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आखिर क्‍या है इलेक्टोरल बांड और राजनीतिक पार्टियों के लिए क्‍यों होता है बेहद खास, जानें

इलेक्टोरल बांड से मतलब एक ऐसे बांड से है जिस पर एक करेंसी नोट की तरह उसकी वैल्यू लिखी होती है। राजनीतिक दलों को रकम दान करने के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 15 Apr 2019 11:02 AM (IST)Updated: Mon, 15 Apr 2019 11:06 AM (IST)
आखिर क्‍या है इलेक्टोरल बांड और राजनीतिक पार्टियों के लिए क्‍यों होता है बेहद खास, जानें
आखिर क्‍या है इलेक्टोरल बांड और राजनीतिक पार्टियों के लिए क्‍यों होता है बेहद खास, जानें

राहुल लाल। उच्चतम न्यायालय ने इलेक्टोरल बांड के माध्यम से राजनीतिक दलों को मिलने वाली रकम पर तो कोई अंतरिम रोक नहीं लगाई है, लेकिन पारदर्शिता हेतु पार्टियों को निर्देश दिया कि इलेक्टोरल बांड के जरिये 15 मई 2019 तक मिले चंदे की विस्तृत जानकारी सीलबंद लिफाफे में 30 मई तक चुनाव आयोग को सौंपे। शीर्ष अदालत ने कहा कि इस ब्योरे में प्रत्येक बांड के दानदाताओं, रकम और उनके बैंक खातों का भी ब्यौरा दिया जाए। साथ ही जिस तारीख पर दानकर्ताओं से जितनी रकम मिली है, उसका संपूर्ण ब्यौरा इसमें शामिल होना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने शुक्रवार को चुनावी बांड योजना पर रोक लगाने की मांग संबंधी गैर सरकारी संगठन ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ की याचिका पर यह अंतरिम आदेश दिया।

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संस्था का कहना है कि इलेक्टोरल बांड की अपारदर्शी व्यवस्था के कारण बड़े उद्योगपति दलों को गोपनीय तरीके से चंदा देते हैं, ऐसा करके वे नीतिगत फैसलों को प्रभावित कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इलेक्टोरल बांड योजना की वैधानिकता बड़ा मुद्दा है, जिस पर विस्तृत सुनवाई की आवश्यकता है। दोनों पक्षों के विरोधाभासी दावों और दलीलों के बीच इस अंतरिम आदेश में यह सुनिश्चित किया गया कि संतुलन कायम रहे, क्योंकि अभी इस मामले पर अंतिम निर्णय आना शेष है।

क्या है इलेक्टोरल बांड
केंद्र सरकार ने देश के राजनीतिक दलों के चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए वित्त वर्ष 2017-18 के बजट में इलेक्टोरल बांड शुरू करने का एलान किया था। इलेक्टोरल बांड से मतलब एक ऐसे बांड से होता है, जिसके ऊपर एक करेंसी नोट की तरह उसकी वैल्यू लिखी होती है। यह बांड व्यक्तियों, संस्थाओं अथवा संगठनों द्वारा राजनीतिक दलों को रकम दान करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। चुनावी बांड एक हजार, दस हजार, एक लाख, दस लाख तथा एक करोड़ रुपये के मूल्य के होते हैं। सरकार की ओर से चुनावी बांड जारी करने और उसे भुनाने के लिए भारतीय स्टेट बैंक को अधिकृत किया गया है, जो अपनी 29 शाखाओं के माध्यम से यह काम करता है। इलेक्टोरल बांड को लाने के लिए सरकार ने फाइनेंस एक्ट-2017 के जरिये रिजर्व बैंक एक्ट-1937, जनप्रतिनिधित्व कानून -1951, आयकर एक्ट-1961 और कंपनी एक्ट में कई संशोधन किए गए थे।

केंद्र सरकार ने इलेक्टोरल बांड योजना को दो जनवरी 2018 को अधिसूचित किया। इसके मुताबिक कोई भी भारतीय नागरिक या भारत में स्थापित संस्था चुनावी बांड खरीद सकती है। चुनावी बांड खरीदने के लिए संबंधित व्यक्ति या संस्था के खाते का केवाइसी वेरिफाइड होना आवश्यक होता है। जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 29ए के तहत पंजीकृत राजनीतिक पार्टियां तथा पिछले आम चुनाव या विधानसभा चुनाव में जनता का कम से कम एक फीसद वोट हासिल करने वाली राजनीतिक पार्टियां ही चुनावी बांड के जरिये पैसे ले सकती हैं। चुनावी बांड पर बैंक द्वारा कोई ब्याज नहीं दिया जाता है।

बांड भुनाने की अल्प अवधि
इलेक्टोरल बांड खरीदे जाने के केवल 15 दिनों तक मान्य रहता है। इस संबंध में केंद्र सरकार का कहना है कि कम अवधि की वैधता के कारण बांड के दुरुपयोग को रोकने में मदद मिलती है। इसका आशय है कि इन्हें खरीदने वालों को 15 दिनों के अंदर ही राजनीतिक दल को देना पड़ता है और राजनीतिक दलों को भी इन्हीं 15 दिनों के अंदर इसे कैश कराना होगा।

