क्या चीन तेजी से बढ़ती आर्थिक विषमता को कम करने में कामयाब होगा?
पिछले कुछ माह से चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग द्वारा प्रयोग में लाया गया कामन प्रोस्पेरिटी यानी साझा समृद्धि शब्द दुनियाभर में चर्चा का विषय बना हुआ है। आर्थिक विकास के कारण उत्पन्न विषमता को सुलझाने की यह कोई पहली कोशिश नहीं है।
अभिजीत। संपूर्ण विश्व की गंभीर समस्याओं में से एक बढ़ती हुई आर्थिक विषमता को लेकर जो नया विचार आजकल चर्चा के केंद्र में है, वह है कामन प्रोस्पेरिटी यानी साझा संपन्नता। चीनी के राष्ट्रपति शी चिनफिंग द्वारा प्रयोग किए गए इस शब्द को घरेलू राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत करने के एक कदम के रूप में देखा जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि चीन में अगले वर्ष चुनाव हैं और शी चिनफिंग जो स्वयं को विश्व के सबसे ताकतवर नेता के तौर पर स्थापित करने में लगे हैं, उनके लिए जरूरी है कि वह फिर से चुनकर आएं, ताकि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की साख बची रहे। लिहाजा इन दोनों उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए चीन में बीते वर्षो के दौरान बढ़ी आर्थिक विषमता और उस कारण उपज रहे असंतोष को कम करना आवश्यक है। चूंकि चीन विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, ऐसे में इस कदम के वैश्विक प्रभावों की अनदेखी नहीं की जा सकती है। शायद यही कारण है कि विश्व के अर्थशास्त्रियों के बीच आम संपन्नता का विषय आज बहस का मुद्दा बना हुआ है।
वैसे आम संपन्नता मूल रूप से कोई नया विचार नहीं है। पिछली सदी के छठे दशक में चीन में जब कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता स्थापित हुई, तब भी लोगों को साथ लाने और साम्यवादी सोच को मजबूती देने के लिए माओ जेडोंग ने कुछ ऐसा ही कहा था। उसके बाद पिछली सदी के नौवें दशक में चीनी नेतृत्व ने साम्यवाद की जगह पूंजीवादी नीतियों को महत्व दिया। चीनी नेतृत्व ने आम संपन्नता के नारे को दोहराते हुए उस समय कहा था कि पहले कुछ लोगों और क्षेत्रों को अमीर होने दें और उसके बाद नीतियों में परिवर्तन से इस अमीरी को सामान्य बनाया जा सकेगा।
सैद्धांतिक स्तर पर देखें तो इस विचार में कोई त्रुटि नजर नहीं आती है। अगर कोई समस्या है तो वह है चीन के आर्थिक विकास के पीछे की शोषणकारी नीतियां। दरअसल वैश्विक स्तर पर चीन की पहचान मजदूरी की कम दर वाले देश के रूप में है जो चीन की आर्थिक नीतियों में रहा है। आमतौर पर पूंजीवादी व्यवस्था मजदूरी को कम रखने और अधिक मुनाफा बनाने की कोशिश करती है और सरकारें उसकी अनदेखी करती है, परंतु चीन में सरकार ने निर्यात बढ़ाने और विदेशी पूंजी लाने के लिए खुद मजदूरी कम रखने और मजदूरों के शोषण को प्रोत्साहित किया। पूंजी और सत्ता के बीच गठजोड़ के कारण चीन में एक स्वस्थ्य औद्योगिक परिवेश का अभाव रहा। यह अभाव वर्तमान में बढ़ी हुई आर्थिक विषमता का एक बड़ा कारण है। इसीलिए आम संपन्नता पर हो रही बहस का एक आयाम यह भी है कि क्या चीन तेजी से बढ़ती आर्थिक विषमता को कम करने में कामयाब होगा?
