Move to Jagran APP

विपक्ष की बस में सवार होने के बाद भी राहुल गांधी की राह है बेहद मुश्किल

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की ओर से अब यह कहा जा रहा है कि वे विपक्ष की बस में सवार होने को तैयार हैं। उन्‍हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि ड्राइवर की सीट कौन संभालता है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sat, 28 Jul 2018 11:31 AM (IST)Updated: Sat, 28 Jul 2018 12:28 PM (IST)
विपक्ष की बस में सवार होने के बाद भी राहुल गांधी की राह है बेहद मुश्किल
विपक्ष की बस में सवार होने के बाद भी राहुल गांधी की राह है बेहद मुश्किल

भवदीप कांग। लगता है राहुल गांधी ने वर्ष 2019 में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन का नेतृत्व करने और प्रधानमंत्री बनने के अपने सपने को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। कांग्रेस अध्यक्ष की ओर से अब यह कहा जा रहा है कि वे विपक्ष की बस में सवार होने को तैयार हैं और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि ड्राइवर की सीट कौन संभालता है। पिछले हफ्ते की ही बात है। कांग्रेस पार्टी अपने युवा अध्यक्ष को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने के लिए बेताब थी, लेकिन एक बार फिर क्षेत्रीय दलों ने उसके मंसूबे ठंडे कर दिए। पिछले हफ्ते संसद में राहुल ने जो ड्रामेबाजी की, उसका मकसद भी शायद यही था कि वे खुद को भाजपा-विरोधी गठबंधन के चेहरे के तौर पर स्थापित कर सकें। लेकिन ममता बनर्जी ने यह ऐलान करते हुए राहुल की इस महत्वाकांक्षा को पलीता लगा दिया कि उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस 2019 का लोकसभा चुनाव बंगाल में अकेले लड़ेगी और राज्य की सभी 42 सीटें जीतेगी।

loksabha election banner

चुनाव-पूर्व का ड्रामा

लेकिन कांग्रेस कार्यसमिति ने ममता के वक्तव्य को चुनाव-पूर्व का ड्रामा करार दिया और घोषणा कर दी कि राहुल गांधी एकजुट विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। इस मामले में उन्हें सिर्फ जद(एस) के अध्यक्ष एचडी देवेगौड़ा का समर्थन मिला। लेकिन लोकसभा में जद(एस) की सिर्फ एक सीट है। ऐसे में उनके इस समर्थन का भी खास वजन नहीं रहा। यहां तक कि राहुल के अच्छे मित्र अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव ने भी प्रधानमंत्री पद की उनकी दावेदारी का समर्थन नहीं किया। बसपा सुप्रीमो मायावती ने कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर नकारात्मक सुर छेड़ दिए और अन्य किसी ने प्रतिक्रिया नहीं दी। तब सोनिया और राहुल गांधी को संभवत: गलती का एहसास हुआ। इसके बाद कांग्रेस पार्टी ने यू-टर्न लेते हुए एक अनौपचारिक प्रेस मीटिंग में कहा कि उसे विपक्षी दलों का कोई भी नेता प्रधानमंत्री पद के लिए कबूल होगा। वास्तव में कई कारणों से इस वक्त राहुल गांधी को नेतृत्व के मसले की फिक्र न करते हुए विभिन्न दलों से गठबंधन कायम करने पर फोकस करना चाहिए।

ये हैं कारण

पहला कारण, यदि राहुल गांधी खुद को प्रधानमंत्री के दावेदार के तौर पर पेश करते हैं तो उन्हें एक ‘कामदार’ के बजाय अहंकारी ‘नामदार’ के रूप में देखा जाएगा, जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले कुछ समय से उनके बारे में कहते आ रहे हैं। दूसरी वजह, इस वक्त उन्हें क्षेत्रीय दलों की जरूरत है, क्षेत्रीय दलों को उनकी नहीं। जिन राज्यों में क्षेत्रीय दलों का प्रभुत्व है, वहां कांग्रेस अप्रासंगिक हो चुकी है। आज लोकसभा में भी क्षेत्रीय दलों की सीटें कांग्रेस के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं और उनके इस आंकड़े में इजाफे की भी पर्याप्त संभावनाएं हैं। तीसरी वजह, विपक्षी खेमे में ऐसे कई कद्दावर नेता हैं जो देश का नेतृत्व संभालने के लिहाज से राहुल के मुकाबले ज्यादा सक्षम हैं। लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता होने के नाते राहुल को यह लग सकता है कि उनकी दावेदारी पहले बनती है। लेकिन अब यह तर्क भी नहीं चलेगा, क्योंकि कांग्रेस ने कर्नाटक में जद(एस) के मुकाबले तकरीबन दोगुनी सीटें जीतने के बावजूद मुख्यमंत्री की कुर्सी इस पार्टी को सौंप दी।

