राहुल गांधी ने आखिरकार लौटाई कांग्रेस की सियासी रंगत
कांग्रेस के अच्छे दिनों का आगाज करने के लिए राहुल के पास 11 दिसंबर से बेहतर शायद दूसरा दिन नहीं था क्योंकि ठीक एक साल पहले इसी दिन वे अध्यक्ष चुने गए।
संजय मिश्र, नई दिल्ली। राहुल गांधी ने हिन्दी भाषी तीन बड़े राज्यों में चुनावी जीत की हैट्रिक के साथ ही 'करो या मरो' की राजनीतिक बाजी अपने नाम कर ली है। इस कामयाबी के जरिये राहुल ने जहां एक ओर पार्टी को 'कांग्रेस मुक्त भारत' के खतरों से बाहर निकाल देश की राजनीतिक सत्ता-सियासत की दौड़ में फिर से वापस ला खड़ा किया है। तो दूसरी ओर कांग्रेस की जीत ने राहुल की 'लीडरशिप' क्षमता पर उठाए जाने वाले सवालों का भी आखिरकार अंत कर दिया है।
लोकसभा चुनाव के फाइनल से पहले सेमीफाइनल माने जा रहे पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस को अंधेरे दौर से बाहर लाने के साथ राहुल ने पीएम नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की पराक्रमी सियासी जोड़ी को चुनौती नहीं दिये जाने की बीते कुछ सालों में बनी धारणा को भी ध्वस्त कर दिया है। कांग्रेस के अच्छे दिनों का आगाज करने के लिए राहुल के पास 11 दिसंबर से बेहतर शायद दूसरा दिन नहीं था क्योंकि ठीक एक साल पहले इसी दिन वे कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए थे। छत्तीसगढ, राजस्थान और मध्यप्रदेश के चुनाव नतीजों का संकेत साफ है कि राहुल के नेतृत्व और सियासी क्षमता का माखौल उड़ाना राजनीतिक भूल होगी। बेशक राहुल को जन नेता बनने के लिए अभी सियासी कामयाबी की मंजिलें हासिल करने का लंबा सफर तय करना होगा। मगर इसमें भी संदेह नहीं रहा कि अब उनके नेतृत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर ही नहीं कांग्रेस की अंदरूनी सियासत के लिहाज से भी यह राहुल के लिए भरोसा जगाने का बड़ा 'टानिक' होगा। कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी की अगुआई में यह पार्टी की पहली जीत है। वैसे राहुल ने अध्यक्ष के तौर पर पार्टी की कमान एक साल पहले संभाली थी मगर व्यावहारिक रुप से ढाई साल से अधिक समय से वे कांग्रेस की रीति-नीति को पूरी तरह संचालित कर रहे थे। इस दौरान कांग्रेस के हाथ से कई राज्यों की सत्ता छीनती चली गई। उत्तर प्रदेश के चुनाव में पार्टी की दुर्गति हुई तो पंजाब में जीत का श्रेय राहुल गांधी की बजाय कैप्टन अमरिंदर सिंह को दिया गया। कर्नाटक में कांग्रेस जीत नहीं पायी और मजबूरी में जेडीए से गठबंधन कर किसी तरह भाजपा को रोक पायी।
मगर इन चुनाव में करीब 85 रैलियों के साथ अपनी पूरी क्षमता झोंक राहुल ने मैदान में संघर्ष करने की क्षमता दिखाई। तो खुद पर 'अनिच्छुक राजनेता' के लगने वाले लेवल को भी अब लगभग दफन कर दिया है। तीन राज्यों की यह जीत कांग्रेस कार्यकर्ताओं को राहुल के नेतृत्व में निसंदेह भरोसा बढ़ाएगी। विशेष रुप से यह देखते हुए कि पिछले लोकसभा चुनाव में 44 सीटों की सबसे बुरी हार के बाद छोटे केंद्र शासित प्रदेश पुद्दुचेरी के अलावा कांग्रेस की केवल पंजाब में ही अपनी सरकार थी। जम्मू-कश्मीर से लेकर झारखंड के पूरे हिन्दी भाषी इलाके ही नहीं पश्चिम में गुजरात-महाराष्ट्र तक कहीं भी कांग्रेस सत्ता में नहीं है। इस लिहाज से तीन इन तीन बड़े सूबों जहां लोकसभा की 65 सीटें हैं वहां कांग्रेस को सत्ता में लाना पार्टी के लिए छोटी घटना नही है। शायद इसीलिए ये चुनाव राहुल के लिए 'करो या मरो' की जंग से कम नहीं थे।
राहुल की अगुआई वाली कांग्रेस के इस नये सियासी उदय में इस बात की अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि उनका सीधा मुकाबला पीएम मोदी की निर्विवाद नेतृत्व के साथ चुनावी प्रबंधन के महारथी अमित शाह की रणनीतिक जोड़ी से था। इस लिहाज से भी राहुल की कप्तानी में कांग्रेस की टीम कमजोर पिच पर दिखाई दे रही थी। क्योंकि 2019 में विपक्ष के नेतृत्व के चेहरे को लेकर पीएम के सियासी बाउंसर को रोकने के लिए कांग्रेस के पास इन तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री पद के घोषित चेहरे भी नहीं थे। ऊपर से नामदार बनाम कामदार के सहारे परिवारवाद, गोत्र, अयोध्या राम मंदिर से लेकर चाय वाले की अलग-अलग तरह की सियासी गुगलियों की बौछार भी राहुल के राजनीतिक विकेट के लिए खतरे की चुनौती बनते दिखे। मगर जवाबी आक्रमण ही मजबूत विरोधी को चित करने की रणनीति के तहत राहुल ने राज्यों के इस चुनाव में सीधे पीएम मोदी और उनकी सरकार पर आक्रामक हमला जारी रखा।
चुनाव नतीजों के सुखद परिणामों के बाद इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी पर राहुल का यह वार अब कहीं ज्यादा बढ़ी हुई ताकत से होगा। इस बड़ी कामयाबी में भी महागठबंधन बनाने के बाद तेलंगाना में हार और मिजोरम में सत्ता से बाहर होना कांग्रेस के लिए बड़े झटके हैं। पूर्वोत्तर में कांग्रेस का सफाया हो गया है और राहुल के लिए इन राज्यों में पार्टी की वापसी कराना आसान नहीं होगा।