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मोहन भागवत बोले, जनसंख्या नीति बननी चाहिए और हर किसी पर समान रूप से लागू हो

संघ प्रमुख ने एक सवाल के जवाब में कहा कि अन्तर्जातीय विवाह करने के मामले में संघ के लोग सबसे आगे हैं।

By Ravindra Pratap SingEdited By: Published: Wed, 19 Sep 2018 06:23 PM (IST)Updated: Thu, 20 Sep 2018 07:23 AM (IST)
मोहन भागवत बोले, जनसंख्या नीति बननी चाहिए और हर किसी पर समान रूप से लागू हो
मोहन भागवत बोले, जनसंख्या नीति बननी चाहिए और हर किसी पर समान रूप से लागू हो

नई दिल्‍ली, जेएनएन। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तीन दिन के कार्यक्रम 'भारत का भविष्य' के अंतिम दिन बुधवार को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कार्यक्रम में आए सवालों के जवाब दिए। भागवत ने इस दौरान हिंदुत्‍व, जाति व्यवस्था, धारा-370, 35-ए, जनसंख्‍या नीति आरक्षण, महिलाओं की स्थिति अल्पसंख्यक, समलैंगिकता, जम्मू-कश्मीर और शिक्षा नीति जैसे मुद्दों पर जवाब दिए।

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सवाल-हिंदुत्व, हिंदुनेस और हिंदुइज्म क्या तीनों एक ही है? क्या जनजातीय समाज भी हिंदू है? 

-नहीं, इज्म यानी वाद एक बंद चीज मानी जाती है, उसमें विकास के लिए खुली राह नहीं होती है। जबकि हिंदुत्व एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। महात्मा गांधी ने कहा कि सत्य की अनवरत खोज का नाम हिंदू है। इसीलिए हिंदुत्व में कोई इज्म नहीं है। हिंदुत्व अन्य मतावलंबियों के साथ तालमेल कर चल सकने वाली एकमात्र विचारधारा है। 

यह प्राकृतिक विविधता को लेकर चलती है। विविधता में भेद नहीं करती है। हिंदुत्व ही सबका आधार बन सकता है। जनजातीय समाज भी हिंदू है। जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं कि हमारे अनुसार भारत में रहने वाले सभी हिंदू ही हैं। पहचान की दृष्टि से राष्ट्रीयता की दृष्टि से। कुछ लोग जानते हैं और गर्व के साथ कहते हैं। कुछ लोग जानते हैं लेकिन गर्व के साथ नहीं बल्कि सामान्य रूप से खुद को हिंदू मानते हैं। कुछ लोग जानते हैं कि लेकिन अन्य किसी संकोच के कारण खुद को हिंदू नहीं कहते हैं। वहीं कुछ लोग अनजाने में भी खुद को हिंदू नहीं कहते हैं। जबकि कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो जानबूझकर खुद को हिंदू नहीं कहते हैं। लेकिन सच्चाई यही है कि भारत में रहने वाले सभी अपने हैं। यहां कोई पराया नहीं है।

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- सवाल- अगर हिंदुत्व की व्याख्या इतनी ही श्रेष्ठ है तो विश्व और भारत के भीतर भी हिंदुत्व को लेकर आक्रोश क्यों दिखाई देता है?- इसका उल्टा है। विश्व में हिंदुत्व की स्वीकार्यता बढ़ रही है। 

हां, भारत में है और वह हिंदुत्व विचार को लेकर नहीं उसे विकृत स्वरूप देने को लेकर है। बहुत सारे अधर्म धर्म के नाम पर हुए। सवाल- अगर सभी धर्म समान ही हैं तो धर्म परिवर्तन का विरोध क्यों? क्या इसके लिए कोई कानून बनना चाहिए? - मैं भी सवाल ही पूछता हूं- अगर सभी धर्म समान हैं तो धर्म परिवर्तन क्यों? जो जिसमें हैं वहां रहकर पूर्णता प्राप्त करेगा।

सवाल है जबरन, प्रलोभन से धर्म परिवर्तन का। आध्यात्म को बाजार में नहीं बिकता। छल बल से धर्म परिवर्तन कराया जाता है। देश विदेश का इतिहास पढ़ लीजिए कि संघ के विरोधी विचारधारा वाले भी धर्म परिवर्तन के बारे में क्या लिखते हैं। एक चितपावन ब्राह्मण नारायण स्वामी के मन में आया कि वह येशु का अनुसरण करेंगे और किया भी, लेकिन वह आध्यामिक था। उनकी राष्ट्रीय सोच में कोई बदलाव नहीं आया। संघ के लोग उनको बहुत आदर देते रहे।

 सवाल- जनसंख्या को लेकर क्या कोई नीति बननी चाहिए। क्या आपको लगता है हिंदू जनसंख्या पर प्रभाव पड़ रहा है? 

