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Lok Sabha Election 2024: बंगाल से बाहर राजनीतिक विस्तार की तैयारी में ममता बनर्जी

आगामी लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को पटखनी देने की विपक्षी कोशिशों के बीच कुछ उलटबांसियां हो रही हैं। उन पर राजनीतिक पंडित या तो जानबूझकर ध्यान नहीं दे रहे हैं या फिर BJP और मोदी विरोध से उपजे राजनीतिक घटाटोप में उन पर निगाह नहीं पड़ रही है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 23 Oct 2021 09:28 AM (IST)Updated: Sat, 23 Oct 2021 09:28 AM (IST)
Lok Sabha Election 2024: बंगाल से बाहर राजनीतिक विस्तार की तैयारी में ममता बनर्जी
राजनीतिक क्षत्रपों का उभार और उनकी सीमाएं। फाइल फोटो

उमेश चतुर्वेदी। भाजपा विरोधी खेमा केंद्र में सरकार बनाने के प्रयासों में जुटा हुआ है। हालांकि इसके लिए अभी उन्हें लंबा इंतजार करना होगा, क्योंकि आम चुनाव 2024 में निर्धारित हैं। लेकिन बंगाल में तीसरी बार जीत हासिल करने के बाद मोदी विरोधियों की उम्मीद बनकर उभरीं ममता बनर्जी एक तरफ जहां कांग्रेस का राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग लेने की कोशिश करती नजर आ रही हैं तो वहीं दूसरी ओर वह कांग्रेस में ही सेंध लगा रही हैं। गोवा में कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे पूर्व मुख्यमंत्री एडवर्ड फलेरियो को तृणमूल में शामिल करके उन्होंने कांग्रेस को झटका दिया है। मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के भी कांग्रेस छोड़ तृणमूल की पतवार के सहारे राजनीति की नैया पार लगाने की तैयारी भी अब छिपी हुई नहीं है।

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ममता के इन कदमों का संदेश साफ है। दरअसल वे अपने दल को बंगाल की सीमाओं से बाहर निकालकर राष्ट्रीय स्वरूप देने की तैयारी में हैं। भारतीय राजनीति में तीन और दल ऐसे हैं, जो लगातार खुद को अपने राज्य की सीमा से बाहर निकालकर राष्ट्रीय बनाने की कोशिश में हैं। 80 वर्ष से अधिक उम्र होने के बावजूद मराठा क्षत्रप शरद पवार प्रधानमंत्री बनने का अपना सपना छोड़ नहीं पाए हैं। इसी कड़ी में अरविंद केजरीवाल की कोशिशें छिपी नहीं हैं। वहीं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल होने के बावजूद जदयू की यह चाहत रह-रहकर बाहर आ ही जाती है।

आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा के बहुमत से दूर रहने की दशा में बेहतर विकल्प दर्शाने में जुटे तमाम राजनीतिक क्षत्रप। फाइल

राष्ट्रीय इतिहास के उबड़-खाबड़ पत्थर पर अपना नाम खुदवाने की ममता बनर्जी की कोशिश भले ही नई हो, शरद पवार अरसे से ऐसा प्रयास कर रहे हैं। प्रधानमंत्री पद की अपनी आकांक्षा को वे शाब्दिक जाल और राजनीतिक पैंतरेबाजी के माध्यम से हर मुमकिन मौके पर जाहिर करते रहे हैं। वर्ष 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में जीत के बाद जदयू नेता नीतीश कुमार तो मोदी विरोधी खेमे के प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक उम्मीदवार के तौर पर उभर भी चुके थे। लेकिन बाद में बिहार की सरकार को सहयोगी लालू प्रसाद यादव ने जब अपनी लालटेन की रोशनी में राह दिखाना तेज किया, तो नीतीश ने राष्ट्रीय इतिहास रचने के अपने सपने को कुछ वर्षो के लिए भुला दिया। बेशक वे भाजपा के साथ हैं, लेकिन उनकी भी महत्वाकांक्षा छिपी हुई नहीं है। यही स्थिति आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल की भी है। चारों नेताओं को पता है कि राष्ट्रीय इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अपना नाम उनके लिए दर्ज कराना ज्यादा आसान तब होगा, जब उनके दल क्षेत्रीयता की सीमाओं को पार कर जाएंगे। उन्हें पता है कि अगर उन नेताओं के पास कम से कम 50 लोकसभा सांसद होंगे, तो देश के नेतृत्व पर उनके लिए दावेदारी आसान होगी, बशर्ते भाजपा को अगले आम चुनावों में बहुमत न मिले।

