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आज 47वां विजय दिवस: 1971 में भारत ने पाकिस्तान को दी थी करारी शिकस्त

वीरचक्र से सम्मानित रिटायर्ड एयर चीफ मार्शल आदित्य विक्रम पेठिया के लिए आज भी फ्लाइंग पहला प्यार है।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Sat, 15 Dec 2018 07:15 PM (IST)Updated: Sun, 16 Dec 2018 12:07 AM (IST)
आज 47वां विजय दिवस: 1971 में भारत ने पाकिस्तान को दी थी करारी शिकस्त
आज 47वां विजय दिवस: 1971 में भारत ने पाकिस्तान को दी थी करारी शिकस्त

जेएनएन, नई दिल्ली। भारत आज 47वां विजय दिवस मनाने जा रहा है। पाकिस्तान के खिलाफ 1971 का युद्ध महज 14 दिनों में हमने आज ही के दिन जीता था। इस युद्ध ने भूगोल और इतिहास को नए सिरे से गढ़ डाला। 1965 के युद्ध में पाकिस्तान को चित कर देने के बाद भारतीय योद्धाओं ने उसकी टेढ़ी पूंछ को काफी हद तक सीधा कर दिखाया था। प्रस्तुत है, उस ऐतिहासिक जीत की कहानी खुद विजेताओं की जुबानी।

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नियाजी के अहंकार को हमने नेस्तनाबूद कर दिया..

1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में बतौर सेकेंड लेफ्टिनेंट भाग लेने वाले रिटायर्ड मेजर जनरल गगन दीप बख्शी बताते हैं, हमने मात्र 14 दिन में पाकिस्तान के 93 हजार सैनिकों को आत्मसमर्पण के लिए ही मजबूर कर दिया था। 1965 के भारत-पाक युद्ध में मेरे बड़े भाई कैप्टन एसआर बख्शी शहीद हुए थे। भाई की शहादत के बाद मैंने राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) की परीक्षा पास की और सेना में बतौर कमीशन प्राप्त अधिकारी भर्ती हुआ। 1971 के दिसंबर माह में मेरे बैच को पास आउट होना था, लेकिन देश पर खतरा देख बैच को नवंबर में ही पास आउट कर दिया गया। पासिंग आउट परेड के तुरंत बाद ही मुझे युद्ध के लिए भेज दिया गया। यह मेरे लिए विशेष अनुभूति वाला क्षण था।

शौर्यगाथा सुनाते हुए देशप्रेम के असीम जज्बे से भर उठते हैं महायोद्धा

कई नदियां और नाले पार करके हमने सेना के साथ काफी दूर तक पैदल ही सफर तय किया। मेरे साथ मेरे कई बैचमेट भी थे। हम पूर्वी सीमा तक पहुंचे। उधर से पाकिस्तानी टैंक गोले बरसा रहे थे। इधर भारतीय सेना मुस्तैद थी। मेरे बैचमेट अरुण खेत्रपाल ने पाकिस्तान के तीन टैंकों को ध्वस्त कर दिया और वीरगति को प्राप्त हुए। हमारा हर सैनिक इसी जज्बे से लड़ा। 1971 का युद्ध सैन्य इतिहास की सबसे शानदार विजय थी। पाकिस्तानी सेना के जनरल नियाजी के अहंकार को हमने नेस्तनाबूद कर दिया था। जनरल नियाजी कहता था की एक-एक पाकिस्तानी सैनिक एक-एक हजार भारतीय सैनिकों के बराबर है।

दुश्मन के चार युद्धपोतों और रिफायनरी को किया था नष्ट..

रिटायर्ड नौसेना अधिकारी (सी मैन) बद्री लाल पटेल बताते हैं, 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध का वो मंजर आज भी मेरे जेहन में जिंदा है। उस समय भारतीय नौसेना ने ऑपरेशन डी डैन्स को अंजाम दिया था। मैं आइएनएस कच्छल में था और मेरे पास जहाज के संचालन की जिम्मेदारी थी। हमारे जहाज में करीब 250 ऑफिसर व सेलर थे। जहाज के आगे तीन मिसाइल बोट आइएनएस निपत, आइएनएस निरघट और आइएनएस वीर चल रही थीं, जिसमें करीब 35-35 ऑफिसर व सेलर थे।

इतिहास रच देने वाली शानदार जीत की कहानी खुद विजेताओं की जुबानी

तीन दिसंबर को हम लोग रात करीब 11 बजे गुजरात के ओखा बंदगाह से रवाना हुए। 4 दिसंबर की अल सुबह हम कराची पोर्ट से करीब 25 किलोमीटर दूर पहुंचे। हमारे जहाज के साथ एक अन्य जहाज आइएनएस क्लिंटान भी था। ये दोनों जहाज मिसाइल बोट को कवर करके चल रहे थे।

हमारे जहाज ने रडार के माध्यम से कराची के पोर्ट पर खड़े पर पांच-छह जहाज को टारगेट किया। इसके बाद आइएनएस निरघट के मिसाइल बोट से सुबह 3 बजे दो फायर किए। इसमें से एक मिसाइल ने पाकिस्तान के युद्धपोत खैबर को नष्ट कर दिया और दूसरी मिसाइल ने पाकिस्तान के गोला बारूद से भरा व्यापारिक जहाज को। इसके बाद आइएनएस निपत के मिसाइल बोट ने दो फायर किए, जिससे पाकिस्तान के दो अहम वारशिप नष्ट हो गए।

