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गुजरात में 22 साल की पकड़ को भाजपा ने रखा बरकरार, कांग्रेस के ये तीन मुद्दे रहे नाकाम

राहुल गांधी लगातार मंदिरों के चौखट पर माथा झुकाते रहे। उनके इस कदम से कांग्रेस से जुड़े परंपरागत अल्पसंख्यक समर्थकों में एक तरह से गलत संदेश गया।

By Manoj YadavEdited By: Published: Mon, 18 Dec 2017 01:15 PM (IST)Updated: Mon, 18 Dec 2017 01:25 PM (IST)
गुजरात में 22 साल की पकड़ को भाजपा ने रखा बरकरार, कांग्रेस के ये तीन मुद्दे रहे नाकाम
गुजरात में 22 साल की पकड़ को भाजपा ने रखा बरकरार, कांग्रेस के ये तीन मुद्दे रहे नाकाम

नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क] । रुझानों के बाद अब ये साफ हो चुका है कि गुजरात के लोगों ने एक बार फिर भाजपा में भरोसा जताया है। आठ बजे जैसे ही मतगणना शुरु हुई पोस्टल बैलट की गिनती में भाजपा ने कांग्रेस में बढ़त बना ली थी। और ये ट्रेंड मतगणना शुरू होने के करीब एक घंटे तक जारी रहा। लेकिन एक पल ऐसा आया जब कांग्रेस, भाजपा से आगे निकलती देखी। लेकिन 10 बजे के आसपास ये साफ हो गया कि कांग्रेस पर भाजपा शानदार बढ़त बना चुकी है। ऐसे में गुजरात चुनाव के परिणामों को देखने के बाद जेहन में ये सवाल उठता है कि आखिर भाजपा कैसे एक बार फिर लोगों का दिल जीतने में कामयाब रही। भाजपा की जीत और कांग्रेस के हार के पीछे तमाम वजहे हैं लेकिन तीन ऐसे कारण हैं जिसकी वजह से भाजपा 22 साल बाद एक बार फिर कमल खिलाने में कामयाब रही।

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नहीं चला जातिगत दांव

गुजरात में तकरीबन 4 करोड़ 35 लाख मतदाताओं में 1 करोड़ से ज्यादा मतदाता पटेल पाटीदार बिरादरी से हैं जो गुजरात में कुल मतदाताओं की संख्या का 22-23 फीसद है। एक करोड़ से ज्यादा पाटीदार मतदाताओं में कड़वा और लेउवा पाटीदार 60 फीसद और लेउवा पटेल 40 फीसद हैं। हार्दिक पटेल कड़वा पटेल हैं।कड़वा पाटीदारों का सबसे बड़ा संगठन धार्मिक संगठन उत्तर गुजरात के उंझा गांव में मां उमिया संस्थान के नाम से प्रचलित है।जबकि लेउवा पाटीदारों का सबसे बड़ा धार्मिक संस्थान सौराष्ट्र के कागवड गांव की मां खोडलधाम के नाम से मशहूर हैं। कडवा पटेल समुदाय के लोग उत्तर गुजरात के मेहसाणा,अहमदाबाद कड़ी-कलोल और विसनगर इलाके में पाए जाते हैं। लेउवा पटेल ज्यादातर सौराष्ट्र-कच्छ इलाके( गुजरात के पश्चिम तटीय क्षेत्र का इलाका) के राजकोट, जामनगर, भावनगर, अमरेली, जूनागढ़, पोरबंदर, सुरेंद्र नगर और कच्छ जिलों में पाए जाते हैं।

पटेलों की राजनीतिक अहमियत
1960 में महाराष्ट्र से गुजरात के अलग होने के बाद अब तक सात बार पटेल गुजरात के सीएम रहे हैं। पहली पटेल सीएम आनंदी बेन पटेल थीं। गुजरात में 57 साल के राज में 16 सीएम बदल चुके हैं। 70 के मध्य में पटेलों ने गुजरात की राजनीति और सामाजिक बागडोर पर पकड़ बनाई।1981 में बक्शी कमीशन के सुझाव के बाद माधव सिंह सोलंकी की सरकार ने सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़े वर्ग की वकालत की। लेकिन सोलंकी के इस कदम का पूरे राज्य में विरोध के साथ हिंसक प्रदर्शन हुए। हिंसक प्रदर्शन में 100 से ज्यादा लोग मारे गए और माधव सिंह सोलंकी को इस्तीफा देना पड़ा।

