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सरकार का रिपोर्ट कार्ड : इन मुद्दों पर पिछड़ गई मोदी सरकार, करना होगा अभी और काम

इन चार वर्षों में सरकार ने विभिन्‍न मोर्चों पर काफी काम किया लेकिन कुछ मुद्दों पर वह उतना नहीं कर पाई जितना करना चाहती थी।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 25 May 2018 08:42 PM (IST)Updated: Sat, 26 May 2018 05:34 PM (IST)
सरकार का रिपोर्ट कार्ड : इन मुद्दों पर पिछड़ गई मोदी सरकार, करना होगा अभी और काम
सरकार का रिपोर्ट कार्ड : इन मुद्दों पर पिछड़ गई मोदी सरकार, करना होगा अभी और काम

नई दिल्‍ली [स्‍पेशल डेस्‍क]। पीएम मोदी के नेतृत्व में बनी केंद्र की सरकार ने सफलतापूर्वक चार वर्ष पूरे कर लिए है। निश्चित तौर पर पार्टी से लेकर सरकार तक के लिए बेहद गर्व का विषय है कि इन चार वर्षों के दौरान सरकार पूरी तरह से बेदाग रही और इस दौरान विभिन्‍न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में एक के बाद एक जीत भी हासिल करती रही। यही वजह है कि आज उसकी करीब 21 राज्‍यों में सरकार है। इस दौरान भाजपा पूरे देश में अपनी एक नई पहचान बना पाने में कामयाब रही है। इन चार वर्षों में सरकार ने विभिन्‍न मोर्चों पर काफी काम किया लेकिन कुछ मुद्दों पर वह उतना नहीं कर पाई जितना वह करना चाहती थी। आने वाले समय में सरकार को इन मुद्दों पर और तेजी से काम करना होगा। दैनिक जागरण ने सरकार के उन कामों को अंक दिए हैं जिनमें वह पूरी तरह से सफल नहीं हो सकी और उन पर अभी और काम करने की जरूरत है।

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कृषि और किसान: फसल लहलहाई, खुशहाली नहीं आई
रेटिंग : 6/10

घाटे के घुन से कृषि क्षेत्र को निजात दिलाने के उपाय किये गये। कृषि क्षेत्र को पहली बार व्यापकता में देखा गया। समस्याओं को समझा गया। कृषि को लाभ का कारोबार बनाने के लिए लागत को घटाने और उत्पादन बढ़ाने में सफलता मिली है। सरकार के चार सालों के कार्यकाल में लगातार चार फसली सीजन में सूखे का प्रभाव रहा। इसके बावजूद पिछले दो सालों से रिकॉर्ड पैदावार हो रही है। फसलों की पैदावार के साथ बागवानी, डेयरी, पोल्ट्री और मत्स्य जैसे संबद्ध कृषि उद्यमों के क्षेत्र में देश ने तरक्की की है। लेकिन मूल समस्या अभी ज्यों की त्यों है। उपज का उचित मूल्य दिलाना तब भी एक चुनौती थी और अब भी एक चुनौती। इस दिशा में सरकार ने कार्यकाल के उत्तरार्ध में कुछ ठोस पहल की है। लेकिन नतीजा आना अभी बाकी है, जिसके लिए राज्यों का हाथ थामना जरूरी होगा। ढेर सारे कानूनी रोड़े हैं, जिनसे निपटना इस सरकार के लिए बहुत कठिन नहीं होना चाहिए। क्यों कि देश के प्रमुख २२ राज्यों में राजग अथवा इसके घटक दलों की सरकारें हैं।

(स्वास्थ्य और शिक्षा) : देर से उठे कदम
रेटिंग 6/10

स्वस्थ और शिक्षित समाज देश के विकास की कुंजी भी है और हर नागरिक का हक भी। सरकार कुछ इस सोच के साथ आगे बढ़ती दिखी। दस करोड़ परिवारों को पांच लाख रुपये तक मुफ्त इलाज की “आयुष्मान भारत” योजना का जमीन पर उतरना बाकी है। लेकिन इससे पहले जीवन रक्षक दवाओं का मूल्य नियंत्रित करने से लेकर घुटना प्रत्यारोपण और स्टेंट की कीमत तय कर पहली बार सरकार ने इच्छाशिक्त दिखाई। बेलगाम अस्पतालों पर लगाम की मंशा पहली बार दिखी। अच्छा हो अगर इसके लिए कोई सटीक निगरानी व्यवस्था भी तैनात हो। अफसोस कि शिक्षा को लेकर वह कवायद नहीं दिखी जो मंशा थी। शिक्षा का बजट छह फीसद तक लाना तो बहुत दूर है ही, गुणवत्ता का मानक भी छका रहा है। विश्वस्तरीय संस्थान तैयार करने की गति सुस्त है, हर स्कूल में प्रशिक्षित शिक्षकों की मौजूदगी सुनिशिचत करने में वक्त लगेगा। आइआइएम जैसे संस्थानों को स्वायत्ता देकर दुनिया के उच्च शिक्षण संस्थानों के मुकाबले खड़ा करने की अच्छी पहल हुई। रिसर्च के लिए मुहिम शुरू हुई और एक लाख करोड़ की राशि आवंटित भी हुई। लेकिन इसका असर दिखने में वक्त लगेगा। सीबीएसई पेपर लीक जैसी घटना ने सतर्कता पर सवाल खड़ा कर दिया।

