अपराध में डूबी देश की राजनीति; जिम्मेदार पार्टियां ही नहीं, हम भी हैं
राजनीति को अपराधममुक्त करने के लिए कोई ठोस पहल करने की इच्छाशक्ति किसी सरकार ने अब तक नहीं दिखाई है।
पीयूष द्विवेदी। किसी भी लोकतांत्रिक देश में शासन की सफलता इस बात में भी निहित होती है कि वहां की संसद और विधानसभाओं में पहुंचने वाले जनप्रतिनिधि कितने स्वच्छ और बेदाग छवि के हैं। स्वच्छ छवि के जनप्रतिनिधि ही किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था को उच्च नैतिक धरातल पर प्रतिष्ठित करते हैं। इस संदर्भ में अगर भारत की बात करें तो स्थिति खराब ही दिखती है। गौरतलब है कि गत दिनों भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार से दागी जनप्रतिनिधियों की सूची मांगी थी। सरकार द्वारा सौंपी गई सूची के अनुसार देश के कुल सांसदों और विधायकों में से 1765 जनप्रतिनिधियों पर कोई न कोई मुकदमा चल रहा है। दागी जनप्रतिनिधियों के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है।
मणिपुर और मिजोरम में नेता पाक-साफ
उत्तर प्रदेश के 248 जनप्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जबकि दूसरे नंबर पर तमिलनाडु के 178 सांसदों और विधायकों के खिलाफ मामले दर्ज हैं। इस मामले में बिहार तीसरे नंबर पर है। बिहार के 144 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले होने की बात सामने आई है। मणिपुर और मिजोरम मात्र ये दो ऐसे राज्य हैं, जहां किसी भी जनप्रतिनिधि पर कोई मुकदमा नहीं है। इसके अलावा शेष सभी राज्यों के जनप्रतिनिधि किसी न किसी आरोप में लिप्त और मुकदमेबाजी का सामना कर रहे हैं। स्पष्ट है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दम भरने वाला भारत राजनीतिक शुचिता की इस कसौटी पर बुरी तरह से विफल नजर आता है।
राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी
शुचितारहित राजनीति की ये स्थिति जितनी चिंतित नहीं करती, उससे अधिक चिंता इसके प्रति देश की सरकारों की उदासीनता को देखकर होती है। भारतीय राजनीति को दागीमुक्त करने के लिए कोई ठोस पहल करने की इच्छाशक्ति किसी सरकार ने अब तक नहीं दिखाई है। वर्तमान सरकार की तरफ से भी इस संबंध में बातें तो कई की जाती रही हैं और खुद प्रधानमंत्री द्वारा भी अपराध मुक्त राजनीति की बात कई बार कही जा चुकी है, लेकिन इन बातों का व्यावहारिक स्तर पर कोई विशेष प्रभाव अब तक नहीं दिखाई दिया।
सुप्रीम कोर्ट का डंडा कब तक
गौर करें तो वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को यह निर्देश दिया था कि एक वर्ष के भीतर सभी जनप्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों का निपटारा कर दिया जाए। इसके लिए फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना की भी बात हुई थी, लेकिन उस निर्देश के बाद अगले तीन वर्षों यानी 2014 से 2017 के बीच में सिर्फ 765 दागी जनप्रतिनिधियों के खिलाफ ही सुनवाई पूरी हो सकी, जबकि तीन हजार से अधिक मामलों में अब भी सुनवाई जारी है। गत वर्ष पुन: जब सर्वोच्च न्यायालय में यह मामला उठा तो सरकार के दिमाग में फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना की बात आई। खबर उठी कि सरकार दागी जनप्रतिनिधियों के मामलों की सुनवाई के लिए 1200 फास्ट ट्रैक अदालतों का गठन करेगी। देखना होगा कि ये खबर, सिर्फ खबर ही साबित होती है या यथार्थ के धरातल पर इसका कोई क्रियान्वयन भी हो पाता है।
