अटल ने रखी नई कूटनीति की नींव, पाक से मिला धोखा फिर भी पड़ोसी को दिया मौका
अमेरिका को एकमात्र सुपर पावर माना जा रहा था लेकिन चीन के उद्भव की धमक भी सुनाई देने लगी थी।
जयप्रकाश रंजन, नई दिल्ली। मई, 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व जब एनडीए की गठबंधन सरकार बनी तब वह भारत के कूटनीति के लिए बेहद संक्रमण का काल था। दुनिया में शीतकालीन युद्ध की समाप्ति के बाद का समय चल रहा था। अमेरिका को एकमात्र सुपर पावर माना जा रहा था लेकिन चीन के उद्भव की धमक भी सुनाई देने लगी थी।
वैश्वीकरण अपने यौवन पर था और भारत भी उदारीकरण को अपना चुका था। 17 वर्षो से कोई युद्ध नहीं होने के बावजूद भारत व पाकिस्तान के बीच संदेह गहराया हुआ था। पीएम वाजपेयी ने अपने छह वर्ष के कार्यकाल में भारतीय कूटनीति को नई दिशा दी। उनके उठाये गये कदम कितने दूरगामी साबित हुए इसे हम इस बात से समझ सकते हैं कि अमेरिका, चीन, पाकिस्तान, रूस, जापान, आसियान के देशों के साथ रिश्तों की जो दिशा दी, आज 14 वर्षो बाद भी हम उसी रास्ते पर चल रहे हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी की कूटनीति में पाकिस्तान का हमेशा खास स्थान रहा। यह बेहद अनोखी बात है कि वाजपेयी को एक दक्षिणपंथी विचारधारा की पार्टी का नेता माना जाता था लेकिन उनके कार्यकाल में पाकिस्तान के साथ रिश्तों को सुधारने को लेकर जितनी कोशिशें की गई उतनी कोशिश उसके पहले या बाद कभी नहीं की गई। वाजपेयी जब वर्ष 1977 में जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री का पदभार संभाला तो पहली बार पाकिस्तान व भारत के आम आवाम को एक दूसरे के यहां जाने की सहूलियतें दी गई। वर्ष 1998 में प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने अगले ही वर्ष (1999) में लाहौर की बस यात्रा की और मीनार-ए-पाकिस्तान जा कर द्विपक्षीय रिश्तों में द्वेष को समाप्त करने की सबसे बड़ी कोशिश की।
वाजपेयी के कार्यकाल में सबसे अहम कूटनीतिक कदम
1. पोखरण परमाणु विस्फोट
2. लाहौर संयुक्त घोषणा पत्र
3. कारगिल युद्ध में जीत
4. वर्ष 2000 की वाजपेयी-क्लिंटन वार्ता
5. पाकिस्तान के साथ 2001 का आगरा शिखर सम्मेलन
6. वर्ष 2003 की चीन यात्रा
दोस्त बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं
'दोस्त बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं..बहुत हो चुकी दुश्मनी..अब दोस्ती को मौका देना चाहिए।'' लाहौर में वाजपेयी के भाषण के इस मिजाज को पाकिस्तानी हुक्मरान नहीं समझ पाये। पाकिस्तान सेना की तरफ से कुछ ही महीने बाद कारगिल युद्ध की शुरुआत की गई। भारत ने जीत हासिल की। वापजेयी आहत हुए लेकिन उन्होंने पाकिस्तान को फिर मौका दिया। कारगिल युद्ध के साजिशकर्ता व बाद में पाकिस्तान के सीईओ परवेज मुशर्रफ को वार्ता के लिए आगरा बुलाया गया। पहली बार दोनों देशों के बीच कश्मीर विवाद को सुलझाने का एक रोडमैप बना। जाहिर है कि इस पर रजामंदी नहीं हो पाई। पाकिस्तान का रवैया आतंकवाद पर और कठोर हुआ। वाजपेयी ने वर्ष 2004 में कहा कि, ''आतंक और बातचीत साथ साथ नहीं चल सकते।'' उनकी यह बात अभी तक पाकिस्तान को लेकर भारत की आधिकारिक नीति है।
