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मुस्लिम महिलाओं में खतने के खात्मे का मामला संविधान पीठ के हवाले

दाऊदी बोहरा मुसलमानों में प्रचलित महिलाओं की खतना प्रथा को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ विचार करेगी।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Mon, 24 Sep 2018 08:39 PM (IST)Updated: Tue, 25 Sep 2018 12:33 AM (IST)
मुस्लिम महिलाओं में खतने के खात्मे का मामला संविधान पीठ के हवाले
मुस्लिम महिलाओं में खतने के खात्मे का मामला संविधान पीठ के हवाले

जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। दाऊदी बोहरा मुसलमानों में प्रचलित महिलाओं की खतना प्रथा को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ विचार करेगी। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने मामला संविधान पीठ को विचार के लिए भेज दिया।

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तीन जजों की पीठ ने मामला पांच जजों की पीठ को भेजा

मुसलमानों के दाऊदी बोहरा समुदाय में सात साल की बच्चियों या नाबालिग लड़कियों का खतना किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका के जरिये इस प्रथा को चुनौती दी गई है। कई दिनों तक मामले की मेरिट पर सुनवाई करने के बाद सोमवार को मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, एएम खानविल्कर व डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने केन्द्र सरकार और दाऊदी बोहरा समुदाय के वकीलों की मांग स्वीकार करते हुए मामला विचार के लिये संविधानपीठ को भेज दिया।

इससे पहले केन्द्र की ओर से पेश अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि उनकी राय में यह मामला विचार के लिए संविधानपीठ को भेजा जाना चाहिए। दाऊदी बोहरा समुदाय की ओर से पेश वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने भी उनकी बात का समर्थन किया। हालांकि याचिकाकर्ता की ओर से विरोध करते हुए कहा गया कि हर मामला संविधानपीठ को नहीं भेजा जा सकता।

याचिका में कहा गया है कि महिलाओं के खतना की प्रथा गैरकानूनी है। ये जीवन के मौलिक अधिकार के हनन के साथ ही मानवाधिकारों का भी उल्लंघन है। कुछ हस्तक्षेप याचिकाकर्ताओं की ओर से कहा गया था कि बच्चियों के निजी अंगों को छूने और उनसे छेड़छाड़ करने पर आईपीसी और पॉस्को कानून के तहत आपराधिक कार्यवाही होनी चाहिए। जबकि दाऊदी बोहरा समुदाय की ओर से प्रथा का समर्थन करते हुए दलील दी गई थी कि यह प्रथा पिछले 1400 वर्षो से चली आ रही है और यह धर्म का अभिन्न हिस्सा है। इसे संविधान के धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार अनुच्छेद 25, 26 और 29 में संरक्षण मिलना चाहिए। ये प्रथा पवित्रता से जुड़ी मान्यता है। इस मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने भी टिप्पणियां की थीं।

कोर्ट ने कहा था कि किसी प्रचलन के 1400 साल यानी लंबे समय से चलता रहना उसके धर्म के अभिन्न हिस्सा माने जाने का आधार नहीं हो सकता। ये एक सामाजिक दायरा हो सकता है। इस प्रचलन को स्वास्थ्य, नैतिकता और पब्लिक आर्डर के संवैधानिक मूल्यों पर परखा जाएगा। कोर्ट ने प्रथा पर सवाल उठाते हुए ये भी टिप्पणी की थी कि ये प्रचलन महिलाओं की गरिमा को चोट पहुंचाता है। पति को खुश करने के लिए महिला ऐसा करे तो क्या इससे पुरुष वर्चस्व नहीं झलकता।

केन्द्र सरकार ने पूर्व सुनवाई में प्रथा का विरोध करते हुए कहा था कि ये जीवन के मौलिक अधिकार का हनन है। जैसे सती और देवदासी प्रथा पर रोक लगाई गई है वैसे ही इस पर भी लगनी चाहिए। ये प्रथा कष्टकारक है इसे धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं कहा जा सकता। 


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