तेजी से बदल रही राजनीति का सबसे बड़ा शिकार वाम दल है, होता जा रहा अप्रासंगिक
न सिर्फ चुनावी लिहाज से वाम मोर्चा राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अप्रासंगिक होता जा रहा है बल्कि गठबंधन को लेकर वाम की सोच और कवायद भी पूरी तरह प्रभावित हुई है।
नई दिल्ली [आशुतोष झा]। तेजी से बदल रही राजनीति का सबसे बड़ा शिकार अगर कोई दल हुआ है तो वह शायद वाम है। वाममोर्चा यानी माकपा, भाकपा और फारवर्ड ब्लॉक का पूरा समूह। न सिर्फ चुनावी लिहाज से मोर्चा राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अप्रासंगिक होता जा रहा है बल्कि गठबंधन को लेकर वाम की सोच और कवायद भी पूरी तरह प्रभावित हुई है। अगर तीन दशक के राजनीतिक इतिहास पर नजर डाली जाए तो यह अकेला दल है जिसका पतन अचंभित करता है। और शायद यही कारण है कि विचारधारा की दुहाई देकर दूसरे दलों से दूरी बनाकर रहने वाला वामदल आज गठबंधन का पैरोकार बन गया है। अगर गठबंधन आचरण की बात हो तो माना
जा सकता है कि वाम बहुत हद तक विश्वसनीय है, लेकिन तब जब विपक्ष में हो, सरकार में रहते हुए इसका आचरण सहयोगी दलों पर दबाव बनाता है।
चुनाव में वाममोर्चा केरल में कांग्रेस से दो-दो हाथ करेगा और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ मिलकर तृणमूल कांग्रेस तथा भाजपा से लड़ेगा। दूसरे कई राज्यों में इसकी थोड़ी बहुत जमीन है तो सही, लेकिन राजनीतिक हैसियत इतनी सीमित हो गई है कि मोलभाव का दावा ही लगभग खत्म हो गया है। यही कारण है कि पश्चिम बंगाल में वाम और कांग्रेस का फिर से गठबंधन हुआ है। उस पश्चिम बंगाल में जहां 2011 तक तीन दशक तक वाम शासन रहा था। ध्यान रहे कि पिछले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस के साथ समझौता हुआ था। पहली बार हसिया और पंजा छाप एक साथ दिखा था। लेकिन वाम फिर भी खड़ा नहीं हो पाया था। पार्टी के अंदर ही उस निर्णय की बखिया उधेड़ी गई, नेतृत्व पर सवाल भी खड़े हुए लेकिन इस बार फिर वाम और कांग्रेस साथ साथ
है। यह दोस्ती विकल्प के रूप में नहीं मजबूरी के रूप में हुई है।
अब थोड़ा पीछे चलते हैं। 2004 में जब संप्रग-1 की सरकार बनी तो 64 सांसदों के बड़े धड़े के साथ वाममोर्चा ने बाहर से समर्थन दिया था, लेकिन पूरी सरकार को ड्राइवर सीट पर बैठकर चलाने का प्रयास रहा था। सरकार के हर निर्णय पर वाम की छाप दिखती थी। जिस पर वाम से मुहर लगी केवल वही आगे बढ़ पाया। और जब मनमोहन सिंह सरकार ने परमाणु करार पर दृढ़ता से कदम बढ़ाया तो वाम ने पैर खींच लिया। 2009 के लोकसभा चुनाव से सात-आठ महीने पहले समर्थन वापस ले लिया था। अगर थोड़ा और पीछे चलें तो 1996 में ऐसा मौका भी आया था जब वाम के नेता और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया गया था। दल ने इसकी स्वीकृति नहीं दी। हां, सरकार में यूनाइटेड फ्रंट सरकार में शामिल जरूर हुए थे जो केंद्र सरकार में पहली और आखिरी बार वाम नेता की मौजूदगी थी। दरअसल तब अपने शीर्ष पर खड़ा वाम अपनी छवि को लेकर इतना सतर्क था कि किसी अस्थिर सरकार से दूर ही रहना चाहता था।
दरअसल सच्चाई यह है कि वाम गठबंधन पहले कभी राजनीति का पैरोकार नहीं रहा है खासकर तब तक जब तक उसकी अपनी क्षमता बलवती थी। पश्चिम बंगाल मे तीन दशक तक और पड़ोसी राज्य त्रिपुरा में ढाई दशक तक कोई चुनौती नहीं रही थी और केरल में कांग्रेस के साथ सीधी लड़ाई मे बारी-बारी से सत्ता मिलती रही थी। आंकड़ों पर गौर करें तो चकित हो जाएंगे। 10वीं लोकसभा में वाममोर्चा संयुक्त रूप में चौथे नंबर की पार्टी थी
और संख्या पचास के पार। 11वीं से लेकर 14वीं लोकसभा तक जब कांग्रेस भाजपा के बीच जंग तेज रही और गठबंधन सरकारों का बोलबाला रहा तब भी वाममोर्चा संख्या बल के हिसाब से हमेशा तीसरे नंबर की पार्टी रही। लेकिन फिर पतन थमा नहीं। फिलहाल वाममोर्चा की कुल संख्या 10 है और नौवें नंबर की पार्टी है। और राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा लगातार खतरे में चल रहा है। शायद यही हताशा है जिसमें वाम की रुचि गठबंधन में बढ़ी है और हिंदी बेल्ट की राजनीति में भी। क्लास की बजाय कास्ट (वर्ग की बजाय जाति) की राजनीति में जाने का विचार होने लगा है।