कर्नाटक का राजनैतिक नाटक: संविधान की चुप्पी में फंसा कर्नाटक का विश्वास मत
Karnataka Crisis विधायक चाहते हैं कि उनका इस्तीफा स्वीकार हो उन्हें अयोग्य न ठहराया जाए जबकि दोनों ही स्थिति में उनकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी।
माला दीक्षित, नई दिल्ली। राजनीति के माहिर संविधान की चुप्पी (अस्पष्ट पहलुओं) का कैसे लाभ उठाते हैं, कर्नाटक में चल रहा राजनैतिक संकट इसका ज्वलंत उदाहरण है। शायद यह पहला मौका है जबकि किसी मुख्यमंत्री का सदन में बहुमत साबित करने का क्रम इतना लंबा खिंचा हो। कर्नाटक में मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के विश्वास मत पर शुक्रवार को बहस शुरू हुई थी जो सदन का समय समाप्त होने पर दो दिन की छुट्टी तक स्थगित है। सोमवार को जब दोबारा सदन बैठेगा तो आगे बहस होगी। इस बीच कर्नाटक के राज्यपाल द्वारा कुमारस्वामी को बहुमत साबित करने के लिए दी गई दो समय सीमाएं बीत चुकी हैं।
कर्नाटक की इस संवैधानिक पेचीदगी को समझने के लिए कर्नाटक में क्या चल रहा है, उसे समझना जरूरी होगा। 15 विधायकों के बगावत करने से कुमारस्वामी सरकार संकट में आ गई है। विधायकों के बागी होने पर जो होता है वही कर्नाटक में हो रहा है।
बागी कह रहे हैं उन्होंने इस्तीफा दे दिया है, जिसे स्पीकर स्वीकार नहीं कर रहे हैं। जबकि स्पीकर कह रहे हैं कि विधायकों के खिलाफ अयोग्यता की शिकायत है उस पर पहले फैसला होगा। इस बीच राज्यपाल ने कुमारस्वामी को दो पत्र भेजे और बहुमत साबित करने के लिए समय तय कर दिया। राज्यपाल मुख्यमंत्री से बहुमत साबित करने को तो कह सकते हैं, लेकिन सदन आहुत होने के बाद वह सदन की कार्यवाही नियंत्रित नहीं कर सकते।
संविधान और नियम कानून में यह तय नहीं है कि विश्वास प्रस्ताव पर कितने समय में मतदान हो जाना चाहिए। संविधान की इसी चुप्पी का फायदा कर्नाटक में उठाया जा रहा है। इन पहलुओं पर संविधानविद सुभाष कश्यप कहते हैं कि राज्यपाल विधानसभा का अभिन्न अंग है और अनुच्छेद 175 में राज्यपाल सदन को संदेश भेज सकता है। स्पीकर का कर्तव्य है कि वह उसे सदन में रखे और सदन की राय से उस पर फैसला हो, जो कि कर्नाटक में नहीं हुआ।
हालांकि वह मानते हैं कि स्पीकर को सदन की कार्यवाही में काट छांट करने का निर्देश नहीं दिया जा सकता, लेकिन अगर स्थिति काबू से बाहर हो जाए तो क्या विकल्प हैं इस पर कश्यप का कहना है कि राज्यपाल को जैसे सरकार गठित करने का संवैधानिक अधिकार है वैसे ही वह मंत्रिपरिषद भंग भी कर सकते हैं। इसके अलावा अगर सदस्यों को स्पीकर पर विश्वास नहीं रहता तो स्पीकर को हटाने का नोटिस दिया जा सकता है। नोटिस 14 दिन पहले दिया जाता है और डिप्टी स्पीकर उस पर मतदान कराते हैं।
स्पीकर ने सुप्रीम कोर्ट की भी नहीं सुनी थी। कोर्ट ने विधायकों को स्पीकर के सामने पेश होकर इस्तीफे की जानकारी देने और स्पीकर को उसी दिन उस पर फैसला लेने को कहा था, लेकिन स्पीकर ने बात नहीं मानी बल्कि कोर्ट में कहा कि इस्तीफे पर फैसला लेने में वक्त लगेगा और कोर्ट यह तय नहीं कर सकता कि स्पीकर कैसे फैसला लें।
अगली बार कोर्ट ने स्पीकर को सीधे कोई निर्देश नहीं दिया, लेकिन पेंच ऐसा फंसाया कि राजनैतिक गणित लड़खड़ा गई। कोर्ट ने कहा कि स्पीकर इस्तीफे पर जब चाहे फैसला ले, लेकिन विधायकों को भी सदन की कार्यवाही में भाग लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। कोर्ट से छूट मिलने से पार्टी व्हिप जारी कर विधायकों को पक्ष में मतदान को बाध्य करने की राजनीति लड़खड़ा गई।
दूसरी ओर, विधायक चाहते हैं कि उनका इस्तीफा स्वीकार हो उन्हें अयोग्य न ठहराया जाए जबकि दोनों स्थिति में उनकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी। इसमें महीन राजनीति है। इस्तीफे से सदस्यता समाप्त होने पर भी अगर सरकार बनती है तो वे छह महीने तक सदन का सदस्य हुए बगैर मंत्री बन सकते है, लेकिन अयोग्य होने पर चुनाव लड़े बगैर मंत्री नहीं बन सकते। इसीलिए कांग्रेस और जेडीएस व्हिप का हक मांगने फिर कोर्ट पहुंची है।