष्ट्रीय दलों को प्राथमिकता देता आया है। 35 वर्षों में कर्नाटक ने अन्य राज्यों की तुलना में राष्ट्रीय दलों को सरकार बनाने का मौका ज्यादा दिया है। 

अलग राजनीति  
कर्नाटक के लोगों ने चुनावों के मामले में अलग ही ट्रेंड स्थापित किया है। लोग केंद्र में जिस पार्टी को लाए उसे राज्य में सरकार नहीं बनाने दी। यानी यहां केंद्र और राज्य की सरकारें हमेशा अलग पार्टी की रही हैं।

पहली बार बही बदलाव की बयार 
1983 में कर्नाटक ने एक पार्टी के आधिपत्य को खत्म किया। आजादी के बाद से पहली बार कांग्रेस चुनाव हारी। जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। जनता पार्टी ने भाजपा और मार्क्सवादी पार्टी के बाहरी समर्थन से सरकार चलाई। दो साल बाद हुए मध्यावधि विधानसभा चुनावों में रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार को पूर्ण बहुमत मिला। इस चुनाव ने कर्नाटक की राजनीति को दो-दलीय व्यवस्था में बदल दिया। 

पहली बार खिला कमल 
पिछली सदी के आखिरी दो दशक में कांग्रेस और जनता पार्टी एक के बाद एक करके सरकार बना रहे थे। भाजपा यहां जगह बनाने में विफल रही थी। लेकिन, 2004 के विधानसभा चुनावों में हालात बदले। भाजपा 79 सीट जीतने के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। कांग्रेस (65 सीटें) और जनता दल (सेक्युलर) (58 सीट) ने गठबंधन की सरकार बनाई। राज्य में पहली बार गठबंधन की सरकार बनी। हालांकि, अगले चुनावों में 110 सीटें जीतकर भाजपा ने सरकार बनाई

1989 में बोफोर्स समेत कई अहम मुद्दों के चलते कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में मुंह की खानी पड़ी। जनता दल के वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने। लेकिन कर्नाटक की कुल 28 में से 27 लोकसभा सीटें कांग्रेस के खाते में आईं। एक सीट जनता दल को मिली। इसके तुरंत बाद हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस 224 सीटों में से 178 सीटें जीतकर और जनता दल को हराकर वापस सत्ता में आ गई।

1994 में पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। 1994 के विधानसभा चुनावों में कर्नाटक में जनता दल जीता। एचडी देवगौड़ा ने सरकार बनाई और कांग्रेस लुढ़क कर तीसरे स्थान पर पहुंच गई।

1999 में लोकसभा चुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग ने बहुमत हासिल किया। लेकिन, कर्नाटक में कांग्रेस ने 28 में से 18 सीटें और विधानसभा की 224 में से 132 सीटें जीतीं। जनता दल की सरकार को हटाकर एसएम कृष्णा के नेतृत्व में कांग्रेस ने सरकार बनाई। भाजपा को सिर्फ 44 विधानसभा सीटें मिलीं

2004 में लोकसभा चुनावों में संप्रग ने राजग को हराकर केंद्र में सरकार बनाई। कर्नाटक में भाजपा ने लोकसभा की 18 सीटें जीतीं। राज्य के विधानसभा चुनावों में भाजपा 78 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। हालांकि कांग्रेस ने जनता दल (सेक्युलर) के साथ गठबंधन करके सरकार बनाई। चार वर्ष बाद विधानसभा चुनावों में भाजपा को बहुमत मिली।

2013 में कर्नाटक की सत्ता कांग्रेस के हाथ में आ गई। हालांकि अगले ही साल लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 28 में से 17 सीटें जीती।


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