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गांधी परिवार के शीर्ष नेतृत्व और नेताओं-कार्यकर्ताओं के बीच की अंतिम कड़ी थे अहमद पटेल, जानिए उनके राजनीतिक सफर के बारे में

सियासत की दुनिया में अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को किनारे रखते हुए पार्टी के हित को सर्वोपरि रखने वाले अहमद पटेल निर्विवाद रूप से बीते दो दशक से कांगेस के चाणक्य थे। सहज हंसमुख और मिलनसार व्यक्तित्व के साथ अद्भुत राजनीतिक कौशल उनकी इस भूमिका की सबसे बड़ी ताकत थी।

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Wed, 25 Nov 2020 10:02 PM (IST)Updated: Wed, 25 Nov 2020 10:48 PM (IST)
गांधी परिवार के शीर्ष नेतृत्व और नेताओं-कार्यकर्ताओं के बीच की अंतिम कड़ी थे अहमद पटेल, जानिए उनके राजनीतिक सफर के बारे में
कांग्रेस अध्‍यक्ष सोनिया गांधी और अहमद पटेल की फाइल फोटो।

 संजय मिश्र, नई दिल्ली। गहरे संकटों से रूबरू हो रही कांग्रेस के लिए बुधवार सुबह पौ फटते ही अहमद पटेल के निधन की आयी खबर किसी वज्रपात से कम नहीं रही। वज्रपात इसलिए कि आज कांग्रेस जिस नाजुक दौर में खड़ी है, वहां से बाहर निकालने के लिए पार्टी का हर छोटा-बड़ा नेता ही नहीं कार्यकर्ता भी अहमद पटेल को ही एकमात्र उम्मीद की कड़ी मानता था। अहमद पटेल के अवसान के साथ ही कांगेस में शिखर नेतृत्व और नेताओं-कार्यकर्ताओं के बीच की आखिरी कड़ी भी टूट गई है। तो कांग्रेस पार्टी ने अपने संस्थागत ढांचे का सबसे बड़ा स्तंभ खो दिया है।

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कांग्रेस में जुड़ाव की टूट गई आखिरी कड़ी

सियासत की दुनिया में अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को किनारे रखते हुए पार्टी के हित को सर्वोपरि रखने वाले अहमद पटेल निर्विवाद रूप से बीते दो दशक से कांगेस के चाणक्य थे। सहज, हंसमुख और मिलनसार व्यक्तित्व के साथ अद्भुत राजनीतिक कौशल उनकी इस भूमिका की सबसे बड़ी ताकत थी। कांग्रेस के कोषाध्यक्ष की दूसरी बार भूमिका निभा रहे अहमद पटेल के अचानक अवसान से पार्टी के सामने दो सबसे बड़ी तात्कालिक चुनौती खड़ी हो गई है। पहली बड़ी चुनौती यह है कि कांग्रेस के 23 नेताओं के समूह की ओर से उठाए जा रहे अंदरूनी विद्रोह को थामने वाला उनके अलावा केाई दूसरा शख्स नहीं है। बिहार की हार के बाद शुरू हुए घमासान के बाद पार्टी नेतृत्व ही नहीं, असंतुष्ट नेता भी यह उम्मीद कर रहे थे कि पटेल इस नाजुक संकट का भी कोई न कोई हल निकाल पार्टी को फूट से बचा लेंगे। वहीं दूसरी बड़ी चुनौती यह है कि पार्टी में उनके जैसा राजनीतिक और वित्तीय कनेक्शन के साथ प्रभाव रखने वाला दूसरा चेहरा आस-पास भी नहीं है। कांग्रेस के अंदर यह मानने से शायद ही कोई इनकार करेगा उनकी शख्सियत में पार्टी का पॉलिटिकल, कारपोरेट और सामाजिक कनेक्शन सबकुछ संस्थागत रुप से समाहित था। 

 

'अब कांग्रेस को दूसरा अहमद पटेल नहीं मिलेगा' 