आइएनएस वीर ने एक और पाकिस्तानी युद्धपोत को नष्ट कर दिया साथ ही कराची पोर्ट पर बनी ऑयल रिफाइनरी भी नष्ट हो गई। इस हमले से रिफाइनरी में आग लगी और उसकी लपटे काफी दूर से भी दिखाई देने लगी। हमने मिसाइल बोट से जो फायर किए उससे पूरी दुनिया को यह लगा कि भारत ने एयरक्राफ्ट से पाकिस्तानी युद्धपोतों को ढेर किया है। इस पूरे मिशन को आधे घंटे में अंजाम देकर हम वापस लौट आए।

रिटायर्ड एयर मार्शल हरीश मसंद बताते हैं, 5 दिसंबर को शाम 7 बजे हम पोरबंदर बंदरागह के आसपास थे, तभी हमें सूचना मिली कि भारतीय जहाज आइएनएस खुखरी को दुश्मन देश की सबमरीन ने अरब सागर में डुबो दिया है और उसमें मौजूद जवान व ऑफिसर्स को बचाना है। हम लोग निकल पड़े। 6 दिसंबर की सुबह सूचना मिली समुद्र में कुछ बोट दिखाई दे रहे हैं। हमने एक बोट पर सवार 35 ऑफिसर व सेलर्स को रेस्क्यू किया।

पाक सीमा में घुसकर नष्ट किए थे टैंक और गोला बारूद..

वीरचक्र से सम्मानित रिटायर्ड एयर चीफ मार्शल आदित्य विक्रम पेठिया के लिए आज भी फ्लाइंग पहला प्यार है। कहते हैं, 1971 के युद्ध में जब चारों तरफ जमकर गोलाबारी हो रही थी तब मैं पश्चिमी सेक्टर में बतौर फ्लाइट लेफ्टिनेंट बॉम्बर स्क्वाड्रन में तैनात था। 5 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान के चिश्तियां मंडी इलाके में दुश्मन के टैंकों को नेस्तनाबूत करने का आदेश मिला। इसी दौरान जानकारी मिली कि बहावलपुर से टैंकों को लेकर ट्रेन गुजर रही है। इसी इलाके में गोला-बारूद का डिपो भी था। बस फिर क्या था.. मैंने तुरंत टारगेट किया और सीमा पर हमले तेज करने के लिए टैंकों की खेप ला रही ट्रेन के साथ गोला बारूद के डिपो को भी उड़ा दिया।

हमारे लड़ाकू विमानों को निशाना बना रही पाक की एंटीएयरक्राफ्ट गन को ध्वस्त करने के लिए मैंने एक बार फिर नीची उड़ान भरी, लेकिन मैं निशाना साध पाता इससे पहले ही पाक की एंटी एयरक्त्राफ्ट गन ने मेरे फाइटर प्लेन को हिट कर दिया। जलते विमान से मैं पैराशूट की मदद से कूदा। उतरने के बाद पता चला कि मैं तो पाक की सीमा में हूं।

पाक सैनिकों ने मुझे युद्धबंदी बना लिया, लेकिन आज 47 साल बाद भी दिल में एक टीस है कि काश जब मेरे फाइटर प्लेन में आग लगी थी और वह गिर रहा था, तब मुझे पैराशूट इजेक्ट न करके जलते हुए विमान के साथ टारगेट को ध्वस्त कर देना चाहिए था। शहीद होने के साथ ही अपने मकसद में सफल हो सकता था।

इन दो दोस्तों के लिए 17 दिसंबर को भी जारी थी जंग..

मध्यप्रदेश के मुरैना जिले के तरसमा गांव को फौजियों का गांव कहते हैं। यहां रहने वाले दो दोस्तों ने 1971 की लड़ाई में पश्चिमी फ्रंट पर बाड़मेर बार्डर पर दुश्मन देश से लोहा लिया था। युद्ध शुरू होने से 15 दिन पहले ही यदुवीर सिंह तोमर और उनके ही गांव के नेवर सिंह अपनी यूनिट के साथ बाड़मेर बार्डर पर आ गए थे। बताते हैं, 3 दिसंबर को शाम करीब 6 से 7 बजे के बीच पाकिस्तान के लड़ाकू विमानों ने हमारे बंकर की रोशनी देखकर बम बारी कर दी। हम अपनी प्लाटून के साथ आगे बढ़ते रहे और सुबह होने के कारण सुरक्षित जगह पर रुक गए। यदुवीर बताते हैं, फिर शाम हुई और मैं जिस ऊंट पर एमएमजी गन के साथ तैनात था, अचानक उसे गोली लगी। ऊंट की आवाज से दुश्मन हमारी प्लाटून की लोकेशन पहचान गए और फायरिंग शुरू कर दी। हमारे 20 जवान जख्मी हुए।

नेवर बताते हैं, इसके हमने बचे हुए साथियों के साथ मोर्चा संभाला और दुश्मन को भागने पर विवश कर दिया। तब तक सुबह हो चुकी थी। यह सुबह थी 17 दिसंबर की। दुश्मन हथियार और वाहन आदि छोड़कर जा चुका था।

यदुवीर सिंह बताते हैं, हमें कर्नल एसआर बहुगुणा कमांड कर रहे थे, लेकिन 17 दिसंबर को यूनिट को पता नहीं चल सका था कि 16 दिसंबर को लड़ाई बंद करने का हुक्म हो चुका है। ऐसे में सुबह होते ही यूनिट फिर से पाकिस्तान की तरफ बढ़ने लगी और हम पाकिस्तान के गदरा जिले में पहुंच गए। आमने सामने गोलियां चलीं। आखिर में पाकिस्तान के सैनिकों ने सफेद झंडा दिखाया।

[ संकलन: क्रमश:, गुरुग्राम से महावीर यादव, इंदौर से उदयप्रताप सिंह, भोपाल से सुदेश गौड़ और मुरैना से शिवप्रताप सिंह जादौन ]।


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