दिल्ली से आगे दल विस्तार का प्रयास : दिल्ली के बाहर पंजाब में अपनी मजबूत पैठ बना चुकी आम आदमी पार्टी की भी उम्मीदें ममता बनर्जी की तरह गोवा पर टिकी हैं। उनके नेताओं का गोवा का बार-बार का दौरा यही साबित करता है। इसके साथ ही आम आदमी पार्टी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के भावी चुनावों में भी अपनी ताकत दिखाने की कोशिश कर रही है। इसलिए मनीष सिसोदिया और संजय सिंह की अगुआई में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी बार-बार तिरंगा यात्र निकालकर अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश कर रही है। इसके पहले गुजरात के निकाय चुनावों में कुछ सीटें वह जीत भी चुकी है। इस जीत से उसकी उम्मीदें बढ़ गई हैं।

क्षेत्रीयता की सीमाओं से मुक्त होने की कोशिशों में शरद पवार भी शिद्दत से जुटे हुए हैं। लेकिन उनकी सीमा यह है कि वे अपने ही राज्य महाराष्ट्र में वैसे सर्वमान्य जन समर्थक आधार हासिल करने में सफल नहीं हुए हैं, जैसा ममता बनर्जी को बंगाल में हासिल है। शरद पवार अपनी घड़ी की टिक-टिक सुनाने की कोशिश महाराष्ट्र की सीमा से बाहर भी करते रहते हैं। सोनिया के विदेशी मूल को आधार बनाकर जब उन्होंने अलग पार्टी बनाई थी, तब उनके साथ मेघालय के दिग्गज पीए संगमा भी थे। उनके साथ सीताराम केसरी के नजदीकी रह चुके बिहार के तारिक अनवर भी थे। तब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की धमक महाराष्ट्र के बाहर बिहार और मेघालय में भी सुनाई देती थी। भले ही उसके पीछे स्थानीय गठबंधनों का भी सहयोग होता था। इसके अलावा, गोवा में भी उनके एक-दो विधायक चुने जाते रहे। लेकिन बाद में संगमा ने अपनी अलग राह चुन ली और तारिक अनवर ने पुराने कांग्रेस में ही अपना भविष्य तलाश लिया।

प्रयास में पीछे नहीं जदयू : क्षेत्रीय से राष्ट्रीय होने की कोशिश में जदयू भी लगा हुआ है। जिस जनता पार्टी और जनता दल का वह अंश है, अतीत में उनका कद बहुत बड़ा होता था। लेकिन गठन के कुछ ही वर्षो के बाद से जनता दल लगातार छीजता चला गया। क्रमिक रूप से इसके इतने टुकड़े हुए कि उसके बारे में कहा जाने लगा कि इस दल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा।

हम जिस लोकतांत्रिक पद्धति को मौजूदा विश्व व्यवस्था में सबसे बेहतरीन शासन व्यवस्था मानते हैं, उसके गर्भ में कई अजूबे भी छिपे हैं। ये अजूबे ही कभी जनता दल यू, तो कभी तृणमूल कांग्रेस, कभी आम आदमी पार्टी तो कभी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और उनके नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को परवान चढ़ाने में मदद देते हैं। पहली बार 1979 में महज 64 सांसदों वाले धड़े के नेता चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बन गए थे। इसके बाद दूसरा मौका वर्ष 1990 में आया, जब केवल 54 सांसदों के नेता चंद्रशेखर बाहरी समर्थन से प्रधानमंत्री बने। वर्ष 1996 में एचडी देवेगौड़ा की पार्टी के केवल 46 और उनके राष्ट्रीय मोर्चा के सिर्फ 79 सांसद ही चुने गए थे। तब लोकसभा में 161 सीटों के साथ भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी थी, फिर भी छोटे दल के नेता देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने। झारखंड ने तो इसी सदी के शुरुआती दिनों में इससे भी बड़ा अजूबा देखा, जब निर्दलीय मधु कौड़ा राज्य के मुख्यमंत्री बन बैठे। बहुमत के जादुई आंकड़े का जुगाड़ उन्हें परिस्थितिवश मिलता चला गया।

आसान नहीं आगे की राह : राष्ट्रीय बनने की कोशिश में कौन कामयाब होगा, यह कहना तो फिलहाल मुश्किल है। लेकिन एक बात तय है कि यह राह तीनों ही दलों के लिए आसान नहीं है। भारतीय जनता स्थानीय स्तर पर स्थानीय नेतृत्व को स्वीकार भले ही कर लेती हो, लेकिन वह लगातार लोकतांत्रिक सोच वाली होती चली गई है। ममता और शरद पवार के दल में वैसा लोकतंत्र नहीं है, जैसा लोकतांत्रिक देश के जिम्मेदार राजनीतिक दलों में होता है। इन दोनों ही दलों में वंशवाद की स्पष्ट छाप दिखती है।

