चुनावी राजनीति में संबंधित भ्रष्टाचार को समाप्त करने की दिशा में सख्ती बरत रहा चुनाव आयोग
राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे के संबंध में अक्सर अनियमितता की खबरें आती हैं। इस चंदे की जानकारी को पर्याप्त रूप से सार्वजनिक करने के लिए हाल ही में चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को पत्र लिखा है।
प्रमोद भार्गव। राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता लाने की मांग देश में लंबे समय से की जा रही है। अधिकांश लोग इसके पक्षधर हैं कि जिस तरह से मतदाताओं को अपने प्रत्याशी के चरित्र को जानने का अधिकार प्राप्त है, उसी तरह राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे के बारे में भी उन्हें जानकारी मिलनी चाहिए कि किसी दल विशेष को कितना चंदा मिला है और वह किस माध्यम से मिला है।
राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में कमाई
यह विडंबना ही है कि अब तक कोई भी राजनीतिक दल इस नाते पारदर्शिता के पक्ष में नहीं है। सभी राजनीतिक दल चंदे से संबंधित अधिकांश तथ्यों को गोपनीय बनाए रखना चाहते हैं, जिससे कई बार जनता के मन में संशय पैदा होता है। अतएव भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने केंद्रीय विधि मंत्री किरण रिजिजू को पत्र लिखकर जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में ऐसे सुधार करने की आवश्यकता जताई है, जिससे मनमाने चंदे पर लगाम लग सके। हालांकि कुछ वर्षों पूर्व निर्वाचन बांड को लागू करते समय यह उम्मीद जगी थी कि राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में जो कमाई होती है, जिसके बारे में कई बार अवैध होने का भी आरोप लगता है, उस पर अंकुश लग जाएगा। लेकिन सभी प्रमुख दलों के चंदे के ग्राफ में उत्तरोत्तर वृद्धि होने के आंकड़े सामने आए हैं।
ऐसे में यह कहना कहीं से भी अनुचित नहीं होगा कि लगभग सभी राजनीतिक दलों की ही मंशा यह है कि उसे प्राप्त होने वाले चंदे की रकम के बारे में उसके अलावा और किसी को कोई मतलब नहीं होना चाहिए। अधिकतम राशि की सीमा : चुनाव आयोग ने अपने पत्र में कहा है कि राजनीतिक दलों को नकद चंदे के रूप में जो भी धन मिलता है, उसकी एक अधिकतम सीमा निर्धारित की जाए। इस नाते चुनावों में काले धन के चलन पर लगाम के लिए नामी-बेनामी नकद चंदे की सीमा 20 हजार रुपये से घटाकर मात्र दो हजार रुपये कर दी जाए। वर्तमान नियमों के अनुसार, राजनीतिक दल चुनाव आयोग को 20 हजार रुपये से अधिक चंदे की राशि का पर्दाफाश करते हैं।
चुनावी चंदे में यदि यह व्यवस्था लागू हो जाती है तो दो हजार रुपये से अधिक चंदे में मिलने वाली राशि की जानकारी दलों को देनी होगी, परिणामस्वरूप एक हद तक पारदर्शिता रेखांकित होगी। इस सिलसिले में आयोग यह भी चाहता है कि चुनाव के दौरान प्रत्याशी का बैंक में पृथक खाता होना चाहिए, जिसमें समस्त लेन-देन दर्ज हो। आयोग ने यह सिफारिश ऐसे समय की है, जब उसे 284 ऐसे दलों को राजनीतिक दल के रूप में पंजीकृत सूची से इसलिए हटाना पड़ा, क्योंकि उन्होंने चंदे के लेन-देन से जुड़े नियमों का पालन नहीं किया था।