वरिष्ठ कांग्रेस नेता जर्नादन द्विवेदी के इन शब्दों की गहराई उनकी संस्थागत शख्सियत को सहज ही रेखांकित करती हैं। गुजरात के भरूच जिले के तालुका पंचायत से राजनीति शुरू कर गांधी परिवार के बाद कांग्रेस के सबसे ताकतवर नेता के अपने सफर के दौरान अहमद पटेल ने पार्टी के बीते 45 साल के उतार-चढाव के सभी दौर देखे। तीन बार लोकसभा और पांच बार लगातार राज्यसभा सांसद रहे अहमद पटेल के अहमद भाई बनने का उनका सफर 1998 में सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के साथ शुरू हुआ। तब पटेल पार्टी के कोषाध्यक्ष के रुप में प्रभावशाली थे और सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाने में उनकी अग्रणी भूमिका रही। राजनीति में पर्दापण करने वाली सोनिया ने तब अहमद पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष का राजनीतिक सलाहकार नियुक्त किया। 

 शरद पवार की पार्टी से गठबंधन के लिए राजी किया

यह कांग्रेस के संक्रमण का दौर था और शरद पवार जैसे नेता ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर 1999 में पार्टी में विद्रोह कर अलग पार्टी बना ली। एनडीए की 13 महीने पुरानी वाजपेयी सरकार गिरने के बाद कांग्रेस तीन चुनाव हार गई थी और कई नेता पार्टी छोड़ने लगे थे। जितेंद्र प्रसाद, राजेश पायलट जैसे दिग्गज नेतृत्व को चुनौती दे रहे थे। इस दौर में अहमद पटेल ने पार्टी के सभी नेताओं को जोड़ने और हाईकमान के बीच सेतु बनने की सबसे अहम भूमिका निभाई। यह अहमद पटेल ही थे कि कांग्रेस से अलग होने के छह महीने बाद ही महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए शरद पवार की पार्टी से 1999 में गठबंधन के लिए राजी किया और कांग्रेस-एनसीपी का यह गठबंधन आज भी अटूट है। 

शिवसेना से गठबंधन के लिए पटेल ने सोनिया गांधी को राजी किया 

यह भी कम दिलचस्प नहीं कि आज जब कांग्रेस का राजनीतिक फलक बेहद सीमित हो गया है तब इसी महाराष्ट्र में शिवसेना जैसे विपरीत विचाराधारा वाले दल के साथ सरकार बनाने के लिए एके एंटनी जैसे दिग्गज नेता के विरोध के बावजूद पटेल ने ही सोनिया गांधी को राजी कर लिया।राजनीतिक सलाहकार के रुप में पटेल की ताकत 2004 के यूपीए वन के सत्ता में आने के बाद कहीं ज्यादा बढ़ गई। सरकार में बनाए जाने वाले मंत्रियों से लेकर अहम राजनीतिक फैसलों के रास्ते अहमद पटेल से होकर ही जाते थे। उनकी सबसे बड़ी खूबी थी कि वे तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं की बात सुनते थे और हर देर सबेर समाधान का भरोसा देते थे। 

मौजूदा दौर में ऐसे बहुत विरले ही बचे

मौजूदा दौर में ऐसे बहुत विरले ही बचे हरियाणा कांग्रेस की अध्यक्ष वरिष्ठ नेता कुमारी शैलजा कहती हैं कि किसी नेता या कार्यकर्ता को अगर मौका नहीं मिल पाता था तो पटेल उसे मिल या फोन कर खुद सॉरी कहते थे और अगली बार का भरोसा देते थे। वे कहती हैं कि ऐसी शख्सियत राजनीति के मौजूदा दौर में बहुत विरले ही बचे हैं। गठबंधन राजनीति के दौर में तमाम दूसरे दलों के नेताओं के लिए अहमद पटेल से ज्यादा सुलझा हुआ कांग्रेसी नेता शायद कोई दूसरा नहीं था। गरम मिजाज की ममता बनर्जी और जयललिता से लेकर करुणानिधि, मायावती, लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, हरकिशन सुरजीत, सीताराम येचुरी ही नहीं मौजूदा समय में तेजस्वी यादव, हेमंत सोरेन शायद ही कोई नेता हो, जिसने अहमद पटेल के आग्रह या प्रस्ताव को नकारा हो।

