राजनीति का योद्धाः काला चश्मा और कंधों पर पीला गमछा, ऐसे बना दक्षिण में करुणा
दक्षिण में रहकर उत्तर भारत की राजनीति को प्रभावित करने वाले करुणानिधि ने कभी हिंदी का घनघोर विरोध किया था।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। सात दशक तक दक्षिण की राजनीति के धुरी रहे एम करुणानिधि का जिक्र आते ही आंखों पर काला चश्मा और कंधों पर पीला गमछा रखे ऐसे राजनेता का अक्स उभरता है जिसने साधारण सी शुरुआत से पूरे देश की राजनीति में वो मुकाम बनाया जहां पहुंचना लोगों का सपना होता है।
दक्षिण में रहकर उत्तर भारत की राजनीति को प्रभावित करने वाले करुणानिधि ने कभी हिंदी का घनघोर विरोध किया था। उनके इसी कदम ने तमिलनाडु में उन्हें लोकप्रिय बनाया। राजनीति के माहिर खिलाड़ी बनकर उन्होंने पूरे देश को साधने की कोशिश की। गठबंधन के इस दौर में उनको बिसारने की कोई राजनीतिक दल भूल नहीं कर सकता था।
मुत्तुवेल करुणानिधि
3 जून, 1924- 7 अगस्त, 2018 थिरुक्कुवलई, तमिलनाडु
पटकथा लेखन से करियर की शुरुआत
करुणानिधि संगीतज्ञों की जाति से आते थे। दक्षिण भारत के कई नामी राजनीतिक चेहरों की तरह करुणानिधि ने भी राजनीति में आने से पहले फिल्मों में काम किया। पटकथा लेखक के तौर पर पहले थिएटर और फिर तमिल फिल्म इंडस्ट्री में फिल्मों ककेलए 70 से अधिक पटकथाएं लिखी। उनकी लिखी पटकथाओं पर बनी फिल्मों में शिवाजी गणेशन और एमजीआर जैसे नामी कलाकारों ने काम किया। यहीं पर उन्होंने ब्राह्मणों के खिलाफ द्रविड अभियान छेड़ने की कला सीखी।
राजनीति में प्रवेश
किशोरावस्था के शुरुआती वर्षो में ही वे राजनीति से जुड़ गए। क्षेत्र में हिंदी भाषा के प्रयोग के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा बने। क्षेत्र के युवाओं और छात्रों के लिए संगठन बनाए और एक समाचार पत्र शुरू किया। यही समाचार पत्र बाद में उनकी पार्टी डीएमके का मुखपत्र बना। वह तमिलनाडु राजनीति के प्रमुख चेहरे सी एन अन्नादुरई के घनिष्ठ बने। 1953 में जब तमिलनाडु के एक गांव का नाम बदलकर उत्तर भारत के एक नेता के नाम पर रखा गया तो उन्होंने विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया। यहीं से वह तमिलनाडु की राजनीति में लोगों की नजर में आए।
जब द्रविड कड़गम पार्टी के प्रमुख पेरियार ईवी रामास्वामी के साथ तकरार के चलते अन्नादुरई ने पार्टी छोड़ दी तो करुणानिधि ने अपने पूरे सामर्थ्य से उनका साथ दिया। 1957 में पहली बार निदर्लीय उम्मीदवार के तौर पर मद्रास की विधानसभा में चुने गए। 1961 में अन्नादुराई की पार्टी डीएमके के खजांची बने। 1962 में राज्य विधानसभा में विपक्ष के उप-प्रमुख बने। 1967 में जब डीएमके ने सरकार बनाई और अन्नादुराई मुख्यमंत्री बने तो करुणानिधि लोकनिर्माण मंत्री बने।
बने मुख्यमंत्री
1969 में अन्नादुरई की मृत्यु के बाद 10 फरवरी, 1969 को करुणानिधि ने राज्य के मुख्यमंत्री का पद संभाला। इस पद पर वे 2 जनवरी, 1971 तक बैठे। इसी साल चुनावों में डीएमके की जीत के बाद वे दोबारा मुख्यमंत्री बने। उनका कार्यकाल 15 मार्च, 1971 से 31 जनवरी, 1976 तक रहा।
चुनावी संग्राम की शुरुआत
1972 में लोकप्रिय तमिल फिल्म स्टार एमजी रामचंद्रन ने डीएमके से अलग होकर एडीएमके पार्टी का गठन किया। एमजीआर ने इस अलगाव के लिए पार्टी में भ्रष्टाचार को जिम्मेदार ठहराया। धीरे-धीरे एमजीआर के बढ़ते कद की वजह से करुणानिधि का प्रभाव कम होता जा रहा था। दोनों दल एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन हो गए। 1977 में एडीएमके पार्टी ने चुनावों में जीत हासिल की। एमजीआर राज्य के मुख्यमंत्री बने। राज्य के लोगों पर एमजीआर का ऐसा प्रभाव छाया कि उनके जीते जी करुणानिधि विपक्ष में ही बैठते रहे।
जयललिता से जंग
दिसंबर, 1987 में एमजीआर की मृत्यु के बाद 1989 चुनावों में करुणानिधि की पार्टी जीती और वे तीसरी बार मुख्यमंत्री बने। 1991 के चुनावों में उन्हें एमजीआर की राजनीतिक उत्तराधिकारी जयललिता ने शिकस्त दी। हालांकि 1996 में अगले चुनावों में करुणानिधि फिर सत्ता में आ गए। अपने कार्यकाल के दौरान उनकी सरकार ने जयललिता पर भ्रष्टाचार के कई मामले दर्ज कराए। इसके चलते जयललिता को जेल भी जाना पड़ा। 2001 में जब जयललिता ने फिर से राज्य की कमान संभाली तो करुणानिधि को फ्लाइओवर घोटाले में 29 जून की आधी रात को घर से उठाकर गिरफ्तार किया गया।