डिजिटल इंडिया : कमजोर नींव
रेटिंग : 6/10

इसमें कोई दो राय नहीं कि देश को पूर्ण रूप से डिजिटल बनाने की दिशा में पहली बार नियोजित तरीके से काम इसी सरकार के कार्यकाल में हुआ है। ई गवर्नेंस की दिशा में सरकारी सेवाओं के डिजिटलीकरण और ऑनलाइन सेवाओं के मामले में बीते चार साल में बेहद तेज रफ्तार से काम हुआ। न सिर्फ सेवाएं मुहैया कराने को प्लेटफार्म तैयार हुए बल्कि उनसे जनता को जोड़ने और उनका लाभ दिलाने का काम भी फोकस तरीके से हुआ। नोटबंदी के बाद डिजिटल ट्रांजैक्शन को लेकर फोकस बढ़ा और भीम-आधार भुगतान व्यवस्था ने निचले तबके तक को डिजिटल भुगतान की सुविधा दी। लेकिन इस लक्ष्य को पाने की दिशा में अब भी एक बड़ी अड़चन है। सरकार ने ऑनलाइन सेवाओं व डिजिटल पेमेंट का ढांचा तो खड़ा कर दिया लेकिन इसकी बुनियादी जरूरत निर्बाध इंटरनेट कनेक्टिविटी का निस्तारण अभी तक नहीं हुआ है। ब्राडबैंड सेवाओं के लिए जरूरी ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क केवल 1.09 लाख ग्राम पंचायतों तक ही पहुंचा है। जहां तक मोबाइल कनेक्टिविटी का सवाल है उसमें बात भी सही तरीके से हो जाए तो गनीमत है। ऐसे में डिजिटल इंडिया का सपना फिलहाल कमजोर नींव पर मकान खड़़ा करने की कोशिश सरीखा लगता है।

दायरे से बाहर: सबका साथ, सबका विकास
रेटिंग : 6/10

मई, 2014 में सरकार गठन के बाद पीएम नरेंद्र मोदी ने सबका साथ, सबका विकास का नारा दिया और बताया गया कि यह देश में सामाजिक समरसता का माध्यम बनेगा। सोच स्पष्ट थी कि विकास को किसी जातीय या सांप्रदायिक घेरे में नहीं बांधा जा सकता है। सीमित सोच विस्तृत विकास का माध्यम नहीं बन सकता है।हालांकि पिछले चार वर्षों में अहिष्णुता का विवाद खूब तूल पकड़ा। गो हत्या के नाम पर हिंसा व उत्पीड़न की घटनाओं के खिलाफ खुद प्रधानमंत्री ने सख्त टिप्पणी भी की और चेतावनी भी दी। तथाकथित गो भक्तों को आइना भी दिखाया। यह और बात है कि छिटपुट ऐसी घटनाओं को रोकने में कई राज्य सरकारें अक्षम दिखीं और ठीकरा मोदी सरकार के सिर फूटा। खैर, अच्छी बात यह रही कि सरकारी स्तर पर योजनाओं के क्रियान्वयन में राजनीतिक खांचा टूट गया। तुष्टीकरण हाशिए पर गया और सशिक्तकरण केंद्र मे आया और यही कारण है कि उत्तर प्रदेश के कई मुस्लिम बहुल गांवों में उसी तत्परता से उज्जवला योजना के तहत एलपीजी कनेक्शन दिए गए है जिस तत्परता से दूसरे संप्रदाय व जाति बहुल गावों में। हर गांव को बिजली और हर घर को चौबीसों घंटे बिजली देने की योजना का फायदा समाज के हर तबके को होने जा रहा है। सशिक्तकरण की यही सोच है कि पहली बार सरकार ने तीन तलाक जैसे उन संवेदनशील मुद्दों को भी छूने से परहेज नहीं किया जो मुस्लिम महिलाओं को दोयम दर्जा देते थे।