वंशवादी राजनीति की अपनी सीमा होती है। पहली पीढ़ी के नेता जैसा राजनीतिक हुनर बाद की पीढ़ियों में कम ही दिख पाता है। इसलिए अगली पीढ़ी तक आते-आते वंशवाद अस्वीकार्य होने लगता है। बुनियादी इलाके की सीमाओं के बाहर तो उसे शायद ही स्वीकार किया जाए। इन संदर्भो में देखें तो जदयू में वंशवाद नहीं है। लेकिन वहां नीतीश के बाद नया नेतृत्व उभरता नहीं दिख रहा है। जदयू में इन दिनों तीन खेमे स्पष्ट रूप से दिख रहे हैं, पहला खेमा मौजूदा अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह का है तो दूसरा पूर्व अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री रामचंद्र प्रसाद सिंह का, जबकि तीसरा खेमा जदयू से अंदर-बाहर होते रहे उपेंद्र कुशवाहा का। ऐसा माना जाता है कि नीतीश के कद के सामने तीनों खेमों की हिम्मत नहीं है। लेकिन नीतीश के बाद सभी अपने-अपने खेमों के मुखिया हैं।

चाहे ममता हों या फिर शरद पवार या फिर जदयू, तीनों ही दलों के मूल में बुनियादी लोकतंत्र का अभाव है, दो दलों में स्पष्ट वंशवादी छाप है, उन्हें क्षेत्रीय सीमाओं से बाहर स्पष्ट स्वीकृति मिलना आसान नहीं लगता। अपने-अपने क्षेत्र में इन दलों का स्थानीय नेतृत्व फिलहाल इनकी ताकत है, वहीं वंशवाद और बुनियादी लोकतंत्र का अभाव इन दलों की बड़ी कमी है। जाहिर है कि इसका असर उनके भावी कदमों की सफलता पर पड़े बिना नहीं रहेगा।

बंगाल से बाहर राजनीतिक विस्तार की तैयारी में ममता: बंगाल में लगातार तीसरी बार विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करने के बाद ममता बनर्जी जिस तरह राजनीतिक दांव चल रही हैं, उसके संदेश स्पष्ट हैं। ऐसा लगता है कि ममता बनर्जी के सलाहकारों ने उन्हें समझा दिया है कि अगर वे गोलबंदी करने में सफल रहीं और तृणमूल की हैसियत को बंगाल की सीमाओं से बाहर निकालकर उसे राजनीतिक वृक्ष बनाने में सफल रहती हैं तो वह इतिहास रच सकती हैं।

बंगाल में तीसरी बार सत्ता में आने के बाद ममता बनर्जी ने राज्य के बाहर पांव पसारने की रणनीति पर काम तेज कर दिया है। बंगाल के बाहर गोवा में उन्हें अपने लिए मुफीद मौका नजर आ रहा है। शायद यही वजह है कि उन्होंने राज्य में कांग्रेस के कद्दावर नेता और मुख्यमंत्री रहे एडवर्ड फलेरियो को तृणमूल कांग्रेस में शामिल कर लिया। इसके पहले वे राहुल गांधी की युवा ब्रिगेड की सदस्य रही असम की लोकसभा सांसद सुष्मिता देव को ना सिर्फ तृणमूल में शामिल कर चुकी हैं, बल्कि उन्हें बंगाल से राज्यसभा में भी भेज दिया है। इसी तरह मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस दिग्गज मुकुल संगमा के भी तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने की अटकलें लगाई जा रही हैं।

लोकतांत्रिक इतिहास की ये ऐसी घटनाएं हैं, जो अब भी गाहे-बगाहे क्षेत्रीय क्षत्रपों के सपनों का आधार बनती हैं। आज भी माना जाता है कि अगर किसी दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला और किसी क्षत्रप के पास अपने 50-60 सांसद हों तो वह प्रधानमंत्री बन सकता है। शायद इसी सोच के कारण मुलायम सिंह यादव लगातार ऐसी कोशिश करते रहे। यह बात और है कि 50 सांसद जिता पाने का आंकड़ा वे कभी पार नहीं कर पाए।

ममता बनर्जी ने जिस तरह जीत हासिल की है, उससे उनका हौसला बढ़ा हुआ है। उन्हें लगता है कि कांग्रेस की जो हालत है, उसके चलते चुनावी मैदान में उसका बहुत ज्यादा उभर पाना आसान नहीं है। ऐसे में अगर भाजपा को जरूरी बहुमत नहीं मिला तो वह इतिहास रच सकती हैं। इसीलिए वे हिंदीभाषी क्षेत्रों में भी अपनी पकड़ बढ़ाने की कोशिश में जुटी हुई हैं। इन्हीं प्रयासों के तहत उन्होंने कोलकाता के एक प्रमुख अखबार के मालिक को हिंदीभाषी क्षेत्रों के नेताओं और पत्रकारों से मिलने की जिम्मेदारी दे रखी है। प्रशांत किशोर तो अपनी ओर से प्रयास कर ही रहे हैं।

[वरिष्ठ पत्रकार]


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