दागियों को बचाने के लिए अध्यादेश
मौजूदा वक्त में दागी जनप्रतिनिधियों के दोषी सिद्ध होने पर सदस्यता जाने तथा अगले छह वर्ष तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य सिद्ध होने का प्रावधान है। लालू यादव इस नियम के उदाहरण हैं, लेकिन दागियों के संबंध में यह दंडात्मक व्यवस्था भी आसानी से लागू हो गई हो, ऐसा नहीं है। वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने दागी जनप्रतिनिधियों के दोषी सिद्ध होने पर सदस्यता खो देने की व्यवस्था का एलान किया था, जिसको पलटने के लिए तत्कालीन संप्रग सरकार अध्यादेश ले आई। मगर तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस अध्यादेश को पुनर्विचार के लिए जब सरकार को वापस कर दिया तो संप्रग को अपनी भूल का एहसास हुआ। फिर राहुल गांधी द्वारा सरेआम इस अध्यादेश को फाड़ने का नाटक हुआ और संप्रग सरकार ने अध्यादेश वापस ले लिया तथा सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय लागू हो गया।
अपराध में डूबी राजनीति
दरअसल दागियों के प्रति देश की सरकारों का लगाव कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि लगभग सभी दलों में कमोबेश दागियों की भरमार है, ऐसे में वे दागी जनप्रतिनिधियों का विरोध कर भी कैसे सकते हैं। प्राय: आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं का अपने क्षेत्र में एक विशेष दबदबा रहता है और भय के कारण भी उनकी जीत लगभग सुनिश्चित रहती है। इस कारण हर दल ऐसे नेताओं पर दांव खेलने में आगे रहता है। गत लोकसभा चुनाव में चुने गए सांसदों में से 165 पर कोई न कोई मुकदमा दर्ज है। इनमें से 98 भाजपा, 15 शिवसेना, 8 कांग्रेस, 7 तृणमूल कांग्रेस, 6 टीडीपी, 6 अन्नाद्रमुक, 5 टीआरएस और 3 बीजद के हैं। खैर दागी जनप्रतिनिधियों के संबंध में यही हाल विधानसभाओं का भी है। ये आंकड़े अपराध में डूबी भारतीय राजनीति की स्थिति स्पष्ट कर देते हैं और यह समझना कठिन नहीं रह जाता कि आखिर हमारी सरकारें अपराधमुक्त राजनीति की दिशा में कदम उठाने को लेकर मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय क्यों नहीं देतीं।
कुछ जिम्मेदारी तो हम सबकी भी है
अपराधमुक्त राजनीति के लिए जरूरी है कि बिना देरी किए फास्ट ट्रैक अदालतों का गठन कर दागी नेताओं पर चल रहे मुकदमों का तुरंत निपटारा किया जाए। यह नियम तो ठीक है कि दोषी करार दिए जाने के बाद जनप्रतिनिधि अपनी सदस्यता खो देते हैं और चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो जाते हैं, लेकिन इसके साथ ही दोषी नेता को सजा पूरी होने तक राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने का नियम भी लागू कर दिया जाए तो बेहतर रहेगा। इससे संसद और विधानसभाओं के अलावा बाह्य राजनीतिक क्षेत्र भी अपराधियों के नियंत्रण और प्रभाव से मुक्त रहेगा। वैसे दागियों से मुक्त राजनीति का स्वप्न सिर्फ सरकार के करने से साकार नहीं होगा, जनता की भी जिम्मेदारी है। जब तक अपना जनप्रतिनिधि चुनते समय लोग जाति-धर्म-क्षेत्र से ऊपर उठकर प्रत्याशी की छवि और प्रदर्शन को ध्यान में रखकर मतदान करना नहीं शुरू करेंगे, अपराधमुक्त राजनीति संभव नहीं है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की गरिमा को सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक है।
लेखक इग्नू में शोधार्थी हैं