सक्रिय राजनीति में 14 साल

सक्रिय राजनीति में 14 साल गुजारने के बाद राहुल इतना तो समझते ही होंगे कि महज आंकड़ों के आधार पर सत्ता की बागडोर नहीं मिल जाती। चौथा कारण, राहुल गांधी को यह बात जेहन में रखनी चाहिए कि उन्होंने लोकसभा में अपने भाषण से अपने राजनीतिक अस्त्रों को उजागर कर दिया, जबकि उन्हें इसका कोई अता-पता नहीं कि भाजपा के जखीरे में कैसे-कैसे अस्त्र हैं। 2014 के चुनाव में वह भाजपा के लिए एक छोटा-मोटा टार्गेट थे, क्योंकि तब न वह प्रधानमंत्री थे और न ही पार्टी अध्यक्ष। लिहाजा चुनाव अभियान के दौरान वह हल्के में बच गए। लेकिन अब भाजपा की प्रचार मशीनरी द्वारा उन पर पूरी ताकत से निशाना साधा जाएगा। वर्ष 2019 के चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा भी रहे, फिर भी वह अपने मिशन-200 से दूर रह सकती है। पिछले 22 साल में सात चुनाव लड़ते हुए यह पार्टी सिर्फ एक बार लोकसभा में अपनी सीटों की संख्या 145 से आगे ले जा पाई है।

कहीं कांग्रेस बन न जाए बौनी

लिहाजा लगता यही है कि वह संख्या के मामले में फेडरल फ्रंट पार्टियों से पिछड़ सकती है। राकांपा और राजद जैसे यूपीए के घटक दल भले ही राहुल का समर्थन करने को राजी हो जाएं, लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं। उन्हें ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव, चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक और अन्य नेताओं की भी स्वीकृति चाहिए होगी। लगता यही है कि तमाम या ज्यादातर बड़े क्षेत्रीय दलों से मिलकर बना सियासी मोर्चा इतनी सीटें जीत सकता है कि कांग्रेस बौनी बनकर रह जाए, और ममता इस तथ्य से भलीभांति अवगत हैं। लिहाजा ‘एकता में शक्ति है’ का मूलमंत्र जेहन में रखते हुए उन्होंने जनवरी 2019 में कोलकाता में एक महारैली का आयोजन प्रस्तावित किया है। यदि कांग्रेस उस रैली में शामिल होती है तो उसकी स्थिति बाकी दलों के समान ही होगी, बराबरों में सर्वप्रथम नहीं।

सौदेबाजी करने की स्थिति में नहीं कांग्रेस

कांग्रेस सौदेबाजी करने की स्थिति में नहीं है, क्योंकि वर्ष 2014 के बाद तो तकरीबन तमाम राज्यों के चुनाव हारते हुए इसका दायरा और अधिक सिमट गया है। भाजपा और क्षेत्रीय दलों ने इसकी ताकत इतनी क्षीण कर दी है कि यह कम से कम 250 लोकसभा सीटों पर मुकाबले में ही नहीं। हालांकि उसे हताश होने की जरूरत नहीं। 89 सीटें (मध्य प्रदेश की 29, गुजरात की 26, राजस्थान की 25, उत्तराखंड की 5 और हिमाचल प्रदेश की 4) तो ऐसी हैं, जहां इसका भाजपा के साथ सीधा मुकाबला है, जहां वह खुद को साबित कर सकती है। केरल (20 सीटें), तेलंगाना (17) और पंजाब (13 सीटें) में यह क्रमश: माकपा, टीआरएस और अकाली दल के नुकसान पर बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। बाकी जगहों पर इसे मजबूत क्षेत्रीय दलों से गठजोड़ पर भी निर्भर रहना होगा, अब भले ही वह इनमें वरिष्ठ साङोदार बने या कनिष्ठ। महाराष्ट्र (48), झारखंड (14), कर्नाटक (28), छत्तीसगढ़ (11) और पूवरेत्तर (25) में यह तुलनात्मक रूप से मजबूत स्थिति में है, लेकिन अन्य राज्यों में कमजोर है।

सहयोगी कलाकार की भूमिका में राहुल 

राहुल गांधी ने भले ही फिलहाल अपनी भूमिका सहयोगी कलाकार के रूप में स्वीकार ली हो, लेकिन लोकसभा में उनका प्रदर्शन देखकर ऐसा लगा कि वह खुद को हीरो की तरह ही देखते हैं। साफ लगता है कि वह 2003 को दोहराने की उम्मीद कर रहे हैं। अब की तरह, तब भी एनडीए सरकार ने विशाल अंतर से विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को पटखनी दी थी, लेकिन एक साल बाद ही उसे चुनाव में पराजय झेलनी पड़ी थी। ऐसा इसलिए संभव हुआ, क्योंकि कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष ने विनम्र भाव दिखाते हुए क्षेत्रीय ताकतों को साधा था। राहुल गांधी को भी अब यही करने की जरूरत है।

 (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) 


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.