स्वच्छता : सकारात्मक जनमानस
रेटिंग : 6/10

सरकार की चार साल की उपलब्धियों में स्वच्छता एक कामयाब ही नहीं यादगार पहल साबित हुई है। राष्टीय स्वच्छता मिशन के तहत शहरों-गांवों को गंदगी मुक्त करने की पहल के नतीजे अब दिखने लगे हैं। सरकार के शिखर के स्तर पर स्वच्छता को शासन की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शामिल करने की इस गंभीर पहल का ही नतीजा है कि देश में शौचालय का निर्माण एक मिशन बन गया। चार साल में शौचालय का दायरा 39 फीसद से छलांग मारकर 85 फीसद पहुंच गया है। स्वच्छता का सवाल केवल गांव-शहर में शौचालय बनाने तक नहीं रहा बल्कि अपने आस-पास से लेकर देश को गंदगी से मुक्त करने की बन रही सोच तक पहुंच गया है। देश को गंदगी से निजात दिलाने के इस मिशन को स्वास्थ्य के साथ जोड़कर पीएम मोदी ने स्वच्छता को एक जन अभियान का स्वरुप तो दे ही दिया है। नई पीढ़ी खासकर बच्चों में स्वच्छता की जगी लौ ने भी देश को गंदगी मुक्त करने का एक मानस बनाया है। इसमें खास बात यह रही है कि स्वच्छता मिशन में कोई अतिरिक्त बजट के बिना ही सरकार ने जनता और संगठनों की भागीदारी से देश को स्वच्छ बनाने के सफर को रफ्तार दी है। राजनीतिक इच्छाशक्ति के सहारे सीमित संसाधन में जन भागीदारी से बदलाव को सिरे चढ़ाने की जब बात होगी तो राष्टीय स्वच्छता मिशन का जिक्र जरूर होगा।

जनसुरक्षा : अहसास से दूर
रेटिंग : 6/10

यह सवाल लाजिमी है कि संघीय व्यवस्था में जनसुरक्षा की जिम्मेदारी किसकी होती है.? अगर देश के हर कोने में जनता सुरक्षित महसूस नहीं करती है तो जिम्मेदार कौन? जाहिर है कि संवैधानिक रूप से प्राथमिक जिम्मेदारी राज्यों की बनती है। केंद्र तो केवल आंतरिक सुरक्षा का पहरेदार है। लेकिन क्या केंद्र नैतिक रूप से ऐसे मामलों से हाथ खींच सकता है। क्या केंद्र चाहकर भी पूरे देश की जनता में यह भरोसा पैदा नहीं कर सकता है कि वह सुरक्षित है? कोई शक नहीं है कि पिछले चार साल में इंडियन मुजाहिद्दीन के जड़ से खात्मा होने, आइएसआइएस व अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों को पैर जमाने से रोके जाने, पूर्वोत्तर के अलगाववादी संगठनों और नक्सलियों पर लगाम लगी है। आंतरिक सुरक्षा की स्थिति बेहतर हुई है। हालांकि कश्मीर की स्थिति अभी भी भरोसा पैदा नहीं कर रही। वहीं पुलिसकर्मियों की भारी कमी हर पल यह अहसास कराती है कि हम अपनी गली में भी सुरक्षित नहीं हैं। जहां पुलिस है, वहां कांस्टेबल और इंसपेक्टर से लेकर कई बार एसपी तक संवाद इकतरफा भी होता है और खौफ भी पैदा करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी से निपटने के लिए देश में स्मार्ट पुलिसिंप्ग की बात की है। लेकिन गृहमंत्रालय अभी तक स्मार्ट पुलिसिंग की परिभाषा तक तय नहीं कर पाया है। आनलाइन एफआइआर और उसकी आनलाइन निगरानी से लेकर अपराधियों पर नकेल कसने के लिए बनाई जा रही सीसीटीएनएस अब भी धरती पर उतरना बाकी है।

समझ से परे: रोजगार बनाम स्वरोजगार
रेटिंग : 5.5/10

रोजगार विवादित विषय है और कुछ मामलों में तो समझ से परे भी। विवादित इसलिए क्योंकि रोजगार व स्वरोजगार के आंकड़ों के जरिए राजनीतिक लड़ाई लड़ी जाती है यह समझे बिना कि दोनों ही मामलों का निचोड़ तो रोटी के ही रूप में सामने आता है। और समझ से परे इसलिए कि रोजगार सृजन जैसे महत्वपूर्ण आंकड़े जुटाने के लिए अब तक देश में एक विश्‍वसनीय तंत्र नहीं बन पाया है। जाहिर है कि जब आंकड़ें ही न हों तो तर्क भावनाओं पर ज्यादा होते हैं लेकिन यह एक सच्चाई है कि पिछले कुछ वर्षों में मैन्यूफैक्चरिंग और एक्सपोर्ट सेक्टर में ह्रास हुआ है और उसका सीधा असर रोजगार पर होता है यह किसी से छिपा नहीं है। अगर भारत सबसे युवा देश है तो रोजगार का सवाल और भी ज्यादा अहम होता है। इन्हें भापते हुए ही केंद्र सरकार ने शुरूआत में ही कौशल विकास व स्वरोजगार की ओर कदम बढ़ाया था। भारत में प्रशिक्षित कामगारों का आंकड़ा मात्र 2.3 प्रतिशत है।कौशल मंत्रालय का असर यह हुआ कि अब तक ढाई करोड़ से अधिक युवाओं को प्रशिक्षित किया जा चुका है। युवा स्‍वावलंबी बनें, इसके लिए मुद्रा, स्‍टार्ट-अप और स्‍टेंड-अप इंडिया जैसे कार्यक्रम शुरु किए। अगर इन योजनाओं के आंकड़ों को बयां किया जाए तो स्वरोजगारियों की संख्या करोड़ों में पहुंचती दिखेगी। यह और बात है कि रोजगार और स्वरोजगार की लड़ाई कई बार पकौड़ों पर जाकर छूटती दिखी।

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