वाजपेयी की सोच हमेशा दूरगामी होने के साथ साहसिक रही
कूटनीतिक मोर्चे पर वाजपेयी की सोच हमेशा दूरगामी होने के साथ साहसिक रही। उनका यह साहस ही था कि पोखरण परमाणु विस्फोट के नौ महीनों बाद वह पाकिस्तान में थे और वहां के सार्वजनिक सभा में यह बता रहे थे कि क्यों यह विस्फोट करना भारत के लिए जरुरी हो गया था। निश्चित तौर पर वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान जिस पहल ने सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरी और जिसका सबसे ज्यादा असर रहा वह पोखरण परमाणु विस्फोट था। इस कदम से उन्होंने भारतीय कूटनीति में यथावाद को भी तिलांजलि दी थी।
अमेरिका, जापान के प्रतिबंध लगे लेकिन वाजपेयी के नेतृत्व में भारत ने दो वर्ष में साबित कर दिया कि वह एक बेहद जिम्मेदार परमाणु संपन्न देश है। अमेरिका भारत के रणनीतिक संबंधों की शुरुआत भी वाजपेयी के कार्यकाल में ही हुई थी। वर्ष 2000 की पीएम वाजपेयी की वाशिंगटन यात्रा को भारत अमेरिका रिश्तों के लिहाज से सबसे बड़ा टर्निग प्वाइंट माना जाता है।
राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की तरफ से दिए गए रात्रि भोज में वाजपेयी ने आह्वान किया कि ''आईये हम संशय के रिश्तों को यही विराम देते हैं क्योंकि हम इतिहास के सही पक्ष में खड़े हैं।'' इसके जवाब में क्लिंटन ने कहा कि, ''भारत व अमेरिका मिल कर दुनिया बदल सकते हैं।'' वाजपेयी व क्लिंटन के बीच पहली बार दोनो देशों के बीच परमाणु करार पर बात हुई थी जिसे वर्ष 2008 में ही परवान चढ़ाया गया। पिछले पखवाड़े अमेरिका ने भारत को नाटो देशों की तरह तकनीकी हस्तांतरण करने का फैसला किया है, इसे वाजपेयी-क्लिंटन के दौरान शुरु की गई प्रक्रिया के परिणाम के तौर पर देखा जा सकता है।
चीन के साथ भी आधुनिक रिश्तों की नींव रखी
अमेरिका की तरह वाजपेयी ने सबसे बड़े पड़ोसी देश चीन के साथ भी आधुनिक रिश्तों की नींव रखी। वैसे पूर्व पीएम राजीव गांधी ने चीन की यात्रा की थी लेकिन वर्ष 2003 में वाजपेयी की बीजिंग यात्रा ने अभी जो रिश्ता है उसकी शुरुआत की। वाजपेयी ने अपने पूर्ववती नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल में शुरु की गई लुक ईस्ट नीति को और हवा दी और इन देशों के साथ आर्थिक समझौतों का आगाज किया गया।
वाजपेयी की कूटनीतिक दक्षता का लोहा विपक्ष और विदेशी नेता भी मानते थे। तभी वर्ष 1994 में संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर पर एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव में भारत की तरफ से बात रखने के लिए पूर्व पीएम नरसिंह राव ने अपने विदेश राज्य मंत्री सलमान खुर्शीद के साथ वाजपेयी को भेजा गया।
पाकिस्तान की जबरदस्त लाबिंग के बावजूद भारत को जीत हासिल हुई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि का पता अमेरिका के पूर्व उप-राष्ट्रपति अल गोर के इन शब्दों से होती है, ''आज की दुनिया में आर्दशवाद, व्यावहारिकता, आत्मविश्वास और विनम्रता से परिपूर्ण नेताओं का सर्वदा अभाव है लेकिन प्रधानमंत्री जी, हम आपमें इन सभी गुणों को देखते हैं।'' यह भाषण गोर ने पीएम वाजपेयी के स्वागत में बुलाये गये भोज में दिया था।