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मध्य प्रदेश में कांग्रेस के गले की फांस बनी विधानसभा की ये सीटें

राष्ट्रपति शासन के बाद 1993 से लेकर 2013 तक पांच बार विधानसभा चुनाव हुए हैं। इनमें कांग्रेस का प्रदर्शन लगातार गिरा है।

By Ravindra Pratap SingEdited By: Published: Sun, 12 Aug 2018 03:34 PM (IST)Updated: Sun, 12 Aug 2018 03:34 PM (IST)
मध्य प्रदेश में कांग्रेस के गले की फांस बनी विधानसभा की ये सीटें
मध्य प्रदेश में कांग्रेस के गले की फांस बनी विधानसभा की ये सीटें

रवींद्र कैलासिया, भोपाल, नईदुनिया। कांग्रेस भले ही मध्य प्रदेश में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है मगर आज भी 103 सीटें उसके लिए मुसीबत बनी हुई हैं। 24 सीटों पर पार्टी को लगातार 25 साल से हार का सामना करना पड़ रहा है। पिछले पांच विधानसभा चुनाव में 25 सीटों पर चार बार और 51 सीटों पर तीन बार कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशियों को हार मिली है। कई सीटों पर पार्टी ने हारे हुए प्रत्याशियों को दोहराया तो कई सीटों पर निर्दलीय या दूसरे क्षेत्रीय दलों से विजयी प्रत्याशियों को मौका देने की नीति भी कांग्रेस की हार के इतिहास को नहीं बदल सकी।

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राष्ट्रपति शासन के बाद 1993 से लेकर 2013 तक पांच बार विधानसभा चुनाव हुए हैं। इनमें कांग्रेस का प्रदर्शन लगातार गिरा है। दिग्विजय सरकार जब 1993 में सत्ता में आई थी तब भी 17 जिलों की 24 सीटें ऐसी थीं जिन पर कांग्रेस प्रत्याशियों को हार मिली थी और इन सीटों पर आज तक पार्टी अपनी पक़़ड मजबूत नहीं बना सकी है। तब से पांच विधानसभा चुनाव हो चुके हैं लेकिन आज भी कांग्रेस को इन सीटों पर जीत का इंतजार है।

यहां से हारे लगातार पांच बार खंडवा की हरसूद व खंडवा, इंदौर की इंदौर- 2 व इंदौर- 4, मुरैना जिले की अंबाह, भिंड की मेहगांव, शिवपुरी की पोहरी व शिवपुरी, अशोक नगर की अशोक नगर, सागर की रेहली व सागर, छतरपुर की महाराजपुर, दमोह की दमोह, सतना की रैगांव व रामपुर बघेलान, रीवा की त्योंथर व देवतालाब, जबलपुर की जबलपुर कैंट, सिवनी की बरघाट व सिवनी, होशंगाबाद की सोहागपुर-इटारसी, विदिशा की विदिशा, भोपाल की गोविंदपुरा, सीहोर की आष्टा व सीहोर। प्रयोग हुए मगर समायोजन वाले पार्टी ने लगातार हार वाली सीटों पर कई प्रयोग किए, लेकिन उसकी पक़़ड में जनता की नब्ज नहीं आ सकी।

अधिकांश प्रयोग समायोजन वाले होने से प्रत्याशी जीत में नहीं बदल सके। भिंड में हरीसिंह नरवरिया को 1993 से 2013 के बीच तीन बार टिकट दिया और वे जीत नहीं सके। ग्वालियर में रमेश अग्रवाल और भगवानसिंह यादव को मिली जीत के बाद उन्हें पहले उन्हीं सीटों से दोहराया जब वे वहां से हार गए तो दूसरे विधानसभा क्षेत्र से टिकट दिया और वहां से भी उन्हें जनता ने स्वीकार नहीं किया। यही स्थिति दतिया के महेंद्र बौद्ध की हुई। शिवपुरी के हरिवल्लभ शुक्ला को एक बार हार के बाद जब टिकट नहीं दिया और वे दूसरे दल से जीत गए। पार्टी ने अगली बार समायोजन के तहत उन्हें जिले की दूसरी सीट पोहरी से टिकट देकर दांव खेला। मगर शुक्ला सीट बदले जाने पर वहां से हार गए।

सीटें बदलीं फिर भी निराशा रीवा के राजमणि पटेल को सिरमौर से जीत के बाद एक बार उसी सीट और दूसरी बार सेमरिया सीट से दोहराया गया, मगर वे क्षेत्र की जनता द्वारा नकार दिए गए। सतना में एक ही व्यक्ति सईद अहमद को पार्टी ने चार बार टिकट दिया लेकिन दूसरी बार की टिकट में मिली एकमात्र जीत को वे कायम नहीं रख सके। वहीं सिंगरौली के वंशमणि वर्मा को पार्टी ने चार बार टिकट दिया और पहली बार के टिकट पर ही वे जीत सके। इसी तरह देवास के श्याम होलानी की स्थिति बनी जिन्हें पार्टी ने बागली से तीन बार टिकट तो एक बार वहां से जीते, चौथी बार खातेगांव से टिकट मिला तो क्षेत्र के मतदाताओं ने हरा दिया।


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