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कांग्रेस के लिए फिर इतिहास दोहरा सकती है कैप्टन की बगावत, ढहती रही है पार्टी की ताकत

पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का नई पार्टी बनाने का एलान कांग्रेस के लिए नई अप्रत्याशित चुनौती होगी। हकीकत भी है कि पंजाब में कैप्टन की शख्सियत की एक अपील रही है। चुनाव में उनकी यह सियासी अपील कांग्रेस की सत्ता की डगर में कांटे बिछा सकती है।

By Sanjeev TiwariEdited By: Published: Wed, 20 Oct 2021 09:30 PM (IST)Updated: Thu, 21 Oct 2021 03:47 PM (IST)
कांग्रेस के लिए फिर इतिहास दोहरा सकती है कैप्टन की बगावत, ढहती रही है पार्टी की ताकत
नई पार्टी बनाने का कैप्टन अमरिंदर का एलान कांग्रेस के लिए चुनाव से पहले अप्रत्याशित चुनौती (फाइल फोटो)

संजय मिश्र, नई दिल्ली। पंजाब विधानसभा चुनाव से ठीक पहले पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का नई पार्टी बनाने का एलान कांग्रेस के लिए नई अप्रत्याशित चुनौती होगी। कैप्टन भले ही अपने राजनीतिक करियर के ढलान पर हैं, लेकिन यह हकीकत भी है कि सूबे में उनकी शख्सीयत की एक अपील रही है। चुनाव में उनकी यह सियासी अपील कांग्रेस की सत्ता की डगर में कांटे बिछा सकती है। खासकर यह देखते हुए कि बीते करीब ढाई दशक के दौरान जिन कुछ राज्यों में कांग्रेस के बड़े क्षेत्रीय छत्रपों ने बगावत कर पार्टी छोड़ी, उन राज्यों में पार्टी की राजनीति हाशिए पर चली गई। बंगाल में ममता बनर्जी, महाराष्ट्र में शरद पवार और आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी इसकेज्वलंत उदाहरण हैं।

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पंजाब कांग्रेस का मजबूत गढ़ रहा है और अगले चुनाव में भी अभी तक पार्टी सत्ता की दौड़ में मजबूत दावेदार मानी जा रही है। अकाली दल के सामने साख का संकट होने और आम आदमी पार्टी के पास चेहरा नहीं होने को कांग्रेस चुनाव में अपने लिए मुफीद परिस्थिति मान रही है। मगर कैप्टन के कांग्रेस छोड़ नई पार्टी के बैनर तले चुनाव में कूदने की घोषणा कांग्रेस के इस मुफीद माहौल के लिए चुनौती बनेगी ही। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने सत्ता की गाड़ी को चुनावी स्पीड में तो डाल दिया है, लेकिन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू का अभी तक जारी डांवाडोल रवैया पार्टी की चुनावी रफ्तार को थामे हुए है। ऐसे में कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने के इरादे से चुनावी मैदान में उतरने जा रहे कैप्टन को रोकने की सियासी रणनीति पार्टी के लिए बड़ी चुनौती बनेगी।

क्षेत्रीय छत्रपों की बगावत का अब तक का अनुभव कांग्रेस के लिए कटु ही रहा

इसमें सबसे प्रमुख उदाहरण ममता बनर्जी का है जो कांग्रेस की तेज-तर्रार बड़ी नेता के रूप में स्थापित हो चुकी थीं, लेकिन तत्कालीन पार्टी नेतृत्व से खफा होकर उन्होंने 1997 के आखिर में पार्टी छोड़ दी और जनवरी 1998 में अपनी नई पार्टी तृणमूल कांग्रेस बना ली। इसके बाद ममता जैसे-जैसे सूबे में मजबूत हुईं, वैसे-वैसे कांग्रेस बंगाल की सत्ता की मुख्य दौड़ से बाहर होती गई। 2011 में दीदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद तो कांग्रेस का ग्राफ लगातार नीचे ही गया है। बंगाल की विधानसभा में पार्टी के विधायकों की संख्या जीरो है तो सूबे की 42 लोकसभा सीटों में से उसके पास केवल दो सीट हैं।

पवार ने 1999 में राकांपा का किया गठन

शरद पवार ने भी 1999 में कांग्रेस से अलग होकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) बनाई और इसका नुकसान कांग्रेस को यह हुआ कि महाराष्ट्र जैसे बड़े प्रदेश में पार्टी के लिए राकांपा से गठबंधन उसकी सियासी जरूरत बन गई है। बीते दो लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन बेहद खराब रहा तो पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस महाराष्ट्र में भाजपा, शिवसेना और राकांपा के बाद चौथे नंबर की पार्टी के रूप में नीचे खिसक गई है।

जगन ने 2011 में नई पार्टी गठित की

आंध्र प्रदेश में दिग्गज नेता पूर्व सीएम राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी के कांग्रेस से अलग होकर वाइएसआर कांग्रेस बनाने के कदम ने तो इस सूबे में पार्टी की सियासत का पूरा डब्बा ही गोल कर दिया। मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाने से नाराज जगन ने 2011 में वाइएसआर कांग्रेस बनाई और आंध्र प्रदेश के बंटवारे के बाद 2014 के लोकसभा व विधानसभा चुनाव में जगन की पार्टी जहां मुख्य विपक्षी दल बन गई, वहीं कांग्रेस शून्य पर पहुंच गई। 2019 के विधानसभा चुनाव में दो तिहाई बहुमत के साथ जगन आंध्र के मुख्यमंत्री बन गए और उनकी पार्टी ने सूबे की 25 में से 22 लोकसभा सीटें जीतीं। इस समय वाइएसआर कांग्रेस लोकसभा में तृणमूल कांग्रेस के साथ संयुक्त रूप से संख्या बल के हिसाब से चौथी सबसे बड़ी पार्टी है। वहीं, कांग्रेस पिछले दो लोकसभा व विधानसभा चुनाव से आंध्र में अपना खाता भी नहीं खोल पाई है। ऐसे में पंजाब में कैप्टन की नई पार्टी की चुनौती कांग्रेस के सियासी जोखिम में इजाफा तो करेगी ही।


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