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Ayodhya Judgment : 1984 के बाद संघ के एजेंडे में आया अयोध्या, 35 साल में मुकाम तक पहुंचाया

लगभग पांच सौ साल पहले की ऐतिहासिक भूल को सुधारने में यूं तो लंबा वक्त लगा लेकिन सच्चाई यह है कि अयोध्या राममंदिर के निर्माण का आंदोलन महज 35 साल पुराना है।

By Tilak RajEdited By: Published: Sat, 09 Nov 2019 06:53 PM (IST)Updated: Sat, 09 Nov 2019 07:11 PM (IST)
Ayodhya Judgment : 1984 के बाद संघ के एजेंडे में आया अयोध्या, 35 साल में मुकाम तक पहुंचाया
Ayodhya Judgment : 1984 के बाद संघ के एजेंडे में आया अयोध्या, 35 साल में मुकाम तक पहुंचाया

नई दिल्ली, नीलू रंजन। लगभग पांच सौ साल पहले की ऐतिहासिक भूल को सुधारने में यूं तो लंबा वक्त लगा, लेकिन सच्चाई यह है कि अयोध्या राममंदिर के निर्माण का आंदोलन महज 35 साल पुराना है। हकीकत यह है कि 1984 के पहले अयोध्या में राममंदिर का निर्माण भाजपा, विहिप समेत पूरे संघ परिवार के एजेंडे में नहीं था। पहली बार 1983 में कभी मुरादाबाद से कांग्रेस के विधायक रहे दाऊ दयाल खन्ना ने काशी, मथुरा और अयोध्या को मुक्त करने की जरूरत बताई और संघ परिवार ने चंद सालों के भीतर इसे लेकर देशव्यापी आंदोलन खड़ा कर दिया।

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कांग्रेसी विधायक रहे दाऊ दयाल खन्ना ने संघ को संजीवनी

दरअसल, 1925 में अपनी स्थापना के बाद से ही संघ हिंदू पुनर्जागरण के उद्देश्य की कोशिश तो कर रहा था, लेकिन पूरे हिंदू समाज को झकझोरने वाला मुद्दा नहीं मिल पा रहा था। गोरक्षा आंदोलन, भारत माता यात्रा जैसे मुद्दों का सीमित प्रभाव था। ऐसे में मुरादाबाद के कांग्रेसी विधायक रहे दाऊ दयाल खन्ना ने संघ को संजीवनी दे दी। 1983 में मुजफ्फरपुर में आयोजित हिंदुओं के एक सम्मेलन में दाऊ दयाल खन्ना ने अयोध्या, काशी और मथुरा को मुक्त कराने की जरूरत बताई। संयोग से उस सम्मेलन में आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक रज्जू भैया भी मौजूद थे। रज्जू भैया को बात जंच गई और उन्होंने एक साल पहले ही संघ से विहिप में भेजे गए अशोक सिंघल को दाऊ दयाल खन्ना से संपर्क करने को कहा। इसके बाद संघ परिवार ने इस मुद्दे पर बड़े आंदोलन की रूपरेखा तैयार करनी शुरू कर दी।

अयोध्या आंदोलन की बागडोर विहिप के हाथों में सौंपी गई

बारीकी से तैयार अयोध्या आंदोलन की बागडोर विहिप के हाथों में सौंपी गई और 1982 में ही संघ से विहिप में आए अशोक सिंघल इसके शिल्पी बने। 1984 के मार्च में ही देश भर से साधु संतों को दिल्ली के विज्ञान भवन में जुटाकर धर्मसंसद का आयोजन किया गया और राममंदिर आंदोलन पर उनकी सहमति जुटाई गई। शुरू में आंदोलन को सिर्फ ताला खुलवाने तक सीमित रखा गया और उसी साल सात अक्टूबर से एक रामजानकी रथयात्रा भी निकाली गई, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के कारण यात्रा स्थगित करनी पड़ी। लेकिन अगले ही साल अक्टूबर में पूरे उत्तरप्रदेश में छह रामजानकी रथयात्राएं निकाली गईं। संघ को जरा भी अंदाजा नहीं था कि रथयात्राएं निकाले जाने के चंद महीने के भीतर जन्मभूमि का ताला खुल जाएगा। वकील उमेश चंद्र पांडेय ने ताला खुलवाने के लिए फैजाबाद की अदालत का खटखटाया और अदालत के आदेश से एक फरवरी 1986 को ताला खुल भी गया।

