लोकतंत्र के मर्म को महसूस कराने के लिए लंबित सुधारों को जल्द करना होगा लागू
चुनाव सुधारों को लेकर हाल के वर्षों में तमाम नियामक संस्थाओं द्वारा कई बड़े कदम उठाए जा चुके हैं, लेकिन जरूरत कहीं ज्यादा बड़ी है।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। चुनाव सुधारों सहित अन्य कई मसलों को लेकर सोमवार (27 अगस्त) को बुलाई गई सर्वदलीय बैठक ईवीएम बनाम बैलट पेपर होकर रह गई। चुनाव सुधारों को लेकर हाल के वर्षों में तमाम नियामक संस्थाओं द्वारा कई बड़े कदम उठाए जा चुके हैं, लेकिन जरूरत कहीं ज्यादा बड़ी है। दुखद यह है कि कानून बनाने वाले हमारे राजनीतिक वर्ग ने इन चुनाव सुधारों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई बल्कि उनमें रोड़े ही अटकाए। अगर देश को सही मायने में लोकतंत्र के मर्म को महसूस कराना है तो ये लंबित सुधारों को जल्द लागू करना होगा।
चुनें नेक, खारिज करें अनेक
27 सितंबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब ईवीएम यानी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में ही चुनाव आयोग को एक अतिरिक्त बटन लगवाना पड़ा। इस बटन के सामने ‘इनमें से कोई नहीं’ (नोटा) लिखा गया। अगर मतदाता की अपेक्षाओं पर कोई भी उम्मीदवार खरा नहीं उतर रहा है तो वह अब इस बटन को दबाकर अपनी नापसंदगी जाहिर करता है।
आरटीआइ के दायरे में दल
तीन जून, 2013 को केंद्रीय सूचना आयोग ने कहा कि छह प्रमुख राजनीतिक दल आरटीआइ के दायरे में आते हैं। क्योंकि वे सरकार से वित्त सहित कई सुविधाओं और सहूलियतों का उपभोग करते हैं। इस फैसले का मतलब यह है कि कोई भी नागरिक इन राजनीतिक दलों से इनकेसंचालन और वित्त संबंधी जानकारी मांग सकता है।
दागी जनप्रतिनिधि हों अयोग्य
लिली थॉमस और लोक प्रहरी बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई, 2013 को दिए फैसले में दोषी करार होने के बावजूद सांसदी-विधायकी कायम रखने वाली जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को असंवैधानिक ठहराया। कहा कि यदि कोई विधायक या सांसद किसी ऐसे आरोप में दोषी पाया जाता है जिसमें कम से कम दो साल की सजा का प्रावधान हो तो तत्काल प्रभाव से उसे अपनी सदस्यता छोड़नी होगी।
घोषणापत्रों में मुफ्त उपहार
पांच जुलाई, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह राजनीतिक दलों के साथ मशविरा करके एक ऐसा दिशानिर्देश तैयार करे जिससे पार्टियों द्वारा चुनाव के समय उनके घोषणा पत्रों में मुफ्त उपहारों के वादों का नियमन किया जा सके। जिससे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की अवधारणा को साकार किया जा सके।
हलफनामा भरने की अनिवार्यता
दो मई, 2002 को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि चुनाव में नामांकन के समय हर उम्मीदवार को उससे जुड़े प्रत्येक विवरण को सार्वजनिक करना होगा। यह फैसला भारत सरकार बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स मामले में सुनाया गया। बाद में सरकार ने इसे निष्प्रभावी करने का प्रयास किया लेकिन 13 मार्च, 2003 को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला निष्प्रभावी करने वाले कानून को रद करते हुए अपने पूर्व के फैसले पर फिर से मुहर लगाई।
जेल से चुनाव लड़ने के अयोग्य
दस जुलाई, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाईकोर्ट के फैसले पर मुहर लगाते हुए व्यवस्था दी कि जेल में रहते हुए कोई व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता है। चीफ इलेक्शन कमिश्नर बनाम जन चौकीदार (गैर सरकारी संगठन) मामले में यह फैसला आया। हालांकि सरकार ने इस पर संशोधन लाकर इसे निष्प्रभावी कर दिया।
लगी है टकटकी: अभी कई ऐसे सुधार हैं, जिनके लिए लड़ाई जारी है।
- राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र लागू करने के लिए कानून
- राजनीतिक दलों के लिए अपने खातों को नियमित तौर पर दुरुस्त रखने की जरूरत
- राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली को नियंत्रित करने वाला कानून
- नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा सुझाए गए ऑडिटर ही राजनीतिक दलों के खातों का ऑडिट करें
- राजनीतिक दलों में वित्तीय पारदर्शिता के लिए कानून
- नामांकन पत्र भरने के दौरान प्रत्याशी द्वारा दाखिल किए जाने वाले शपथपत्र का सत्यापन
संबंधित राजनीतिक दल करें
- प्रत्याशी द्वारा दाखिल शपथपत्र की जानकारियों की जांच चुनाव बाद एक स्वतंत्र केंद्रीय एजेंसी द्वारा निश्चित समयसीमा के भीतर कराई जाए।
- चुनावी या राजनीतिक लाभ के लिए धर्म, जाति, समुदाय, जनजाति या किसी अन्य समूह के पहचान के इस्तेमाल की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
- राजनीतिक दलों की मान्यता खत्म करने का अधिकार निर्वाचन आयोग को दिया जाना चाहिए।