बांड पर विवाद का कारण
पॉलिटिकल फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ाने के तमाम दावों के बीच इलेक्टोरल बांड पर भी अपारदर्शी होने का आरोप लगने लगा। राजनीतिक दलों की फंडिंग में अज्ञात स्नोतों से आने वाले आय की मात्र बहुत ज्यादा होती है। पिछले 15 वर्षो में अज्ञात स्नोतों से मिलने वाले राजनीतिक दलों के चंदे की मात्र काफी ज्यादा रही, लेकिन इलेक्टोरल बांड से भी इसमें ज्यादा बदलाव नहीं आया था। यह लगता है कि इन बांडों के जरिये चंदे का कानून बनने से हम एक अपारदर्शी व्यवस्था को छोड़कर एक दूसरी अपारदर्शी व्यवस्था के दायरे में आ गए हैं। इसके पूर्व की व्यवस्था में राजनीतिक दलों को 20 हजार रुपये से कम चंदे का विवरण न बताने की छूट थी। इसका भारी दुरुपयोग हो रहा था। चुनावी बांड की व्यवस्था बनने के बाद इस छूट की सीमा 2,000 रुपये कर दी गई।

सरकारी कार्यप्रणाली पर सवाल
सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बांड के मामले पर केंद्र सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाया। शीर्ष अदालत ने गुरुवार (11 अप्रैल) को कहा कि सरकार की काले धन पर लगाम लगाने की कोशिश के रूप में इलेक्टोरल बांड की कवायद पूरी तरह बेकार है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिस तरह से इलेक्टोरल बांड्स की बिक्री को लेकर बैंकों को कोई जानकारी नहीं दी जा रही है, इससे लगता है कि यह ब्लैक मनी को व्हाइट करने का एक तरीका है।

इस मामले पर सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल से पूछा, ‘क्या इलेक्टोरल बांड खरीदने वाले की जानकारी बैंक के पास है?’ इस पर अटॉर्नी जनरल ने जवाब दिया, ‘हां, केवाइसी के कारण ऐसा है। हालांकि खरीदारों की पहचान गोपनीय रखी जाती है और माह के अंत में इसकी जानकारी केंद्रीय कोष को दी जाती है। उनके जवाब पर मुख्य न्यायाधीश ने पूछा, ‘हम यह जानना चाहते हैं कि जब बैंक एक इलेक्टोरल बांड ‘एक्स या वाइ’ को जारी करता है, तो बैंक के पास इस बात का विवरण होता है कि कौन सा बांड ‘एक्स’ को और कौन सा बांड ‘वाई’ को जारी किया जा रहा है।’ इस पर के के वेणुगोपाल ने जवाब दिया, ‘नहीं।’ फिर मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि यदि ऐसा है, तो काले धन के खिलाफ लड़ाई लड़ने की आपकी पूरी कवायद व्यर्थ है।

गुरुवार को संबंधित विषय पर सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं का सुप्रीम कोर्ट में कहना था कि मतदाताओं को राजनीतिक दलों के चंदे का स्नोत जानने का अधिकार है। इस पर अटॉर्नी जनरल वेणुगोपाल ने कहा कि जनता को सिर्फ राजनीतिक दलों के उम्मीदवार के बारे में जानने का अधिकार है, उसे इस बात से फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि राजनीतिक दलों का चंदा कहां से आ रहा है। यह कहा जा सकता है कि वेणुगोपाल का यह तर्क अत्यंत कमजोर था, क्योंकि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोच्च है और उसे सब कुछ जानने का अधिकार है।

चुनावी बांड और चुनाव आयोग
सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग ने कहा कि हम चुनावी बांड के खिलाफ नहीं हैं, दानदाताओं के नाम गोपनीय रखने के खिलाफ हैं। चुनाव आयोग का कहना है कि उसने 2017 में भी केंद्र सरकार से पुनर्विचार की मांग की थी। चुनाव आयोग का यह भी कहना है कि गोपनीयता के कारण रिप्रजेंटेशन ऑफ पीपुल्स एक्ट की धारा-29 बी के तहत कानून का उल्लंघन हुआ है या नहीं, इसकी जांच में चुनाव आयोग को कठिनाइयां आ रही है। इसके तहत विदेशी स्नोत से पार्टियां धन प्राप्त नहीं कर सकती हैं। वर्ष 2017 में चुनाव आयोग ने सरकार के इस कदम को प्रतिगामी बताया, जिसे हटाने की मांग की थी। संविधान का अनुच्छेद 324 निर्वाचन आयोग को चुनाव संबंधी शक्तियां प्रदान करता है। ऐसे में चुनाव आयोग की चुनावी बांड के प्रति विरोध को सुप्रीम कोर्ट ने पर्याप्त महत्व दिया। इस दृष्टि से 30 मई तक चुनावी बांड के सभी चंदे का हिसाब सभी दलों द्वारा चुनाव आयोग को देने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक है। चुनाव प्रक्रिया में धन बल का प्रयोग अत्यधिक होता है। चुनावी चंदे की व्यवस्था को अत्यंत पारदर्शी न बनाया गया, तो राजनीति के काले धन से संचालित होने की संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता। इसलिए यह आवश्यक है कि चुनावी बांड संबंधित जानकारी न केवल चुनाव आयोग तक सीमित रहे, अपितु सामान्य मतदाताओं को भी पता हो।

चुनाव सुधार के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था एडीआर ने उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी जिसमें राजनीतिक दलों को मिले चुनावी बांड की रकम को सार्वजनिक करने को कहा था। केंद्र सरकार ने इसके लिए आम चुनाव खत्म होने तक प्रतीक्षा करने को कहा, जिस दलील को खारिज करते हुए अदालत ने कहा कि वह मामले को विस्तार से देखेगा। चुनाव सुधार की दिशा में इसे बेहतरीन कदम माना जा रहा है। इससे उम्मीद जगी है कि जल्द ही देश में राजनीतिक दलों के चंदे से संबंधित एक ऐसा पारदर्शी ढांचा बन सकेगा, जहां राजनीतिक दलों के ‘अज्ञात स्नोत’ वाले चंदे का मॉडल समाप्त हो सकता है।

(लेखक स्‍वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं)

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