-जनसंख्या का विचार अगले पचास साल को ध्यान में रखकर करना चाहिए। हमें यह भी देखना चाहिए कि आज जो भारत युवाओं का देश है वह अगले पचास साल में बुजुर्गो का देश न बन जाए। वहीं यह भी सोचना चाहिए कि उस वक्त मौजूद आबादी को खिलाने की क्षमता हमारे पास होगी या नहीं। क्या पर्यावरण वह बोझ सह पाएगा? डेमोग्राफी पर कितना प्रभाव पड़ेगा?

इन सभी को ध्यान में रखते हुए जनसंख्या नीति बननी चाहिए और हर किसी पर समान रूप से लागू होना चाहिए। जहां समस्या बड़ी है वहां पहले उपाय हो। यानी जहां पालन करने की क्षमता नहीं है लेकिन बहुत बच्चें हैं,वहां पहले उपाय किया जाना चाहिए। जहां ऐसी बड़ी समस्या नहीं है वहीं थोड़ा आराम से किया जा सकता है। इसके लिए हर किसी को मन बनाना पड़ेगा। वैसे यह भी सच है कि यह केवल देश और समाज का ही नहीं परिवार का भी विषय है। अगर हिंदुओं की संख्या कम या ज्यादा हो रही है तो यह सोच का भी विषय है।

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-सवाल- पूरे समाज में समरसता के लिए रोटी-बेटी का संबंध होना चाहिए या नहीं? संघ इसके लिए क्या कर रहा है? अंतरजातीय विवाह और अंतरधार्मिक विवाह के बारे में संघ क्या सोचता है? क्या यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि हिंदू समाज आगे जातियों में नहीं बंटेगा? 

-हम रोटी-बेटी व्यवहार का पूरी तरह समर्थन करते हैं। लेकिन रोटी का व्यवहार आसानी से कर सकते हैं। बेटी व्यवहार थोड़ा कठिन इसीलिए है कि उसमें केवल सामाजिक समरसता का विचार नहीं है। दो परिवारों के बीच संबंध की बात है, दो व्यक्तियों के बीच सामंजस्य की बात है। फिर भी बेटी व्यवहार को भी हमारा समर्थन है।

यदि देश में अंतरजातीय विवाद का आंकड़ा निकाला जाए तो सबसे अधिक प्रतिशत स्वयंसेवकों का मिलेगा। जीवन के हर व्यवहार में समाज को अभेद दृष्टि से देखना, यह जब करते हैं तब हिंदू समाज जातियों में नहीं बंटेगा। इसको हम सुनिश्चित कर सकते हैं। ऐसा मेरा विश्वास इसीलिए है कि हिंदुत्व की आत्मा एकता में भी विश्वास करती है। 

-सवाल-समाज में जाति व्यवस्था को संघ कैसे देखता है? संघ में अनुसूचित जाति और जनजातियों का क्या स्थान है? घुमंतू जातियों के कल्याण के लिए संघ ने क्या कोई पहल की है? 

- आज व्यवस्था कहां है, अव्यवस्था है। कभी जाति व्यवस्था रही होगी, आज उसका विचार करने का कोई कारण नहीं है। जाति को जानने का प्रयास करेंगे तो वह पक्की होगी। हम सामाजिक विषमता में विश्वास नहीं करते। हम संघ में पूछते नहीं। मैं पहली बार सरकार्यवाह चुना गया तो हमारे सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी चुने गए। मीडिया में खबर चली कि भागवत गुट की विजय हो गई, लेकिन ओबीसी को प्रतिनिधित्व देने के लिए सोनी को रखा गया।

मैंने सोनी जी से पूछा कि आप ओबीसी में आते हैं क्या? तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, केवल मुस्करा दिया। इसीलिए मैं आज भी नहीं जानता कि सोनी जी कहां से आते हैं। संघ जाति के आधार पर सोचता ही नहीं है। कोटा सिस्टम करेंगे तो जाति का भान रहेगा। सहज प्रक्रिया से सबको लाएंगे, तो जाति नहीं रहेगी। 