1995 में भारतीय जनता पार्टी को 182 में 121 सीटों पर विजय मिली और 1998 से लेकर आज तक भाजपा चार बार सरकार बनाने में कामयाब रही। जानकार मानते रहे कि भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में बने रहने के पीछे एक बड़ी वजह ये थी कि पाटीदारों-पटेलों के एक करोड़ से ज्यादा वोटों में करीब 80 से 85 फीसद भाजपा के पक्ष में मत देते रहे।

गुजरात की आबादी में ओबीसी का हिस्सा करीब 51 फीसदी है। ऐसे में माना जा रहा था कि कुल 182 विधानसभा सीटों में से 110 सीटों पर हार-जीत को ओबीसी मतदाता प्रभावित करते हैं। गुजरात में जीत सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस ने अल्पेश ठाकोर पर दांव खेला। गुजरात में चुनावों की तारीख के ऐलान के बाद अल्पेश बार बार ये कहते रहे कि 22 साल के भाजपा शासन में अति पिछड़ा वर्ग उपेक्षित और शोषित रहा। लेकिन राजनीतिक जानकारों का मानना था कि कांग्रेस का ये दांव उल्टा पड़ सकता है। दरअसल गुजरात की राजनीति में पाटीदार और पिछड़ों के बीच एका होने के पीछे पटेलों द्वारा आरक्षण की मांग थी। हार्दिक पटेल ने कांग्रेस से मांग की थी कि पटेलों को भी आर्थिर आधार पर आरक्षण मुहैया कराया जाए। लेकिन भाजपा का कहना था कि दरअसल कांग्रेस को गुमराह करने की आदत रही है। जिस व्यवस्था की कांग्रेस नेता बात कर रहे हैं उसकी इजाजत संविधान नहीं देता है।

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उना में दलितों पर अत्याचार के मामलों को उठाने के बाद जिग्नेश मेवानी एकाएक सुर्खियों में आए। कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता था कि पाटीदार- पिछड़ों और दलित समुदाय के गठबंधन से भाजपा के 9 फीसद को अंतर को पाटा जा सकता है। लेकिन भाजपा दलितों को समझाने में कामयाब रही कि कांग्रेस के शासन काल को लोगों को नहीं भुलना चाहिए कि कैसे वो लोग दमन के शिकार होते रहे।

कांग्रेस के काम नहीं आया नरम हिंदुत्व

गुजरात चुनाव के दौरान कांग्रेस के उपाध्यक्ष रहे राहुल गांधी लगातार मंदिरों के चौखट पर माथा झुकाते रहे। उनके इस कदम से कांग्रेस से जुड़े परंपरागत अल्पसंख्यक समर्थकों में एक तरह से गलत संदेश गया। इसके साथ ही भाजपा के कद्दावर नेता ये लोगों को समझाने में कामयाब रहे कि राहुल का ये रूप सिर्फ चुनावों को जीतने तक ही सीमित है। दरअसल उनका हिंदुओं की भावनाओं से लेना देना नहीं है। रही सही कसर दूसरे चरण के प्रचार के दौरान सोमनाथ मंदिर के रजिस्टर में दस्तखत का मामला भी सुर्खियों में रहा। कांग्रेस के लोग सफाई देते रहे कि किसी शख्स ने बाद में उनके नाम को रजिस्टर में लिखा था। लेकिन भाजपा आम मतदाताओं को ये समझाने में कामयाब रही कि कांग्रेस सिर्फ दिखावा कर रही है। उनके नेताओं को कभी भी हिंदुओं की भावना से लेनादेना नहीं रहा।

गब्बर सिंह टैक्स का जुमला नाकाम

एक जुलाई 2017 की मध्यरात्रि को पीएम नरेंद्र मोदी ने ऐलान किया कि अब भारत एक देश और एक टैक्स के सुत्र में बंध चुका है। ये बात अलग है कि विपक्षी दल लगातार ये आरोप लगाते रहे कि जीएसटी का फैसला छोटे और बड़े कामगारों की कमर तोड़ने वाला है। गुजरात चुनाव के दौरान राहुल गांधी जगह जगह खासतौर पर ट्रेडिंग सेंटर सूरत में कहते रहे कि ये तो गब्बर सिंह टैक्स है। लेकिन पीएम मोदी समेत भाजपा के कद्दावर नेता कहते रहे कि दरअसल कांग्रेस को नकारात्मक बोल की आदत पड़ चुकी है। नोटबंदी के बाद भी कांग्रेस का यही राग था। लेकिन यूपी समेत दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनाव में जनता ने कांग्रेस और विपक्ष के आरोपों को नकार दिया।


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