पंडित नेहरू से विरासत में मिले ऐसे विवादित मुद्दे जिन्हें आज तक नहीं सुलझा सका भारत!
पंडित जवाहर लाल नेहरू को जहां कांग्रेस आधुनिक भारत का निर्माता कहती है वहीं विपक्ष कश्मीर समेत कई विवाादित मुद्दों को उनकी ही विरासत मानता है।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। आज देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की पुण्यतिथि है। 55 वर्ष पहले आज ही के दिन नेहरू का निधन हुआ था। देश के पहले प्रधानमंत्री होने के अलावा उनकी जो छवि बनी हुई है वो भारत की कई समस्याओं के जनक के तौर पर है। कश्मीर की समस्या हो या अक्साई चिन की समस्या या फिर चीन से हुई लड़ाई में भारत की हार सभी के लिए नेहरू को ही दोष दिया जाता है। कांग्रेस जहां नेहरू को नए भारत का आर्किटेक्ट कहती है वहीं विपक्ष मुख्यतौर पर भाजपा उन्हें सवालों के घेरे में खड़ी करती आई है।
आजाद भारत का पहला ज्वलंत मुद्दा
कश्मीर समस्या की बात करें तो आजादी के बाद ज्वलंत तरीके से उठा यह पहला मुद्दा था। भारत-पाकिस्तान के अलग होने और एक आजाद देश बनने के दो माह बाद ही कश्मीर में पर हमला हो गया था। एक तरफ जहां सेना पाकिस्तान के भेजे कबालियों और सेना से डटकर मुकाबला कर रही थी तो दूसरी तरफ नेहरू ने कश्मीर में जनमत संग्रह करवाने की बात कह कर सेना का मनोबल कम कर दिया। नेहरू की इस घोषणा को लेकर काफी आलोचना भी हुई।
कश्मीर पर गांधी की राय
कश्मीर पर महात्मा गांधी और माउंटबेटन की एक राय थी कि कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बनना चाहिए। माउंटबेटन ने 26 अक्टूबर, 1947 को कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के दस्तखत वाला विलय पत्र स्वीकार करने के साथ ही जनमत संग्रह की बात कही थी। सरदार पटेल भी इसके खिलाफ नहीं थे। नेहरू ने ही कश्मीर पर सभी फैसले लेने के लिए एन गोपालस्वामी अय्यंगार को बिना पोर्टफोलियो का मंत्री बनाया था। अय्यंगार के कद का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब पटेल ने उनके एक फैसले का विरोध किया तो खुद नेहरू ने अय्यंगार का समर्थन करते हुए पटेल को पत्र लिख दिया। इसका नतीजा हुआ कि पटेल ने इस मसले से खुद को पीछे कर लिया।
नेहरू की गलती
नेहरू ने ही कश्मीर को संयुक्त राष्ट्र में उठाकर द्विपक्षीय न रखकर अंतरराष्ट्रीय बना दिया था। इस गलती को नेहरू की सबसे बड़ी भूल बताया जाता है। इतना ही नहीं 1948 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच सीजफायर हुआ तो 1949 में भारत ने कश्मीर से अपनी सेना को वापस बुला लिया, जबकि पाकिस्तान की सेना वहां पर जस की तस बनी रही। यही हिस्सा अब पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर या गुलाम कश्मीर कहलाता है। उस वक्त जहां सीजफायर हुआ था वही अब लाइन ऑफ कंट्रोल कही जाती है। कश्मीर में धारा 370 का जुड़ना भी नेहरू की एक बड़ी गलती में शामिल किया जाता है। इसके साथ तय हुआ कि सुरक्षा, विदेश और संचार के अलावा भारत की संसद में पारित कानून राज्य में उसी स्थिति में लागू होंगे, जब राज्य की विधानसभा में भी वो पारित हो जाएं।
अक्साई चिन पर चीन का कब्जा
अक्साई चिन जो आज चीन का हिस्सा है लेकिन, 1950 से पहले यह भारत का हिस्सा हुआ करता था। यह वो दौर था जब चीन ने न सिर्फ अक्साई चिन बल्कि पूरे तिब्बत पर अपना कब्जा जमा लिया था। नेहरू उस वक्त देश के प्रधानमंत्री थे। अक्साई चिन को लेकर 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ था जिसमें भारत को शिकस्त खानी पड़ी थी। वर्तमान में इसी क्षेत्र से पाकिस्तान और चीन के बीच आर्थिक गलियारा गुजरता है। यहां से ही होकर चीन का शिंजियांग-तिब्बत राजमार्ग निकलता है। चीन के लिए यह क्षेत्र न सिर्फ रणनीतिक दृष्टि से काफी अहमियत रखता है बल्कि व्यापारिक दृष्टि से भी बेहद खास है। 1962 में हुए युद्ध के बाद भारत के कश्मीर के क्षेत्र को जो अक्साई चिन से अलग करती है उसको वास्तविक नियंत्रण रेखा माना जाता है।
1962 युद्ध में भारत की हार
1962 की लड़ाई के बाद नेहरू पर कई तरह के सवाल उठे। उन्हें चीनी आक्रमण की आशंका को न समझपाने, सेना को जरूरी सहयोग न कर पाने, सेना को रसद समेत अन्य चीजों में कमी के लिए नेहरू को जिम्मेदार ठहराया गया। करीब 4000 मीटर की ऊंचाई से भी अधिक पर लड़े जाने वाले इस युद्ध के लिए न तो प्रधानमंत्री नेहरू के पास कोई तैयारी थी और न ही इससे निपटने के लिए पर्याप्त दूरदर्शिता। भारतीय राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने भी माना कि नेहरू की सरकार अपरिष्कृत और तैयारी के बारे में लापरवाह थी। नेहरू ने स्वीकार किया कि भारतीय अपनी समझ की दुनिया में रह रहे थे।
सीआईए ने भी नेहरू पर उठाए सवाल
अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने भी नेहरू की काबलियत पर सवाल खड़े किए। इसकी रिपोर्ट में यहां तक कहा गया कि चीन से हुए युद्ध में भारत द्वारा हवाई हमले का इस्तेमाल न करना बड़ी भूल थी। ऐसा तब था जबकि चीन के पास तिब्बत में न तो कोई बड़ा रनवे था और न ही हवाई हमला करने की ताकत। इसके अलावा वहां पर भारतीय सेना से लड़ रहे चीनी जवानों के पास ईंधन और रसद भी कम ही थे। ऐसे में यदि नेहरू सही समय पर हवाई हमले की इजाजत देते तो परिणाम पूरी तरह से उलट होते।
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