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एक रिपोर्ट में हुआ खुलासा- अर्थव्‍यवस्‍था की रफ्तार को बिगाड़ सकता है जल सकंट

जलवायु परिवर्तन व जल संकट का दुनिया के देशों की अर्थव्यवस्था पर संभावित असर के संबंध में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में देशों के आर्थिक विकास थमने की आशंका जताई गई है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sat, 15 Sep 2018 11:15 AM (IST)Updated: Sat, 15 Sep 2018 11:15 AM (IST)
एक रिपोर्ट में हुआ खुलासा- अर्थव्‍यवस्‍था की रफ्तार को बिगाड़ सकता है जल सकंट
एक रिपोर्ट में हुआ खुलासा- अर्थव्‍यवस्‍था की रफ्तार को बिगाड़ सकता है जल सकंट

सोनल छाया। विश्व बैंक की जलवायु परिवर्तन, जल एवं अर्थव्यवस्था पर एक रिपोर्ट ‘हाइ एंड ड्राइ क्लाइमेट चेंज, वाटर एंड द इकोनोमी’ में कहा गया है कि जल संकट के कारण अधिकांश देशों के आर्थिक विकास की गति थम सकती है। साथ ही इससे लोगों के विस्थापित होने की दर में वृद्धि हो सकती है। यह समस्या की चपेट में तकरीबन पूरी दळ्निया के आने की आशंका जताई गई है। दरअसल जलवायु परिवर्तन से जल संकट बढ़ रहा है। बढ़ती जनसंख्या, लोगों की बढ़ती आमदनी और शहरों के विस्तार से पानी की मांग में भारी बढ़ोतरी होने वाली है, जबकि जल आपूर्ति की कोई ठोस व्यवस्था कहीं नहीं है।

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भारत में पानी की भयावह किल्लत

भारत के संदर्भ में इस रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि यहां भी लोगों को पानी की भीषण किल्लत का सामना करना पड़ेगा। इसमें साफ तौर पर कहा गया है कि भारत में औसत से कम बारिश होने पर संपत्ति से जुड़े झगडों में हर साल अमूमन चार प्रतिशत की बढ़ोतरी हो रही है। कई मामलों में देखा गया है कि बाढ़ आने पर दंगे भी होते हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि गुजरात में जब जमीन के नीचे पानी का स्तर गिरने से सिंचाई की जरूरतों के लिए पानी को हासिल करना महंगा हो जाएगा तो किसान फसल प्रणाली में बदलाव करने के बजाय या फिर पानी के बेहतर उपयोग का रास्ता अपनाने के बजाय शहरों की ओर पलायन कर सकते हैं। विश्व बैंक के इस हालिया आकलन के मुताबिक भूमिगत जल की पंपिंग का भारत के कुल कार्बन उत्सर्जन में चार से छह प्रतिशत तक का योगदान है। विशेषज्ञों ने इस रिपोर्ट में आशंका जताई है कि जल संकट आर्थिक वृद्धि और विश्व की स्थिरता के लिए बड़ा खतरा है और जलवायु परिवर्तन इस समस्या को और भी ज्यादा बढ़ा रहा है।

बेहतर जल प्रबंधन की जरूरत

जल-संसाधन का बेहतर प्रबंधन नहीं करने पर विशाल आबादी वाले देशों में आर्थिक वृद्धि में व्यवधान पैदा हो सकता है। इसलिए सभी देशों को पानी के दीर्घकालिक प्रबंधन हेतु ठोस नीति बनानी होगी और उसे लागू करना होगा। विश्व बैंक के प्रमुख अर्थशास्त्री रिचर्ड दमानिया के अनुसार मानसून के संबंध में अनुमानों में एकरूपता नहीं है। भारत में जलसंकट की व्यापकता के बारे में जानकार अनुमान नहीं लगा पा रहे हैं, लेकिन इतना तय है कि भारत की स्थिति दयनीय रहेगी। जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम का मिजाज पूरी तरह से गड़बड़ हो जाएगा। बहरहाल जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण आदि के कारण सभी देशों में पानी की मांग बढ़ेगी। भारत का मौसम विविधतापूर्ण है, जिसमें उतार-चढ़ाव की स्थिति लगातार बनी रहती है। यहां के किसी भी प्रदेश में गर्मी के दिनों में सूखा पड़ सकता है तो बारिश के मौसम में बाढ़ आ सकती है। दोनों ही अवस्था में व्यापक पैमाने पर जान-माल की क्षति का होना निश्चित है।

नदियों को जोड़ने की मुहिम

हालांकि इस दिशा में नदियों को आपस में जोड़कर इस तरह की आपदा से जरूर निजात पाई जा सकती है। इसकी मदद से देश के तकरीबन सभी खेतों तक पानी पहुंचाया जा सकता है, जिससे खाद्यान्न संकट जैसी बड़ी समस्या का समाधान भी किया जा सकता है। इससे बिजली की कमी भी दूर की जा सकती है। चीन ने भी नदियों को आपस में जोड़ने की अहमियत को समझा है। चीन की नदियों को नहरों के माध्यम से जोड़ने की परिकल्पना लगभग पांच दशक पुरानी है, लेकिन ऐसी परियोजना की सफलता के प्रति आशंका की वजह से इसे अभी तक लागू नहीं किया जा सका था। बाढ़ एवं सूखे की मार से बेदम होकर चीन ने आखिरकार इस दिशा में आगे जाने का निर्णय लिया। भारत में नदियों को जोड़ने की दिशा में लंबे समय से काम हो रहा है। बिहार में कई नदियों को आपस में जोड़ने का प्रस्ताव है। इस परियोजना के पूरा होने पर इस राज्य के कई जिलों को बाढ़ और सूखे से निजात मिल सकेगी। साथ ही इससे ढाई लाख एकड़ क्षेत्र की सिंचाई भी हो सकेगी।