50 के दशक में आपको संघ में ब्राह्मण ही नजर आते थे। लेकिन आप जब सवाल पूछते हैं तो देखता हूं तो पाता ही काफी उच्च स्तर पर सभी जातियों को कार्यकर्ता आते हैं। यही नहीं, भविष्य में संपूर्ण भारत में काम करन वाली सभी जातियों की कार्यकारिणी आपको दिखने लगेगी। यात्रा लंबी है, लेकिन हम उस ओर आगे बढ़ चुके हैं। घुमंतू जातियों के बीच भी हमने काम किया है।

स्वतंत्रता के बाद उनके बीच काम करने वाले हम पहले हैं। महाराष्ट्र में यह काम शुरू हुआ। काम इतना बढ़ गया कि पहले महाराष्ट्र सरकार ने और अब केंद्र सरकार ने उनके लिए अलह कमीशन बनाया है। पिछले साल हमने भारत की सभी घुमंतू जातियों के बीच काम करने का उपक्रम शुरू किया है। 

-सवाल- शिक्षा में आधुनिकता के साथ परंपरा के समन्वय पर संघ की क्या राय है? उच्च शिक्षा का स्तर लगातार घट रहा है। ऐसे में भविष्य के भारत का निर्माण कैसे होगा? 

-आज की दुनिया में आधुनिक शिक्षा प्रणाली में जो लेने लायक है, लीजिये। लेकिन अपनी परंपरा से भी जो लेने लायक उसको लेकर अपनी नई शिक्षा नीति बनानी चाहिए। आशा करता हूं कि आने वाली नई शिक्षा नीति में ये सब बातें होंगी। भारत के सभी धमग्रंथों, संप्रदायों और ऋषियों के विचारों को शिक्षा में शामिल किया ही जाना चाहिए। इसके साथ ही बाद में जो संप्रदाय बाद में बाहर से भारत में आए हैं, उनमें भी जो मूल्य बोध है। उसको भी सिखाना चाहिए। रिलीजन की शिक्षा हम भले ही न दे, लेकिन उससे निकलने वाले मूल्य बोध को हमारी शिक्षा पद्धति में शामिल होना चाहिए।

शिक्षा का स्तर नहीं घट रहा है, शिक्षा देने वालों का स्तर घट रहा है। शिक्षा लेने वालों का स्तर घट रहा है। उच्च शिक्षण संस्थाओं में डिग्रियां तो बहुत दी जा रही हैं, उच्च शिक्षा के संस्थान बहुत चल रहे हैं लेकिन रिसर्च कम हो रहा है। यहां से डिग्री लेकर निकलने वाले छात्रों को रोजगार नहीं मिल रहा है। विषय को पढ़ाने वाले प्रोफेसर शिक्षक कम हो गए। इस दृष्टि से एक सर्वांगिण विचार करके सभी स्तरों पर शिक्षा का एक अच्छा मॉडल खड़ा करना पड़ेगा। इसीलिए शिक्षा नीति पर आमूलचूल विचार हो और परिवर्तन इसमें किया जाए यह संघ सालों से कह रहा है।

आशा करते हैं कि नई शिक्षा में सारी बातों को समावेश होगा। अपने देश की अधिक शिक्षा निजी हाथों में है और उस निजी क्षेत्र में बहुत अच्छे-अच्छे प्रयोग भी चल रहे हैं। शिक्षा संस्थाओं में काम करने वाले लोग अपनी अधिकार मर्यादा में प्रयोग करके शिक्षा का स्तर ऊंचा उठा सकते हैं। ऐसा हुआ तो फिर सरकारी नीति भी उसका अनुसरण करेगी। इसीलिए सबकुछ सरकार पर नहीं छोड़ते हुए हम सबको भी अपने-अपने क्षेत्र में प्रयास करना चाहिए।

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-सवाल- नीति नियामक संस्थाओं में अंग्रेजी का प्रभुत्व दिखाई देता है। संघ का भारतीय भाषाओं और हिंदी के प्रति क्या विचार है? हिंदी पूरे देश की भाषा कब बनेगी? क्या संस्कृत को हिंदी से अधिक वरियता नहीं दी जानी चाहिए? 

