यौन उत्पीड़न के एक लाख से अधिक मामले अभी भी कोर्ट में लंबित, कैसे मिलेगा न्याय
अध्यादेश के तहत 12 साल तक बच्चियों से दुष्कर्म के दोषियों को 20 साल न्यूनतम जेल या उम्रकैद या मौत की सजा हो सकती है। सामूहिक दुष्कर्म के मामले में उम्रकैद या मौत की सजा हो सकती है।
[अलका आर्य]। हाल में मुल्क के लोगों ने कठुआ, उन्नाव, सूरत में हुई दुष्कर्म की घटनाओं को लेकर केंद्र सरकार को घेरा तो आनन-फानन में उसने एक अध्यादेश पारित कर दिया व 22 अप्रैल को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 12 साल से कम उम्र की बच्चियों से दुष्कर्म के दोषी को मौत की सजा देने संबंधी अध्यादेश को मंजूरी दे दी। आपराधिक कानून संशोधन अध्यादेश, 2018 में आइपीसी और साक्ष्य अधिनियम कानून, आपराधिक कानून प्रक्रिया संहिता तथा पॉक्सो (बच्चों को यौन अपराधों से संरक्षण कानून) में संशोधन कर ऐसे अपराध के दोषी को मौत की सजा से दंडित करने वाले नए प्रावधान जोड़े गए हैं। 22 अप्रैल से अध्यादेश देशभर में लागू हो गया है। हालांकि छह महीने के भीतर इस अध्यादेश को संसद से पास कराना होगा।
दुष्कर्म के दोषियों को मौत की सजा
संशोधित अध्यादेश के तहत 12 साल तक बच्चियों से दुष्कर्म के दोषियों को 20 साल न्यूनतम जेल या उम्रकैद या मौत की सजा हो सकती है। सामूहिक दुष्कर्म के मामले में उम्रकैद या मौत की सजा हो सकती है। 13 से 16 साल तक की उम्र के मामले में दोषी को 20 साल न्यूनतम सजा या उम्रकैद हो सकती है। सामूहिक दुष्कर्म के मामले में दोषी को उम्रकैद की सजा हो सकती है। महिला के साथ दुष्कर्म करने पर अब सात के बजाय 10 साल न्यूनतम सजा होगी। सरकार को लगता है कि मौत की सजा ऐसे अपराधों को कम करने की शर्तिया दवा है, लेकिन अध्यादेश लागू होने के अगले ही दिन दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र के इस अध्यादेश पर सवाल खड़े कर दिए हैं। उसने केंद्र सरकार से पूछा है कि क्या आपने कानून में बदलाव से पहले किसी तरह का अध्ययन या वैज्ञानिक आकलन किया था।
दुष्कर्म और हत्या की सजा
कोर्ट ने यह भी पूछा कि दुष्कर्म और हत्या की सजा एक जैसी हो जाने पर अपराधी पीड़ितों को जिंदा छोड़ देंगे, इसकी क्या गांरटी है? उच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार मूल कारणों पर विचार नहीं कर रही और न ही लोगों को शिक्षित कर रही है। अक्सर दुष्कर्म के आरोपियों की उम्र 18 साल से कम होती है। और अधिकतर मामलों में दोषी परिवार या परिचित में से ही कोई होता है। पीठ ने जानना चाहा कि अध्यादेश लाने से पहले क्या किसी पीड़िता से पूछा गया कि वे क्या चाहती हैं? इसमें कोई दो राय नहीं कि मुल्क में बच्चों के प्रति अपराध/यौन अपराध के मामलों में वृद्धि दर्ज की गई है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2016 में 1,06,958 बच्चे अपराध के शिकार हुए, पर इनमें से केवल 229 बच्चों के मामलों में ही निचली अदालतों ने फैसला सुनाया, जबकि पॉक्सो के मुताबिक ऐसे मामलों में निचली अदालत के संज्ञान में आरोप पत्र आने के एक साल के भीतर फैसला आना चाहिए। हकीकत यह है कि देशभर में 2016 में एक लाख से अधिक बच्चों के यौन उत्पीड़न के मामले विभिन्न अदालतों में लंबित हैं।
निचली अदालत में सुनवाई