ताला खुलने से संघ परिवार और आंदोलन से जुड़े साधु-संतों के हौसले हुए बुलंद

1986 से ही विहिप से जुड़े महासचिव चंपत राय ने साफ किया कि उमेश चंद्र पांडेय का विहिप या संघ परिवार से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन इतनी जल्दी ताला खुलने से संघ परिवार और आंदोलन से जुड़े साधु-संतों के हौसले बुलंद हो गए। इसके तत्काल बाद भव्य राममंदिर के निर्माण की तैयारी भी शुरू हो गई। चंपत राय के अनुसार 1987 में ही मंदिर का नक्शा बनकर तैयार हो गया और सही पत्थर के चुनाव के लिए चार खदानों के पत्थर का नमूना जांच के लिए रूड़की स्थित सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट में भेजा गया, जिसने अपनी रिपोर्ट में राजस्थान के भरतपुर जिले के वंशी पहाड़पुर के गुलाबी सैंड स्टोन को मंदिर के लिए उपयुक्त करार दिया। यही नहीं, इसके बाद पत्थर मंगाकर उन्हें तराशने का काम भी शुरू कर दिया गया। जबकि उस समय तक मंदिर निर्माण की बात दूर-दूर तक कोई सोच भी नहीं सकता था।

लालकृष्ण आडवाणी ने रामजन्मभूमि मंदिर आंदोलन को दी ऊंचाई

रामजन्मभूमि मंदिर आंदोलन के शिल्पकार भले ही अशोक सिंघल रहे हों, लेकिन उसे जन आंदोलन बनाने का काम भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी ने किया। अपनी रथयात्राओं के माध्यम से उन्होंने इसे पूरे देश में राजनीतिक मुद्दा बना दिया। जाहिर है भाजपा को इसका लाभ भी मिला और 1984 में लोकसभा में दो सांसदों की पार्टी 1989 में 89 और 1991 में 120 सीटें जीतने सफल रही।

विवादित ढांचे के टूटने की साजिश की सीबीआइ जांच

1992 में विवादित ढांचे के टूटने की साजिश की जांच सीबीआइ कर चुकी है और मामला अभी भी अदालत में लंबित है। लेकिन संघ इसे रामजन्मभूमि स्थान पर बने बाबरी मस्जिद के खिलाफ जनाक्त्रोश का परिणाम मानता है। आरएसएस के वरिष्ठ नेता मनमोहन वैद्य जोर देकर कहते हैं कि अयोध्या आंदोलन किसी भी रूप में मुस्लिम विरोधी आंदोलन नहीं था और कारसेवकों का गुस्सा सिर्फ बाबरी मस्जिद तक सीमित था। उनके अनुसार गुस्साए भीड़ के बीच भी एक अनुशासन को साफ देखा जा सकता था। यही कारण है कि उस दिन लाखों कारसेवकों की भीड़ ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद को छोड़कर किसी अन्य मस्जिद या मुस्लिम स्थान को हाथ तक नहीं लगाया।

