उपचुनाव जीत पर इतना न इतराए कांग्रेस, कुछ पिछले उदाहरण भी देख ले
राजस्थान के उपचुनाव में मिली बंपर जीत से कांग्रेस खेमे में जश्न का माहौल है और जब जीत चीर प्रतिद्वंद्वी भाजपा के खिलाफ हो तो जीत की खुशी दोगुनी होना लाजिमी है।
नई दिल्ली [रिजवान निजामुद्दीन अंसारी]। राजस्थान के उपचुनाव में मिली बंपर जीत से कांग्रेस खेमे में जश्न का माहौल है और जब जीत चीर प्रतिद्वंद्वी भाजपा के खिलाफ हो तो जीत की खुशी दोगुनी होना लाजिमी है। दरअसल, अजमेर और अलवर लोकसभा तथा मांडलगढ़ विधानसभा सीट कांग्रेस ने भाजपा से छीन ली है। ये वही सीट हैं जिन पर मोदी और वसुंधरा लहर में कांग्रेस को हार झेलनी पड़ी थी। लोकसभा की सभी 25 सीट तथा विधानसभा की 163 सीटों पर कांग्रेस को मिली करारी हार को कौन भूल सकता है? लिहाजा, इस उपचुनावी जीत में कांग्रेस को संजीवनी नजर आ रही है, लेकिन सवाल है कि एक उपचुनावी जीत को आगामी विधानसभा चुनाव में बहुमत मिलने का पैमाना मान लेना कितना सही है? क्या विधानसभा की एक सीट पर जीत आगामी चुनाव में बहुमत लायक 101 सीटों पर जीत दिला सकती है? दरअसल, अगर इन दोनों ही सवाल पर कांग्रेस मंथन करे तो इनकी खुशी फीकी पड़ जाएगी।
ऐसे कई उदाहरण हैं जब चुनावों के नतीजे, उपचुनावों के विपरीत आए हैं। मसलन, 2016 में लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के कई भाजपाई विधायकों की जीत के बाद खाली हुई सीट पर उपचुनाव हुए तो समाजवादी पार्टी ने 8 में से 6 सीटों पर बाजी मार ली थी। तब समाजवादी पार्टी को भी विधानसभा में जीत का गुमान था, लेकिन 2017 के चुनाव में जो हुआ, वह सबके सामने है। हाल ही में, गुरदासपुर लोकसभा के उपचुनाव में कांग्रेस के सुनील जाखर की बंपर जीत से यही लगा था कि हिमाचल की जीत अब दूर नहीं। मगर हिमाचल में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी। कहने का तात्पर्य यह है कि उपचुनावी नतीजों से चुनावों के गणित लगाना महज एक खुशफहमी ही हो सकती है। यहां पर कांग्रेस को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि राजस्थान की जीत उसकी सक्रियता का परिणाम नहीं है, बल्कि भाजपा की नीतियों से वोटरों के अंदर उपजे असंतोष का नतीजा है।
नोटबंदी तथा जीएसटी से नाराज व्यापारियों और भाजपा द्वारा खेले गए सांप्रदायिक कार्ड से गुस्साए लोगों की प्रतिक्रिया के कारण ही भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा। लिहाजा कांग्रेसियों को जश्न मनाने के बजाय अपनी कार्यशैली और रणनीतियों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। इससे इतर, कांग्रेस एक बहुत बड़े संदेश को नजर अंदाज कर रही है जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ सकता है। पश्चिम बंगाल में भाजपा की बढ़ती ताकत को नजरअंदाज करना कांग्रेस के लिए महंगा साबित हो सकता है। नोआपाडा विधानसभा सीट तो कांग्रेस के कब्जे में थी, जिस पर कांग्रेस चौथे नंबर पर आई है जबकि भाजपा दूसरे नंबर पर। इसी प्रकार, उलबेडिया लोकसभा सीट पर भी भाजपा दूसरे नंबर पर काबिज रही, जबकि कांग्रेस चौथे नंबर पर। ज्ञात हो कि पिछले चुनाव में दोनों ही सीटों पर माकपा दूसरे स्थान पर रही थी।
लिहाजा, दोनों ही नतीजों में अप्रत्याशित रूप से भाजपा का दूसरे और कांग्रेस का चौथे नंबर पर आना कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है। ऐसे में भाजपा की ताकत में लगातार हो रहे इजाफे पर चिंतित होने के बजाय शेखी बघारना कांग्रेस के बड़बोलेपन को प्रदर्शित करता है। ऐसे में कांग्रेस को आगामी लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करना है तो उपचुनावी जीतों पर इतराने के बजाय रणनीति की फिक्र करनी होगी। दूसरी ओर, यह नतीजे न केवल कांग्रेस के लिए बल्कि भाजपा के लिए भी नसीहत लेकर आई है। अमूमन ऐसा माना जाता है कि उपचुनावों में सत्ताधारी पार्टी की ही जीत होती है, जैसा कि पश्चिम बंगाल में देखने को मिला, लेकिन राजस्थान में जिस प्रकार से सत्तारूढ़ भाजपा चारों खाने चित्त हो गई, उसके कई राजनीतिक निहितार्थ हैं।
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अध्ययनरत हैं)