बेशक संशोधित कानून के तहत ऐसे मामलों में जांच पूरी करने के लिए दो महीने की समय सीमा तय की गई है। वहीं जांच पूरी होने के बाद निचली अदालत में भी सुनवाई दो महीने ही में पूरी होगी। दोषी साबित होने के बाद यदि अपील की जाती है तो अपीलीय अदालत को भी छह माह के भीतर मामले का निपटारा करना होगा। इस अधिनियम के तहत बच्चियों से दुष्कर्म के मामलों की सुनवाई के लिए विशेष फास्ट ट्रैक अदालतें गठित की जाएंगी। मामलों में पीड़ित का पक्ष रखने के लिए राज्यों में विशेष लोक अभियोजकों के पद सृजित होंगे। वैज्ञानिक जांच के लिए सभी थानों, अस्पतालों में विशेष किट दी जाएगी। पीड़ित की मदद के लिए देश के सभी जिलों में एकल खिड़की बनाई जाएगी। जाहिर है कानून तो कड़ा बना दिया, लेकिन इसे कड़ाई से लागू करवाना सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। कानून के तहत जो प्रावधान किए गए है, उस इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए पैसे की भी जरूरत होगी। भारतीय अदालतें पहले ही काम के बोझ से दबी हुई हैं, ऐसे में प्रतिबद्ध अदालतों बावत सोचना क्या अव्यावहारिक नहीं है।
सरकार की प्राथमिकता
इसके साथ-साथ यह सुनिश्चित करना भी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए कि पीड़िता को इंसाफ दिलाने के लिए संसाधनों का इस्तेमाल भी उचित वक्त पर हो। निर्भया कांड के बाद भारत की लड़कियों/महिलाओं की सुरक्षा के लिए निर्भया कोष का गठन किया गया, मगर हकीकत यह है कि 2013-16 के दरम्यान इस फंड का पूरा इस्तेमाल ही नहीं किया गया। देशभर में 1800 फास्ट ट्रैक अदालतों के गठन के लिए 4140 करोड़ रुपये का प्रावधान भी किया गया था, लेकिन कई सूबों में आजतक एक भी फास्ट ट्रैक अदालत नहीं खोली गई। संशोधित कानून में पीड़त को इंसाफ दिलाने व मदद के लिए बहुत कुछ कहा गया है, लेकिन पहले से ही दुष्कर्म की शिकार पीड़ितों के लिए गठित वन स्टॉप सेंटर का आज तक कोई सोशल ऑडिट तक नहीं हुआ है। बाल अधिकार कार्यकर्ता भी मौत की सजा वाले प्रावधान से सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि इस सजा के डर से मुकदमे ही दर्ज नहीं होंगे। मुख्य वजह जिसकी ओर दिल्ली हाईकोर्ट ने भी इशारा किया है कि अधिकतर मामलों में दोषी परिवार या परिचित में से ही कोई होता है।
रिपोर्ट दर्ज नहीं कराने का दबाव
मौत की सजा वाले प्रावधान के चलते पीड़ित पर थाने में जाकर रिपोर्ट दर्ज नहीं कराने का दबाव बहुत रहेगा। इसके चलते दुष्कर्म के मामले दर्ज कराने में कमी आ सकती है। मौत की सजा वाला प्रावधान अपराधियों को पीड़ित/पीड़िता की हत्या करने के लिए भी प्रेरित कर सकता है, क्योंकि ऐसा करने पर भी उन्हें अधिकतम मौत की ही सजा मिलेगी, लेकिन इससे उनके पहचाने जाने की संभावना घट सकती है। अध्ययन बताते हैं कि बहुत से मामलों में पीड़िताएं दबाव व ठोस आर्थिक, सामाजिक मदद नहीं होने के चलते अदालत में अपने बयानों से पलट जाती हैं। अक्सर एक 12 साल की बच्ची में भारतीय समाज में अकेले थाने में जाकर यौन उत्पीड़न/दुष्कर्म की रिपोर्ट दर्ज कराने की हिम्मत नहीं होती। परिवार का कोई सदस्य उसे थाने तभी लेकर जाएगा जब आरोपी कोई अनजान होगा, ना कि कोई परिचित। जाहिर है इस कदम से कोई बहुत बड़े बदलाव की आस करना खुद को अंधेरे में रखना है।
[सामाजिक मामलों की विशेषज्ञ]