विहिप और आरएसएस की रणनीति

विवादित ढांचे का गिरना भाजपा के लिए भले झटका साबित हुआ हो और उसे चार राज्य सरकारों को गंवाना पड़ गया हो, लेकिन विहिप और आरएसएस आगे की रणनीति की तैयार में जुट गया। 1993 में प्रमुख साधु-संतों के नेतृत्व में रामजन्मभूमि न्यास का गठन कर उसे मंदिर निर्माण की तैयारी की जिम्मेदारी सौंप दी और अदालती लड़ाई की तैयारी में जुट गया। संघ ने यह सुनिश्चित किया कि अदालत में मुकदमा कहीं भी कमजोर नहीं पडऩे पाए। लेकिन साथ ही राममंदिर निर्माण के लिए पत्थरों को तराशने का काम भी चलता रहा। चंपत राय के अनुसार 1989 के बाद उत्तरप्रदेश व राजस्थान में कई सरकारें आईं-गईं, लेकिन मंदिर निर्माण के लिए अयोध्या आने वाले पत्थरों की सप्लाई रोकने की कोशिश किसी ने नहीं की। इस बीच गोलियां भी चलीं, कर्फ्यू भी लगे, लेकिन पत्थरों की सप्लाई में कोई रूकावट नहीं आई। उनके अनुसार 2006 तक आते-आते 60 फीसद पत्थर आ गए और उनकी नक्काशी कराकर रख दिया गया। चंपत राय गर्व के साथ कहते हैं-हमने वो काम 1987-88 में कर लिया, जो सामान्य आदमी सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद शुरू करता।

मजन्मभूमि आंदोलन के दौरान संघ परिवार के भीतर तलवारें भी खिंची

ऐसा नहीं है कि रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान संघ परिवार के भीतर सबकुछ हमेशा सामान्य ही रहा हो। इसको लेकर परिवार के भीतर तलवारें भी खिंची और सार्वजनिक मंचों से एक-दूसरे को भला-बुरा भी कहा गया। खासकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के खिलाफ विहिप ने खुलेआम मोर्चा खोल दिया था। अशोक सिंघल, गिरिराज किशोर से लेकर प्रवीण तोगडिय़ा तक मंदिर निर्माण के लिए कुछ नहीं कर पाने का आरोप लगाते हुए वाजपेयी सरकार को कोस रहे थे। वहीं विवादित ढांचे के गिराये जाने तक राममंदिर के लिए सड़कों पर आंदोलन और रथयात्रा करने वाली भाजपा के सुर बदल गए थे। राममंदिर भाजपा के एजेंडे में जरूर बना रहा, लेकिन विवादित ढांचा ध्वंस के बाद इस मुद्दे पर सड़क पर संघर्ष बंद कर दिया। यही नहीं, रामजन्मभूमि को कभी प्रमुखचुनावी मुद्दा भी नहीं बनाया।

अयोध्या की पंचकोसी व चौदह कोसी परिक्रमा का आयोजन

वहीं विहिप के पुराने तेवर बरकरार रहे। विहिप धर्म संसद और अयोध्या की पंचकोसी व चौदह कोसी परिक्रमा का आयोजन कर राममंदिर के लिए समर्थन जुटाने की कोशिश जारी रही। 2017 के उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के ठीक पहले विहिप ने पंचकोसी परिक्त्रमा का आयोजन कर विहिप ने तत्कालीन अखिलेश सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी करने की कोशिश की थी। इसी तरह इसी साल जनवरी में कुंभ के दौरान धर्भ संसद बुलाकर सरकार पर अदालत के बाहर अध्यादेश के जरिये राममंदिर बनाने का रास्ता साफ करने के लिए दबाव बनाने की कोशिश थी।

मोहन भागवत ने की मंदिर निर्माण का रास्ता साफ करने की मांग की

लेकिन वाजपेयी सरकार से तुलना करें तो विहिप मोदी सरकार के दौरान राम मंदिर मुद्दे पर केंद्र सरकार के खिलाफ आक्रमक नहीं दिखी। चंपत राय वाजपेयी सरकार के खिलाफ बयानबाजी को मतभिन्नता (डिफरेंस आफ ओपिनियन) करार देते हैं। वहीं मोदी सरकार के दौरान विहिप की अपेक्षाकृत चुप्पी पर सफाई देते हुए कहते हैं कि देश के सामने हजारों समस्याओं में प्राथमिकता तय करने का फैसला हुआ, जिसमें मंदिर निर्माण से ऊपर राष्ट्र निर्माण को रखा गया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में हो रही देरी और 2019 के चुनाव नतीजों की आशंका ने संघ परिवार को एक बार फिर विचलित कर दिया और संघ प्रमुख मोहन भागवत ने खुद अध्यादेश जारी कर मंदिर निर्माण का रास्ता साफ करने की मांग की।


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