एक दूसरे पर नरम तो नहीं वाम और तृणमूल, ममता की राजनीतिक लड़ाई अब भाजपा से है
कभी वाम का गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में ममता ने ही उन्हें ध्वस्त किया था। वाम का बड़ा समर्थक वर्ग भी अब ममता के साथ है।
आशुतोष झा, नई दिल्ली। पिछला रविवार पश्चिम बंगाल की राजनीतिक धड़कन और नब्ज टटोलने के लिहाज से बहुत अहम था। एक तरफ तीन दशक से सत्ता में रहने के बाद अब राजनीतिक अस्ताचल में गए वामदलों ने प्रदेश की जनता को याद दिलाने की कोशिश की कि वह जिंदा है। तो दूसरी ओर देर शाम सारधा चिटफंड घोटाले को लेकर बड़ा राजनीतिक घमासान हुआ। दोनों घटनाएं जरूर अलग-अलग हुईं, लेकिन राजनीतिक पहलू से दोनों के तार थोड़े मिलते नजर आते हैं। खिलाड़ी कई थे, लेकिन परोक्ष रूप से यह माना जाने लगा है लड़ाई सिर्फ तृणमूल और भाजपा की थी।
रविवार की दोपहर कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में वाम मोर्चा की बड़ी रैली थी। यह रैली तीन साल बाद हुई, जबकि यह सालाना तौर पर हुआ करती थी। बताते हैं कि प्रदेश में लगातार घट रहे समर्थन, कार्यकर्ताओं और सदस्यों की कम हो रही संख्या को देखते हुए रैली में प्रभावी भीड़ इकट्ठी हुई थी।
सामान्यता वाम मोर्चा की ओर से रैली और प्रदर्शन में अवरोध के लिए राज्य सरकार पर उंगली उठाई जाती रही है। लेकिन इस बार ऐसा भी कोई आरोप नहीं लगा। यह इसलिए भी अहम है क्योंकि भाजपा की हर प्रस्तावित रैली को लेकर बड़ा बवाल रहा है। ठीक उसी दिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की दो रैली इसीलिए रद्द हुई क्योंकि उनके हेलीकाप्टर को उतरने की इजाजत नहीं मिली थी।
एक दिन बाद मुर्शिदाबाद में भाजपा नेता शाहनवाज हुसैन की भी एक रैली थी लेकिन उसे इजाजत नहीं मिली। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह तक की रैली के लिए मैदान का इंतजाम करने में प्रदेश के भाजपा नेताओं को नाकों चने चबाने पड़े हैं।
दूसरी तरफ देर शाम कोलकाता में सारधा चिटफंड घोटाले को लेकर सीबीआइ और पुलिस के बीच तकरार बढ़ी और मामला मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के धरने तक पहुंच गया। पूरे देश के विपक्षी नेता ममता के खुले समर्थन में उतर गए उस वक्त वाम का रुख भी थोड़ा अलग था।
वाम दल ममता के समर्थन में तो नहीं गए, लेकिन उनकी ओर से कहा गया कि घोटाले का मास्टरमाइंड अब भाजपा में है। निशाना भाजपा की ओर लगाया गया।
कभी वाम का गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में ममता ने ही उन्हें ध्वस्त किया था। वाम का बड़ा समर्थक वर्ग भी अब ममता के साथ है। लेकिन रैली में वाम का पहला हमला भाजपा पर था। दूसरी तरफ लगातार होने वाले चुनावों में ममता को यह साफ दिख गया है कि उसकी लड़ाई अब वाम से नहीं भाजपा से है।
दरअसल अकेले भाजपा के पास ही शक्ति बची है कि जमीनी स्तर पर तृणमूल के हमलों का भी जवाब दे सके। बताते हैं कि कुछ इन्हीं कारणों से नाडिया जिले मे वाम के कार्यकर्ताओं को भी भाजपा की छत्रछाया में आना पड़ा था। लेकिन इसके तूल पकड़ने के बाद वाम ने इससे पल्ला झाड़ लिया।
जाहिर है कि सवाल उठेगा कि क्या अब वामदल पर ममता बिखरने लगी है? और क्या इसका कारण भाजपा है? दरअसल ममता के उदय के बाद से सबसे ज्यादा बिखराव वामदलों में ही हुआ। त्रिपुरा में भी वाम के परास्त होने के बाद कार्यकर्ताओं और समर्थकों में निराशा और बढ़ी है। ऐसे में अगर वह ममता के विरोध में भाजपा की राह चले जाएं तो आश्चर्य नहीं। ऐसा हुआ तो तृणमूल का स्वाद खट्टा होगा। शायद ब्रिगेड मैदान की वाममोर्चा की रैली यह याद दिलाने के लिए ही थी कि वह जिंदा भी है और समर्थ भी। और ममता के लिए यह घाटे का सौदा नहीं है।