  2008 में अमर सिंह को समर्थन के लिए किया तैयार 

2008 में अमेरिका से हुए परमाणु समझौते के मुद्दे पर वामदलों के समर्थन वापस लेने के बाद यूपीए वन सरकार गिरने की नौबत आ गई थी, तब पटेल ने ही अमर सिंह के जरिए रातोरात समाजवादी पार्टी का समर्थन हासिल कर पांसा पलट दिया था। पार्टी की हर चुनौती के वक्त अहमद पटेल ने अपने राजनीतिक कौशल की जबरदस्त क्षमता दिखाई। तभी कांग्रेस के हर मर्ज की दवा अहमद पटेल के पास होने की दिग्विजय सिंह की बात उनकी इसी काबिलियत को जाहिर करती है। केवल 27 वर्ष की उम्र में 1977 में लोकसभा चुनाव जीतकर केंद्र की राजनीति में आए अहमद पटेल की अपने लिए पद की लालसा कभी नहीं दिखी। दस साल के यूपीए शासन में उन्होंने कांग्रेस और सोनिया गांधी के साथ वफादारी को ही सर्वोच्च रखा। इसीलिए पर्दे के पीछे लो-प्रोफाइल रहकर अपने व्यवहार से कभी यह जाहिर नहीं होने दिया कि वे कांग्रेस के दूसरे सबसे ताकतवर नेता हैं। जबकि पार्टी के वे इकलौते नेता थे, जिनका कार्यालय दस जनपथ के अंदर भी था। 

कांग्रेस से कभी अलग नहीं हुए अहमद पटेल 

सोनिया भी उन पर अगाध भरोसा करतीं थी। इसीलिए यह माना जाता है कि कांग्रेस के इतिहास में सबसे लंबे समय तक सोनिया गांधी पार्टी अध्यक्ष बनीं रहीं तो इसमें पटेल की सबसे अहम भूमिका रही। तभी कांग्रेस और नेतृत्व के प्रति उनकी निष्ठा को सोनिया और राहुल गांधी ने अपने श्रद्धांजलि के शब्दों में जाहिर करने से गुरेज नहीं किया। राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद 1985 में अरुण सिंह, अहमद पटेल और आस्कर फर्नाडीस को अपने संसदीय सचिव के रुप में नियुक्त किया था। इसके बाद तमाम दिग्गजों के रहते सबसे कम उम्र में पटेल को तब गुजरात कांग्रेस का अध्यक्ष भी बनाया गया। नरसिंह राव के दौर में अर्जुन सिंह और एनडी तिवारी जैसे दिग्गजों ने सोनिया गांधी से सहानुभूति जताते हुए पार्टी तोड़ी, तब भी पटेल कांग्रेस से अलग नहीं हुए। 

चुनौतियों का डटकर किया सामना

पार्टी के प्रति वफादारी के चलते ही सीताराम केसरी ने उन्हें अध्यक्ष बनने के बाद कोषाध्यक्ष का अपना उत्तराधिकार सौंपा था। केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद अहमद पटेल को बीते कुछ सालों से सीबीआई और इडी की जांच व छापेमारी से लेकर पूछताछ की चुनौतियों का सामना करना पड़ा। 2017 के राज्यसभा चुनाव में उनके लिए निजी तौर पर सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती भी आयी, जब कांग्रेस के छह विधायक टूट कर बाहर चले गए। लेकिन एक वोट के अंतर से पटेल ने इस जंग में बाजी जीत कर अपनी सियासत को मुश्किल से बाहर निकाला। इस सियासी जीत का उनका जोश 2018 में राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद कुछ कम पड़ गया। राहुल के साथ उनके राजनीतिक रिश्ते बहुत गहरे नहीं थे। हालांकि वित्तीय संसाधनों की चुनौती से जूझ रही कांग्रेस को 2019 के लोकसभा चुनाव में ले जाने के लिए राहुल को भी कोषाध्यक्ष के रूप में अहमद पटेल का विकल्प ही चुनना पड़ा। 

कौन संभालेगा कांग्रेस की नैया 

पिछले साल राहुल के इस्तीफे के बाद सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाकर संकट का तत्काल समाधान निकालने से लेकर पत्र विवाद से उठे ताजा तूफान को शांत करने का श्रेय केवल उनको ही जाता है। उनके असमय निधन के साथ ही कांग्रेस की हालत एक गहरे समदर के उस नाव की तरह नजर आ रही है जिसे डगमगाने पर कौन संभालेगा यह नजर नहीं आ रहा है। कपिल सिब्बल के ये शब्द इस लिहाज से मुफीद हैं कि 'कांग्रेस का वह ध्रुवतारा चला गया जिसने लंबे समय तक पार्टी को राह दिखाई।'


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