दरअसल चुनावी चंदे को लेकर जो निर्वाचन बांड की व्यवस्था है, उसके चलते गुमनाम चंदा लेने का संदेह हमेशा बना रहता है। इस संदेह को कई बार रिश्वत के रूप में देखा जाता है। चंदे का यह झोल चुनावी भ्रष्टाचार के हालात निर्मित कर रहा है। इसलिए राजनीति में भ्रष्टाचार पर रोक के लिए चुनावी चंदे की जड़ पर प्रहार करना जरूरी है। जनहित याचिका : इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय में निर्वाचन बांड से चंदे पर रोक के लिए भी एक जनहित याचिका लगाई गई है। एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) द्वारा लगाई गई याचिका को न्यायालय ने सुनवाई के लिए मंजूर भी कर लिया है। इसमें चुनावी बांड योजना के माध्यम से राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले कानूनों को चुनौती दी गई है। याचिका में यह दलील दी गई है कि यह मुद्दा अत्यंत गंभीर है, क्योंकि राजनीतिक दल कंपनियों से मनमाना चंदा ले रहे हैं।
कोलकाता की एक कंपनी ने चुनावी बांड के माध्यम से 40 करोड़ रुपये का चंदा एक राजनीतिक दल को दिया है। इस सिलसिले में आयकर विभाग ने पिछले दिनों कई राजनीतिक दलों के ऐसे नेताओं के ठिकानों पर छापे मारकर करोड़ों रुपये की नकदी बरामद की है, जो किसी न किसी सरकार में शामिल हैं। चंदे में अपारदर्शिता के कारण बीते दिनों 253 राजनीतिक दलों को निष्क्रिय भी घोषित किया गया है। ऐसे ही बेनामी चंदों से दल अपना चुनावी खर्च बेतहाशा बढ़ा रहे हैं।
यहां तक कि मतदाताओं को महंगे उपहार और वोट के बदले नोट देकर भी लुभाया जा रहा है। हालांकि प्रत्याशियों के लिए खर्च की सीमा तय है, लेकिन प्रमुख दल का कोई भी प्रत्याशी सीमा में खर्च नहीं करता। अतएव दल उद्योगपतियों और नौकरशाहों से धन वसूलने के प्रयास में भी लगे रहते हैं। निर्वाचन बांड : निर्वाचन बांड शुरू करते समय दावा किया गया था कि दुनिया में भारत ऐसा पहला देश हो गया है, जिसने चुनाव-नीति को पारदर्शी बनाने के लिए इस तरह के बांड लागू किए हैं। ये बांड एक हजार, 10 हजार, एक लाख, 10 लाख और एक करोड़ रुपये के गुणक में उपलब्ध हैं। ये बांड बियरर और ब्याज मुक्त हैं। इन्हें केवल भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से ही खरीदा जा सकता है। खरीदार को बैंक खाते के माध्यम से भुगतान करना होता है।
दावा किया गया था कि इस व्यवस्था के शुरू होने से देश में राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की प्रक्रिया में पारदर्शिता आ जाएगी। भारत का कोई भी नागरिक या संस्था ये बांड खरीद कर दलों को चंदा देने के लिए स्वतंत्र है। बांड पर दानदाता का नाम नहीं लिखा जाता। ये बांड खरीदे जाने के 15 दिनों के भीतर किसी भी दल को दान के रूप में दिए जाते हैं। इस दान को लेने का हक केवल उन दलों को है, जिन्हें निर्वाचन आयोग की मान्यता के साथ एक प्रतिशत से ज्यादा वोट मिलते हैं। इस इबारत पर तत्काल भारत निर्वाचन आयोग ने भी आपत्ति जताते हुए सरकार को लिखित रूप में कहा था कि आम लोगों को यह कैसे पता चल पाएगा कि किस दल या उम्मीदवार को कितना चंदा किस व्यक्ति या व्यापारी से मिला है?
