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Arun Jaitley: यूं ही कोई जेटली नहीं बन जाता, 'मोदी है तो मुमकिन है' का दिया था नारा

Arun Jaitley Passes Away कानून की पढ़ाई ने उन्हें तार्किक बनाया और सामाजिक सरोकारों ने उन पर आम लोगों व कार्यकर्ताओं का भरोसा मजबूत किया। दूसरे दलों से भी उनका तालमेल बेहतरीन था।

By Amit SinghEdited By: Published: Sat, 24 Aug 2019 06:21 PM (IST)Updated: Sun, 25 Aug 2019 09:08 AM (IST)
Arun Jaitley: यूं ही कोई जेटली नहीं  बन जाता, 'मोदी है तो मुमकिन है' का दिया था नारा
Arun Jaitley: यूं ही कोई जेटली नहीं बन जाता, 'मोदी है तो मुमकिन है' का दिया था नारा

नई दिल्ली [आशुतोष झा]। अरुण जेटली यानी वर्षों तक भाजपा के संकटमोचक रहने वाले कुशल रणनीतिकार...। ऐसे नेता जिसे भाजपा और दूसरे दलों के बीच का सेतु माना जाता रहा हो। एक ऐसे नेता जिनके तर्क और युक्ति पर हर किसी को भरोसा हो। एक ऐसे नेता जो हास्य व्यंग्य के जरिये भी बहुत कुछ संदेश देते हों और सबसे बड़ी बात, एक ऐसे नेता जिनकी छांव में कार्यकर्ता आश्वस्त हों।

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अरुण जेटली के निधन के साथ भाजपा के करोड़ों कार्यकर्ताओं के लिए वह छांव खत्म हो गई है। इसके साथ ही एक सेतु भी टूट गया है। छात्र राजनीति से आकर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व तक पहुंचे जेटली अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में सरकार में आए तो सूचना प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई थी। दरअसल, उनकी सबसे बड़ी खूबी थी संवाद। कानून की पढ़ाई ने उन्हें तार्किक तो बनाया ही था, सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहने के कारण उनका संवाद सामने वाले व्यक्ति को भरोसा दिलाता था। अपनी क्षमता के कारण उन्होंने कानून, वाणिज्य, वित्त जैसे बड़े मंत्रालयों को बखूबी चलाया था। जीएसटी जैसे बड़े सुधार भी उनके ही काल में हुए थे।

2019 लोकसभा चुनाव में प्रचार अभियान की जिम्मेदारी संभाली
भाजपा के लिहाज से देखा जाए तो उनकी भूमिका संगठन में बहुत बड़ी थी। वह कभी चुनावी अखाड़े के विजेता नहीं रहे। सिर्फ एक बार लोकसभा चुनाव लड़े, लेकिन बाजी नहीं मार पाए। लगातार राज्यसभा में आते रहे, लेकिन चुनावी बिसात पर रणनीति खूब जमाते थे। वह अरसे तक गुजरात के प्रभारी रहे। चुनावी जीत दिलाने का रिकॉर्ड कुछ ऐसा रहा कि एक बार जब दिल्ली में चुनाव होने थे तो भाजपा के तत्कालीन मुख्यमंत्री दावेदार उनसे सिर्फ यह आग्रह करने पहुंचे थे कि दिल्ली का प्रभार वही ले लें, ताकि जीत सुनिश्चित हो सके। 2019 लोकसभा चुनाव में भी प्रचार अभियान की जिम्मेदारी जेटली को ही सौंपी गई थी।

‘मोदी है तो मुमकिन है’ का दिया था नारा
‘मोदी है तो मुमकिन है’ जैसे नारे भी उनकी कमेटी ने ही दिए थे। बिहार में भाजपा के विकास और जदयू के साथ तालमेल में उनकी अहम भूमिका रही। फिलहाल यह कहा जा सकता है कि जेटली के बाद पार्टी में ऐसा कोई नेता नहीं बचा है, जिसका अधिकतर दलों के नेताओं के साथ वह तालमेल रहा हो जितना जेटली के साथ था। दरअसल, वह मध्यम मार्ग के समर्थक थे। भाजपा की विचारधारा के प्रति संकल्प के बावजूद उनका उदारवादी चेहरा सामंजस्य बनाने में मदद करता था। संसद में अपनी प्रखरता के कारण वह विरोधी दलों को कठघरे में खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे, लेकिन जब व्यक्तिगत दोस्ती की बात आती थी, तब वह उनके साथ खड़े दिखते थे। वाजपेयी काल से लेकर मोदी काल तक के दो दशक में एक दशक तो संघर्ष में बीता। वह काल भाजपा के लिए कठिन था, लेकिन दूसरे नेताओं के साथ-साथ अरुण जेटली की प्रखरता ने भाजपा कार्यकर्ताओं में निराशा नहीं आने दी थी।

