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पश्चिम बंगाल में 'कमल' खिलने से TMC को झटका, लेफ्ट के ताबूत में भी ठोकी आखिरी कील

34 वर्षों के वामपंथी शासन का अंत वैसे तो आठ साल पहले 2011 में ममता बनर्जी ने कर दिया था लेकिन वामपंथ के ताबूत में आखिरी कील इस चुनाव में भाजपा ने ठोक दी।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 24 May 2019 12:33 PM (IST)Updated: Sat, 25 May 2019 08:48 AM (IST)
पश्चिम बंगाल में 'कमल' खिलने से TMC को झटका, लेफ्ट के ताबूत में भी ठोकी आखिरी कील
पश्चिम बंगाल में 'कमल' खिलने से TMC को झटका, लेफ्ट के ताबूत में भी ठोकी आखिरी कील

जयकृष्ण वाजपेयी, कोलकाता। 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की आंधी चलने के बावजूद पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी का दुर्ग सलामत ही नहीं रहा था, बल्कि 34 सीटें जीतकर तृणमूल ने भाजपा को महज दो सीटों पर रोक दिया था। तब कांग्रेस को चार और माकपा को दो सीटें मिली थीं, लेकिन पिछले पांच वर्षों में जिस तरह से भाजपा ने बंगाल की धरती पर कमल खिलाने के लिए मेहनत की, उसी का नतीजा है कि इस लोकसभा चुनाव में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस दो सीटों पर सिमट गई और माकपा पूरी तरह से साफ हो गई।

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34 वर्षों के वामपंथी शासन का अंत वैसे तो आठ साल पहले 2011 में ममता बनर्जी ने कर दिया था, लेकिन वामपंथ के ताबूत में आखिरी कील इस चुनाव में भाजपा ने ठोक दी। वहीं, पिछले एक दशक से अजेय रहीं ममता को इस बार पीएम नरेंद्र मोदी के मैजिक के सामने हार मिली है। 2011 के बाद एवं 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले तक बंगाल में जितने भी चुनाव हुए, उसमें ममता का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोला, लेकिन भाजपा को बंगाल में जिस तरह की उम्मीद थी, उसे लोगों ने अबकी बार वोट देकर पूरा किया है।

उत्तर प्रदेश के बाद पीएम मोदी की सर्वाधिक 17 चुनावी रैलियां बंगाल में ही हुई थीं। वहीं, ममता भी भाजपा के लिए एक इंच जमीन भी छोड़ने को तैयार नहीं थीं। इसीलिए उन्होंने बंगाल की 42 सीटों पर करीब 150 चुनावी रैलियां व 150 किलोमीटर की पदयात्रा की थी। मोदी व शाह पर व्यक्तिगत हमले भी किए थे, लेकिन इस बार बंगाल के लोग ममता की बातों से प्रभावित नहीं हुए और अपना वोट मोदी को दे दिया। यही नहीं, अन्य सीटों पर भाजपा दूसरे स्थान पर रही है। इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि बंगाल में 2021 का विधानसभा चुनाव ममता के लिए काफी कठिन होने वाला है।

छठे चरण से पहले जिस तरह से ममता ने ‘जय श्रीराम’ के नारे को लेकर प्रतिक्रिया जताई थी, उसे बंगाल के लोगों ने अच्छी तरह से नहीं लिया था। यही नहीं, पूरे देश में मतदान के दौरान सर्वाधिक हिंसा बंगाल में ही हुई। इससे भी लोग नाराज थे, क्योंकि सभी को लग रहा था कि आखिर बंगाल में हिंसा के बिना चुनाव क्यों नहीं होते हैं। वहीं, एनआरसी और नागरिकता संशोधन बिल का विरोध भी शायद ममता को उल्टा पड़ गया, क्योंकि दार्जिलिंग व आसनसोल सीट को छोड़ दें तो जिन सीटों पर भाजपा का कमल खिल रहा है, उन सब पर तृणमूल का कब्जा था।

मतुआ संप्रदाय की बंगाल में काफी संख्या है। मतुआ वोट बैंक को लेकर ही मोदी बनगांव के ठाकुरनगर गए थे और वहां भी चुनाव की घोषणा से पहले ही सभा की थी। मतुआ संप्रदाय की प्रमुख वीणापाणि देवी (बड़ो मां), जिनका हाल में ही निधन हुआ है, का चरण स्पर्श कर आशीर्वाद भी मांगा था। उसी का नतीजा रहा कि राणाघाट व बनगांव जैसी सीटें तृणमूल के हाथों से निकल गईं। भाजपा को ममता की तुष्टीकरण नीति के विरोध का भी काफी फायदा मिला है।

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