पांच दशक पूर्व का प्रस्ताव

भारत में सबसे पहले 1972 में 2,640 किलोमीटर लंबे नहर के माध्यम से गंगा और कावेरी को जोड़ने का प्रस्ताव तत्कालीन सिंचाई मंत्री के एल राव ने रखा था। इस प्रस्ताव के आलोक में 1974 में डी जे दस्तूर गारलेंड नहर परियोजना लेकर सामने आए, लेकिन हमारे देश में नदियों को जोड़ने की दिशा में पहल सबसे पहले आर्थर कॉटन ने की थी। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक चरण में आर्थर कॉटन देश में बहने वाली सभी नदियों को आपस में जोड़ना चाहते थे, लेकिन उनका मकसद कृषि क्षेत्र को विकसित करना या प्रदेशों को बाढ़ और सूखेकी समस्या से छळ्टकारा दिलाना नहीं था। वे इस तरह की परियोजनाओं को पूरा करने के जरिये भारत पर ब्रिटिश राज की पकड़ को मजबूत बनाना चाहते थे।

नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी

इसी क्रम में 1982 में नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी (एनडब्लूडीए) का गठन किया गया, जिसका काम था प्रस्तावित परियोजनाओं की सफलता से जुड़ी संभावनाओं को तलाशना एवं उसे अमलीजामा पहनाना। एक परियोजना के अंतर्गत हिमालय से निकलने वाली उत्तर भारत और दक्षिण भारत की पेनिनसुलर नदियों को आपस में नहर के माध्यम से जोड़ना था। इस आलोक में उत्तरी भारत में बांधों एवं नहरों की श्रृंखला के द्वारा गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी आदि की सहायता से प्रारंभिक चरण में 2,20,000 वर्ग किलोमीटर में सिंचाई एवं 30 गीगावॉट बिजली उत्पादन करने जैसे कार्यो को मूर्त रूप देने की परिकल्पना की गई। दक्षिण भारत की पेनिनसुलर नदियों में महानदी, कृष्णा, गोदावरी, कावेरी आदि को जोड़ने की बात कही गई। दूसरे चरण में पश्चिम दिशा में मुंबई की तरफ बहने वाली नदियों और दक्षिण दिशा में तापी नदी को जोड़ने का प्रस्ताव था।

तीसरे चरण में मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के सूखाग्रस्त इलाकों में पानी उपलब्ध करवाने हेतु केन एवं चंबल नदी को जोड़ने की परिकल्पना की गई। पुन: पश्चिम दिशा की तरफ पश्चिमी घाट के किनारे से बहती हुई अरब सागर में मिलने वाली नदियों का मार्ग बदल कर 1,30,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में सिंचाई करने एवं चार गीगावॉट बिजली उत्पादन करने की योजना बनाई गई। पैसे की कमी, पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं, भूमि प्रयोग और क्षेत्रीय पर्यावरण में होनेवाले संभावित बदलाव, कृषि पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव, बड़ी संख्या में संभावित विस्थापन की आशंका, भूमि अधिग्रहण आदि समस्याओं के कारण नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया।

अटल की अहम भूमिका

नदी जोड़ परियोजना को नए सिरे से शुरू करने में अहम भूमिका निभाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का मानना था कि नदियों को आपस में जोड़ने से पूरे देश में व्याप्त जल संकट और बाढ़ की समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। वाजपेयी इस परियोजना को लेकर इतने उत्साहित थे कि उन्होंने 1998 के आम चुनाव में इसे अपने चुनावी घोषणा पत्र में शामिल किया था। अपनी इस महत्वाकांक्षी परियोजना को कार्यान्वित करने के लिए वाजपेयी ने एक टास्क फोर्स का गठन किया था। इस टास्क फोर्स के मुताबिक सभी नदियों को आपस में जोड़ने के बाद 160 मिलियन हेक्टेयर भूमि की अतिरिक्त सिंचाई की संभावना 2050 तक बढ़ जाएगी, जबकि सामान्य परिस्थिति में उक्त अवधि में महज 140 मिलियन हेक्टेयर भूमि की ही सिंचाई की जा सकती है।

मध्य प्रदेश से हुई शुरुआत

नदियों को आपस में जोड़ने वाली देश की प्रथम परियोजना का उद्घाटन नवंबर, 2012 में लाल कृष्ण आडवाणी के द्वारा मध्य प्रदेश के उज्जैन जिला के क्षिप्रा टेकरी में किया गया। इस परियोजना के तहत नर्मदा और क्षिप्रा को आपस में जोड़ना था, ताकि क्षिप्रा नदी का पुनरुद्धार किया जा सके। 21वीं सदी के आरंभिक चरण में गंगा को ब्रह्मपुत्र से, गंगा को पुन: महानदी एवं गोदावरी से, गोदावरी को कृष्णा, पेन्नार तथा कावेरी से, नर्मदा को तापी से एवं यमुना को साबरमती से जोड़ने की योजना थी। महाराष्ट्र और गुजरात के बीच दमन, गंगा एवं पिंजाल को भी आपस में जोड़ने का प्रस्ताव था।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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