सबको साथ लेकर चलने वाले नेता
कार्यकर्ताओं और दूसरी व तीसरी पंक्ति में खड़े नेताओं के लिए भी जेटली का महत्व कुछ ऐसा ही था। वह सबको साथ लेकर चलने वालों नेताओं में शुमार थे। या फिर कहा जा सकता है कि उनकी शख्सियत कुछ ऐसी थी कि अधिकतर लोग उनके साथ जुड़कर रहना चाहते थे। उनमें सामने वाले की खासियत पहचानने की अद्भुत क्षमता थी। अगर थोड़ी भी प्रतिभा दिखी तो वह मानो खुद ही उसे आगे बढ़ाने का जिम्मा उठा लेते थे। यही कारण है कि उनकी टीम में अक्सर नए युवा चेहरे दिखते थे। इंसानियत का जज्बा कुछ ऐसा था कि उनके साथ काम करने वालों ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनकी लॉ फर्म में काम करने वाले हों या फिर उनके निजी सहायक, सबकी चिंता जेटली की होती थी। व्यक्तिवादी आपाधापी में उनके इस गुण ने उन्हें दूसरों से अलग खड़ा कर दिया।

मीडिया के डार्लिंग थे
आज के दिनों में जब राजनीति से हास्य व्यंग्य खत्म होता जा रहा है, जेटली के जीवन में आखिर तक यह रचा बसा रहा। ऐसा शायद ही होता था कि उनके कमरे में पत्रकारों, नेताओं आदि की भीड़ न हो और ठहाके न गूंज रहे हों। इन्हीं ठहाकों के बीच संकेतों में वह बहुत कुछ संदेश भी दे जाते थे। छोटे-छोटे पल में जीवन का आनंद लेना उन्हें अच्छी तरह आता था और इसीलिए उनके मित्रों का कोई खास वर्ग नहीं था। देश-विदेश के विद्वानों से लेकर चांदनी चौक में मिठाई व छोले-भठूरे बनाने वालों तक से उनकी खूब पटती थी। मीडिया के वह डार्लिंग थे और प्रखर बौद्धिक प्रतिभा के कारण हर घटना के कई पहलू को देखने और समझाने की क्षमता रखते थे। हर क्षेत्र में हस्तक्षेप रखने वाला राजनीति का एक बड़ा खिलाड़ी चला गया।

लंबा रहा वकालत का तजुर्बा
अरुण जेटली ने 1977 में वकालत की शुरुआत की। सुप्रीम कोर्ट से लेकर देश के विभिन्न हाई कोर्ट में वकालत की। 1990 में एक वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित किए गए। 1989 में वीपी सिंह सरकार में अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल नियुक्त हुए। बोफोर्स घोटाले की सुनवाई के लिए कागजी कार्रवाई की। लालकृष्ण अडवाणी, शरद यादव और माधवराव सिंधिया जैसे बड़े नेताओं के वकील रहे। कानून और करंट अफेयर्स पर कई लेख लिखे। उन्होंने भारत ब्रिटिश कानूनी फोरम के समक्ष भारत में भ्रष्टाचार और अपराध से संबंधित कानून पर एक पेपर प्रस्तुत किया था। जून, 1998 में संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र में भारत सरकार के प्रतिनिधि रहे, जहां ड्रग्स और मनी लॉन्ड्रिंग से संबंधित कानूनों को मंजूरी दी गई।

मंत्री रहकर भी लड़ा केस
कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्री होने के बाद जेटली ने 2002 में एक ऐसे मामले में पेप्सी का प्रतिनिधित्व किया, जहां भारत के सुप्रीम कोर्ट ने मनाली-रोहतांग सड़क के किनारे पारिस्थितिक रूप से नाजुक चट्टानों पर पेंटिंग विज्ञापनों के लिए आठ कंपनियों पर कठोर जुर्माना लगाया। कंपनियों को कारण बताओ नोटिस भी जारी किए गए थे कि क्यों पर्यावरणीय बर्बरता में लिप्त होने के लिए उन पर अनुकरणीय हर्जाना नहीं लगाया जाना चाहिए। 2004 में जेटली राजस्थान हाई कोर्ट में कोका कोला कंपनी के वकील के रूप में पेश हुए।


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