नासूर बनी समस्याओं से निजात का साल, मोदी सरकार के फैसले इतिहास में मील के पत्थर होंगे साबित
कोरोना के खिलाफ वैश्विक लड़ाई जारी है और इसमें फिलहाल भारत दुनिया के अग्रणी देशों में दिख रहा है।
प्रशांत मिश्र ( त्वरित टिप्पणी )। कोरोना के खिलाफ वैश्विक लड़ाई जारी है और इसमें फिलहाल भारत दुनिया के अग्रणी देशों में दिख रहा है। मानवता पर सबसे बड़े संकट से निपटने में सरकार के प्रयासों का आकलन तो बाद में होगा, लेकिन मोदी सरकार के पहले साल में कई फैसले हैं, जो भारत के इतिहास में मील का पत्थर साबित होंगे। इस दौरान कुछ चुनौतियां भी आईं, लेकिन सरकार ने देश की सुरक्षा पर दूरगामी असर डालने वाले इन फैसलों पर झुकने से इनकार कर दिया।
पीएम मोदी ने अनुच्छेद 370 और 35ए को एक झटके में हटा दिया
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल को नोटबंदी और जीएसटी जैसे बड़े आर्थिक फैसलों के लिए जाना जाता है, लेकिन ऐतिहासिक बहुमत के साथ दोबारा सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने उन समस्याओं से निपटने का फैसला किया, जनता जिनसे निजात पाने की उम्मीद भी खो चुकी थी। देश के लिए नासूर बन चुके कश्मीर समस्या की जड़ अनुच्छेद 370 और 35ए एक झटके में इतिहास का विषय बन गया। कश्मीर की विशेष स्थिति को लेकर वहां के नेताओं को इतना भरोसा था कि उन्होंने मोदी सरकार को अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाने की सीधे चुनौती तक दे डाली थी।
चुनौती बड़ी थी और संविधान संशोधन जरूरी था
चुनौती बड़ी थी और इसके लिए संविधान संशोधन जरूरी था। संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से संविधान संशोधन को पास कराने के लिए सहयोगी दलों को एकजुट रखने के साथ ही विपक्षी पाíटयों को भी साधने की चुनौती थी। लोकतांत्रिक प्रक्रिया की कसौटी से संशोधन को सफलतापूर्वक पार किया गया। सरकार ने उन आशंकाओं को भी निर्मूल साबित किया कि इससे कश्मीर में हिंसा और बढ़ेगी और हालात बेकाबू हो जाएंगे। वहीं वैश्विक कूटनीति के मोर्चे पर पाकिस्तानी दुष्प्रचार को भी नाकाम किया गया। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल के दौरान दुनिया के बड़े नेताओं के बनाए गए व्यक्तिगत संबंधों की अहम भूमिका रही।
राममंदिर पर फैसले को जिस सहजता से देश ने स्वीकार किया उसका श्रेय मोदी सरकार को जाता है
वैसे तो अयोध्या में राममंदिर के निर्माण का रास्ता सुप्रीम कोर्ट के फैसले से साफ हुआ। इसका श्रेय सरकार को नहीं दिया जा सकता है, लेकिन सांप्रदायिक विभाजन का आधार बना दिये गए इस मुद्दे पर अदालत के फैसले को जिस शांति और सहजता से देश ने स्वीकार किया, निश्चित रूप से उसका श्रेय सरकार को जाता है। सामाजिक और धार्मिक नेताओं को भरोसे में लेकर पहले ही फैसले को स्वीकार करने के लिए जनमानस को तैयार कर लिया गया था।
फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल करने वाले लोग नाकाम रहे
फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल कर और मस्जिद के लिए अयोध्या से दूर पांच एकड़ जमीन स्वीकार नहीं करने का दावा कर कुछ लोगों ने अयोध्या विवाद को जिंदा रखने की कोशिश जरूर की, लेकिन अंतत: नाकाम रहे।
मोदी सरकार ने तीन तलाक जैसी कुप्रथा को समाप्त करने का संकल्प दिखाया
इसी तरह 1985 में शाहबानो मामले में भारत की प्रगतिशील चेतना को दबाने की भूल का सुधार भी 2019 में संभव हुआ। अपने पहले ही कार्यकाल में अध्यादेश के जरिये मोदी सरकार ने तीन तलाक जैसी कुप्रथा को समाप्त करने का संकल्प दिखाया था, लेकिन संसद से पारित होकर कानून बनने के बाद जिस तरह से मुस्लिम समाज ने इसे स्वीकार किया, उससे साफ हो गया कि मुस्लिम समाज भी भारत की प्रगतिशील चेतना का हिस्सा है।
सीएए को लेकर मोदी सरकार की मुस्लिम विरोधी छवि बनाने की कोशिश हुई
ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार 2.0 के सामने चुनौतियां नहीं रहीं। सीएए और एनपीआर को एनआरसी से जोड़कर एक बड़ा तबका सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया। शाहीनबाग में धरने पर बैठी महिलाओं से निपटने में सरकार पूरी तरह लाचार दिखी। सीएए का भले ही भारतीय मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं हो, लेकिन इसको लेकर पूरी दुनिया में मोदी सरकार की मुस्लिम विरोधी छवि बनाने की भरपूर कोशिश हुई।
सीएए मामले पर मोदी सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं
इसके बावजूद सीएए पर अडिग रहकर सरकार ने साफ कर दिया कि देश की सुरक्षा पर दूरगामी असर डालने वाले वैचारिक मुद्दों पर वह पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है। सीएए विरोधी प्रदर्शनों का चरम दिल्ली के दंगों के रूप में सामने आया, लेकिन दो दिन के भीतर इस पर काबू कर लिया गया और अब पुलिस दंगे के पीछे की साजिश की जांच कर रही है।
मोदी सरकार पर विपक्ष के हमलों में न तो नई धार दिखी और न ही जनता को जोड़ने वाली अपील
मोदी सरकार 2.0 में विपक्ष सरकार पर हमले के लिए मुद्दों की तलाश में संघर्ष करता दिखा। इसका असर विपक्षी एकता पर पड़ा। राहुल गांधी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव और ममता बनर्जी मोदी सरकार के खिलाफ हमले की कमान संभाले रहे, लेकिन उनके हमले में न तो नई धार दिखी और न ही जनता को जोड़ने वाली अपील।
'कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना'
'कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना' के तर्ज पर वे सरकार के फैसलों पर सवाल उठाते दिखे। नवीन पटनायक, के चंद्रशेखर राव, जगनमोहन रेड्डी जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों ने विरोध के नाम पर विरोध की दलील को मानने से इनकार कर दिया और अहम मुद्दों पर सरकार के साथ दिखे।