आयोग ने सरकार द्वारा जनप्रतिनिधित्व कानून में किए गए उस बदलाव पर भी आपत्ति दर्ज कराई थी, जिसमें राजनीतिक दल को बांड के जरिए ली गई धनराशि को आडिट रिपोर्ट में दर्शाने की बाध्यता खत्म कर दी गई है। ‘वित्त विधेयक-2017’ के जरिए इलेक्टोरल बांड का प्रविधान किया गया है। उल्लेखनीय है कि वित्त विधेयक-2017 में प्रविधान है कि कोई व्यक्ति या कंपनी चेक या ई-पेमेंट के जरिए चुनावी बांड खरीद सकता है। ये बियरर चेक की तरह बियरर बांड होंगे। मसलन इन्हें दल या व्यक्ति चेकों की तरह बैंकों से भुना सकते हैं। चूंकि बांड केवल ई-ट्रांसफर या चेक से खरीदे जा सकते हैं, इसलिए खरीदने वाले का पता होगा, लेकिन पाने वाले का नाम गोपनीय रहेगा।
अर्थशास्त्रियों ने इसे कालेधन को बढ़ावा देनी वाली पहल बताया था, क्योंकि इस प्रविधान में ऐसा लोच है कि कंपनियां इस बांड को राजनीतिक दलों को देकर फिर से किसी अन्य रूप में वापस ले सकती हैं। कंपनी या व्यक्ति बांड खरीदने पर किए गए खर्च को बही खाते में तो दर्ज करेंगी, लेकिन यह बताने को मजबूर नहीं होंगी कि उसने ये बांड किसे दिए हैं। यही नहीं, इस बांड के जरिए चंदा देने की राशि की सीमा भी समाप्त कर दी गई है। बांड के जरिए 20 हजार रुपये से ज्यादा चंदा देने वाली कंपनी या व्यक्ति का नाम भी बताना जरूरी नहीं है। केंद्र सरकार ने यह पहल निर्वाचन आयोग की सिफारिश पर जरूर की थी, लेकिन उसकी आपत्तियों पर गौर नहीं किया।
आयोग ने इसके लिए जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में संशोधन का सुझाव दिया था। राजनीतिक दलों को मिलने वाला चंदा आयकर अधिनियम 1961 की धारा 13 (ए) के अंतर्गत आता था। इसके तहत दलों को 20 हजार रुपये से कम के नकद चंदे का स्रोत बताने की जरूरत नहीं थी। इसी झोल का लाभ उठाकर दल बड़ी धनराशि को 20 हजार रुपये से कम की राशियों में सच्चे-झूठे नामों से बही खातों में दर्ज कर कानून को ठेंगा दिखाते रहते थे। इस कानून में संशोधन के बाद जरूरत तो यह थी कि दान में मिलने वाली दो हजार तक की राशि के दानदाता की पहचान को आधार से जोड़ा जाता, जिससे दानदाता के नाम की जानकारी सामने आती। किंतु ऐसा न करते हुए सरकार ने निर्वाचन बांड के जरिए उपरोक्त प्रविधानों पर पानी फेर दिया। मजे की बात यह है कि निर्वाचन बांड के प्रविधान का विरोध किसी भी दल ने नहीं किया। यह तथ्य सर्वाधिक निराशजनक है।
एक मोटे अनुमान के अनुसार लोकसभा और विधानसभा चुनावों में 50 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च होते हैं। इस खर्च में बड़ी धनराशि कालाधन और आवारा पूंजी होती है, जो औद्योगिक घरानों और बड़े व्यापारियों से ली जाती है। अब नौकरशाही भी इसमें शामिल हो गई है। साफ है, ये अपनी काली कमाई के जरिए दल प्रमुखों के खास बन जाते हैं और सेवानिवृत्ति के एक-दो साल पहले नौकरी से त्याग-पत्र देकर चुनाव भी लड़ने लगे हैं। इस कारण दलों में जनभागीदारी निरंतर घट रही है। इस चंदे के चलते दलों में जहां आंतरिक लोकतंत्र समाप्त होता गया, वहीं आम आदमी से दूरियां भी बढ़ती चली गईं। इसी का दुष्परिणाम है कि लोकसभा और विधानसभाओं में पूंजीपति और नौकरशाह जनप्रतिनिधियों की संख्या बढ़ रही है।
वर्तमान लोकसभा और राज्यसभा के सांसदों की घोषित संपत्ति 10 हजार करोड़ रुपये से भी अधिक है। ऐसे में जनप्रतििनधि के रूप में चुने जाने की प्रक्रिया में पारदर्शिता आवश्यक है। चुनाव के समय उम्मीदवारों द्वारा दिए जाने वाले शपथ-पत्रों में घोषित नकद धनराशि, गहने और चल-अचल संपत्ति के आंकड़ों से पता चलता है कि बहती गंगा में सभी उम्मीदवार और राजनीितक दल हाथ धोने में लगे हैं। निर्वाचन बांड के जरिए चंदे की कानूनी सुविधा मिलने के बाद दलों और उम्मीदवारों को यह सुविधा भी मिल गई है कि अब उन्हें जो चंदा बांड के जरिए मिलता है, उसकी जानकारी निर्वाचन आयोग को भी देने की जरूरत नहीं रह गई है। जबकि अब तक चुनाव आयोग चंदे की जानकारी अपनी वेबसाइट पर नियमित रूप से डालता रहा है। गोया, चंदे में पारदर्शिता के लिहाज से निर्वाचन बांड से चंदा लेने का औचित्य समझ से परे है। अतएव निर्वाचन आयोग की चंदे में पारदर्शिता की मांग प्रासंगिक है।
[वरिष्ठ पत्रकार]