स्वस्थ औद्योगिक परिवेश की कमी केवल चीन की समस्या नहीं है। औद्योगिक क्रांति के बाद पश्चिम में मालिक और मजदूर के बीच शोषण और वर्ग संघर्ष का संबंध रहा, जिसका एक कारण इन देशों में प्राचीन काल से चली आ रही दास प्रथा की भी भूमिका थी। औद्योगिक क्रांति और उपनिवेशवाद का प्रसार पूरी दुनिया में फैलता गया। भारत में जिन दो व्यक्तियों ने इस विचार को सबसे बड़ी चुनौती दी, उनमें पहला नाम महात्मा गांधी और दूसरा दत्तोपंत ठेंगड़ी का है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जब महात्मा गांधी आर्थिक और सामाजिक विकास के अपने विचार दुनिया के समक्ष रख रहे थे, तब अहमदाबाद कपड़ा मिल मजदूरों के आंदोलन ने उन्हें उनके विषय को समझने का मौका दिया, लिहाजा उन्होंने वर्ग सहकार और ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को समाज के सामने रखा। गांधीजी ने श्रम को पूंजी के ऊपर रखा, लेकिन वर्ग शत्रुता और औद्योगिक संबंधों के बारे में उनका मानना था कि समाज भाईचारे से ही आगे बढ़ सकता है।
वैसे महात्मा गांधी अपने प्रयोगों के द्वारा किसी नई व्यवस्था का निर्माण नहीं कर रहे थे, बल्कि भारत के सनातन चिंतन को युगानुकूल रूप में सामने ला रहे थे। दुर्भाग्य से गांधी के ये प्रयोग, कांग्रेस के बाकी नेतृत्व की उदासीनता के कारण बहुत लंबे समय तक नहीं चल सके। मजदूर आंदोलन में संघर्ष की जगह सहयोग की भावना को स्थापित करने में सबसे महत्वपूर्ण नाम है दत्तोपंत ठेंगड़ी का। ठेंगड़ी ने न केवल पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों के सैद्धांतिक पक्ष की कमजोरियों को सामने रखते हुए विश्व को एक तीसरे विकल्प को तलाशने के लिए प्रेरित किया, बल्कि व्यावहारिक परिवर्तनों के लिए संगठनों की भी स्थापना की। वर्ष 1955 में भारतीय मजदूर संघ की स्थापना के समय ही यह स्पष्ट था कि इस संगठन की लड़ाई अन्याय के विरुद्ध है, न कि किसी वर्ग विशेष के। ठेंगड़ी ने मालिक और मजदूर दोनों को औद्योगिक परिवार का सदस्य माना और राष्ट्रवाद को धुरी मानते हुए समाज हित को दोनों के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता बताया। परस्पर विश्वास की भावना बनी रहे और मजदूर उद्योग को अपना मानते हुए अपनी उत्पादकता बढ़ाने को प्रेरित हो, इसके लिए आय अनुपात की अवधारणा को सामने रखा। ठेंगड़ी के विचार भारतीय मानस के कितने करीब थे, इस बात को समझने के लिए केवल एक तथ्य ही काफी होगा कि स्थापना के केवल चार दशकों के भीतर ही भारतीय मजदूर संघ भारत का सबसे बड़ा श्रमिक संगठन बन चुका था।
स्वस्थ औद्योगिक संबंधों की दिशा में गांधी और ठेंगड़ी दोनों के प्रयोगों का महत्व केवल भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए है। ठेंगड़ी जहां मजदूरों की संपन्नता को उद्योगपति की जिम्मेदारी मानने तथा पूरी उत्पादन प्रक्रिया को समाज के लिए हितकारी बनाने की वकालत करते हैं, वहीं गांधी उद्योग-धंधों से संचित धन का परोपकार एवं सामाजिक कार्यो में व्यय की बात करते हैं। और ये दोनों ही रास्ते सत्ता के दबाव नहीं, आम सहमति की भावना से आम संपन्नता की ओर जाते हैं। आज जब विश्व आम संपन्नता पर चर्चा कर रहा है तो ऐसे में हमें दत्तोपंत ठेंगड़ी के विचारों को समग्रता में समझना चाहिए।
[शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय]