हिमाचल चुनाव के नतीजे कई मायनों में खास, जनता ने बदल दिया सियासी इतिहास
हिमाचल की जनता ने सत्तारूढ़ कांग्रेस को दरवाजा दिखाया और विपक्षी भाजपा को सत्ता तो सौंपी,लेकिन उसके सीएम पद के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल को हरा दिया।
नई दिल्ली [संदीप शर्मा] । हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव के नतीजे परंपरा के अनुरूप ही रहे। 1990 से लगातार चली आ रही सत्ता परिवर्तन की परंपरा को बरकरार रखते हुए हिमाचल की जनता ने इस बार कांग्रेस से सत्ता छीन कर भाजपा को विजयी बनाया। यह परिवर्तन प्रत्याशित और पूर्वानुमानित था। कुल 68 सदस्यों वाली विधान सभा में 44 सीटे भाजपा, 21 कांग्रेस और एक माकपा और दो निर्दलीय उम्मीदवारों के खाते में गई। परंतु सत्ता परिवर्तन की इस परंपरा के इतर यह चुनाव कुछ ऐसी घटनाओं का साक्षी बना जिससे इस पहाड़ी राज्य में सियासत की नई सूरत पेश हुई है।
भाजपा ने हटकर लिया था फैसला
भाजपा ने परंपरा के इतर इस बार हिमाचल विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री पद के उम्मीद्वार की घोषणा चुनाव पूर्व कर दी थी। इस निर्णय का रणनीतिक उद्देश्य विरोधी के समक्ष एक बड़ी रेखा खींचना था। पार्टी को चुनाव से पूर्व मुख्यमंत्री का चेहरा मिलने से अवश्य फायदा हुआ, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर धूमल को इसका कोई फायदा होता नहीं दिखा। पार्टी को मिली जीत के बावजूद धूमल खुद चुनाव हार गए। जेपी नड्डा खेमे को शिकस्त देने के बाद मुख्यमंत्री प्रत्याशी बने धूमल की हार से राजनीतिक समीकरण पलट गए हैं। प्रदेश में ऐसा पहली बार हुआ कि जब कोई मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार खुद अपनी सीट हार गया हो। धूमल को सुजानपुर के स्थानीय नेता और एक समय धूमल के करीबी माने जाने वाले राजेंद्र राणा ने उन्हें 1919 वोटो सें शिकस्त दी। इस घटना ने भाजपा में एकदम नई राजनीतिक परिस्थितियां पैदा कर दी हैं। नेतृत्व को लेकर एक अजब घमासान शुरू हो गया है। धूमल खेमे के लिए यह राजनीतिक अस्तित्व की एक नई लड़ाई है।
देवभूमि की राजनीति में बदलाव के कई संकेत
अगर धूमल के अलावा कोई भी भाजपा नेता मुख्यमंत्री बनाया जाता है तो हिमाचल भाजपा के लिए नई शुरुआत होगी जिसका असर नीचे तक देखने को मिलेगा। केंद्रीय मंत्री जगत प्रकाश नड्डा, पूर्व भाजपा अध्यक्ष जयराम ठाकुर और अजय जम्वाल मुख्यमंत्री पद के प्रमुख दावेदारों में शुमार हैं। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के लिए भी यह चुनाव नेतृत्व की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण एवं निर्णायक है। अगले विधानसभा चुनावों तक वीरभद्र 89 वर्ष के हो जाएंगे। उनका नेतृत्व में बने रहना इस लिहाज से मुश्किल है और वैसे भी वह स्वयं यह कह चुके हैं। ऐसे में उनके पुत्र विक्रमादित्य के नेतृत्व का रास्ता आसान नहीं होगा। पार्टी के भीतर वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं के राजनीतिक चक्रव्यूह से पार पाना उनके लिए मुश्किल होगा। उन्हें पार्टी के भीतर सर्व स्वीकर्यता की जंग लड़नी है। ऐसे हालात में कांग्रेस अगले विधानसभा चुनाव के लिए एक ऐसे नेतृत्व की तलाश में होगी जो पार्टी को वीरभद्र सरीखे लंबे समय तक सशक्त नेतृत्व प्रदान कर सके। परंतु यदि कांग्रेस एक सशक्त नेतृत्व तलाशने विफल हो जाती है तो ऐसे में हिमाचल में कांग्रेस के लिए भविष्य का राजनीतिक संकट पैदा हो सकता है। अगर ऐसा हुआ तो हिमाचल में सत्ता परिवर्तन की परंपरा को विराम लग सकता है।
दोनों दलों के दिग्गज हार गए चुनाव
यह चुनाव इसलिए भी दिलचस्प रहा कि इसमें दोनों राजनीतिक दलों के दिग्गज नेताओं को हार का सामना करना पड़ा। जीएस बाली और सुधीर शर्मा समेत कांग्रेस सरकार के पांच मंत्री अपनी सीट नहीं बचा पाए। जन भागीदारी के लिहाज से भी यह चुनाव ऐतिहासिक रहा है। हिमाचल विधानसभा चुनावों के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब इस तादाद में जनता ने चुनाव में अपनी हिस्सेदारी दर्ज कराई हो। इस बार हिमाचल का मत प्रतिशत 75 प्रतिशत रहा। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि 2017 का हिमाचल विधानसभा चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक एवं निर्णायक साबित हुआ है। इस चुनाव में हालांकि सत्ता परिवर्तन की परंपरा बरकार रही मगर सियासी सूरत में कुछ खास तब्दिलियां आई हैं।
(लेखक हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कॉलर हैं)
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