-अंग्रेजी का प्रभुत्व नियामक संस्था में कहां, वो तो हमारे घर में है। जो भारतीय भाषाओं में बोल सकते हैं, मिलते हैं, तो अंग्रेजी में बात करते हैं। हम अपनी मातृभाषाओं को सम्मान देना शुरू करें। भाषाओं रहना मनुष्य जाति के विकास के लिए अनिवार्य बात है। अपनी भाषा का पूरा ध्यान रखो। किसी भाषा से शत्रुता करने की जरूरत नहीं है। अंग्रेजी हटाओ नहीं, अंग्रेजी रखो।

अंग्रेजी का हौवा जो हमारे मन में है उसको निकालना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय भाषा कहते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। अमेरिका भी अंग्रेजी भी बोलती है, लेकिन कहती है ब्रिटिश अंग्रेजी हमारी अलग है। फ्रांस, इजराइल, रूस, चीन, जापान सब अपनी-अपनी भाषाओं में काम करते हैं। उन्होंने प्रयासपूर्वक यह किया है। हमें भी इसका प्रयास करने पड़ेंगे। सबसे समृद्ध भाषा हमारे पास है। हम कर सकते हैं।

 भाषा के नाते हम किसी भाषा से शत्रुता नहीं करते हैं, लेकिन देश का काम अपनी भाषा में हो इसकी आवश्यता है। फिर देश में कई भाषाओं का सवाल आता है। किसी एक भारतीय भाषा को हम सीखें इसका मानस हमको बनाना पड़ेगा। हिंदी की बात पुराने समय से चली है अधिक लोग इसे बोलते हैं इसीलिए चली है। लेकिन इसका मन बनाना पड़ेगा, कानून बनाने से काम नहीं चलेगा। थोपने से नहीं चलेगा। आखिर एक भाषा की बात हम क्यों कर रहे हैं। इसीलिए कि हमको देश को जोड़ना है। एक भाषा बना देने से यदि देश में विरोध खड़ा होता है, कटुता बढ़ती है, तो हमको सोचना पड़ेगा।

किसी एक भाषा के लिए वरियता शब्द का प्रयोग गलत है। भारत की सभी भाषाएं हमारी अपनी है। काम के कारण दूसरे प्रांतों के लोग हिंदी सीख रहे हैं। लेकिन हिंदी प्रांत वालों का हिंदी में काम चल जाता है इसीलिए दूसरी भाषा को नहीं सीख रहे हैं। उन्हें सीखना चाहिए। संस्कृत के विद्यालय घट रहे हैं और उसे कोई महत्व कौन नहीं देता है। हम उसे महत्व नहीं देते हैं, इसीलिए सरकार भी नहीं देती। हमारा आग्रह रहे कि हमारी परंपरा का सारा साहित्य संस्कृत में है और बच्चे उसे पढ़ें। तो बच्चे सीखेंगे और उन्हें सिखाने वाले विद्यालय भी खुलेंगे। इस दिशा में लगे है हमारे स्वयंसेवक। गौरव बनता है, तो समाज में उसका चलन बढ़ता है। चलन बढ़ने से विद्यालय खुल जाते हैं। पढ़ाने वाले भी मिल जाते हैं।

सवाल- महिलाओं की सुरक्षा को लेकर संघ क्या सोचता है। अपराधियों में कानून के प्रति भय क्यों नहीं है। 
- महिलाएं हर क्षेत्र में सबल हो रही है। अब उन्हें आत्म सुरक्षा को लेकर भी सबल बनाना पड़ेगा। किशोरी विकास और किशोर विकास दोनों करना होगा। महिला को देखने की पुरुष की दृष्टि बदलनी होगी और यह हमारी परंपरा में है। संघ ने बालिका को सबल बनाने का काम शुरू किया है। उन्हें प्रशिक्षण दिया जा रहा है। उनके बीच स्पर्धा भी कराई जा रही है। जहां तक कानून के प्रति भय की बात है तो उसके लिए समाज को जाग्रत होना पड़ेगा। कानून तभी प्रभावी होता है जब समाज वैसा वातावरण बनाता है।

सवाल- गोरक्षा के नाम पर क्या लिंचिंग उचित है। 
-किसी भी विषय पर हिंसा उचित नहीं है। पर गाय का महत्व कुछ दूसरा भी है। संविधान के नीति निर्देशक तत्व में भी यह शामिल है। लेकिन उसके साथ ही यह भी जरूरी है गोरक्षा करने वाले गाय को घर पर रखें, अगर उसे खुला छोड़ेंगे तो फिर आस्था पर सवाल उठेगा। इसलिए गो संवर्धन पर विचार होना चाहिए।

और मैं कह सकता हूं कि अच्छी गौशाला चलाने वाले कई मुसलमान भी हैं। गाय देश की अर्थव्यवस्था से भी जुड़ी है। हमें तो जागरुकता लानी होगी। जो उपद्रवी तत्व से उसे इससे नहीं जोड़ना चाहिए। मैं इतना जरूर कहूंगा कि जो अपने हाथों से गाय की सेवा करते हैं उनमें हिंसक प्रवृति कम हो जाती है। 


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