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चीनी राष्ट्रवाद या 'पापा शी' का लालच, आजीवन राष्ट्रपति बने रहने की तैयारी में चिनफिंग

चीन की विस्तारवादी नीति की वैश्विक स्तर जमकर आलोचना होती है। लेकिन चीन इससे बेपरवाह है। चीनी राष्ट्रवाद के नाम पर वहां कुछ महत्वपूर्ण बदलाव हो सकते हैं।

By Lalit RaiEdited By: Published: Mon, 26 Feb 2018 05:04 PM (IST)Updated: Tue, 27 Feb 2018 10:00 AM (IST)
चीनी राष्ट्रवाद या 'पापा शी' का लालच, आजीवन राष्ट्रपति बने रहने की तैयारी में चिनफिंग
चीनी राष्ट्रवाद या 'पापा शी' का लालच, आजीवन राष्ट्रपति बने रहने की तैयारी में चिनफिंग

नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क]। 21 वीं सदी की शुरुआत के साथ ही चीन की विस्तारवादी नीति को पूरी दुनिया महसूस करने लगी। चीन के नीति नियामकों को यकीन हो चला था कि उनके पास वो सबकुछ है जिसके जरिए वो अमेरिका,जापान और दूसरे विकसित देशों को टक्कर दे सकते हैं। अपनी इस सोच को जमीन पर उतारने के लिए चीन ने अपने पड़ोसी देशों के मामले में दखल देना शुरू कर दिया और इसके साथ ही अमेरिका को खुलकर ललकारने लगा। ये बात अलग है कि चीन को कभी ये ख्याल नहीं आया कि बीजिंग के थ्येनऑनमन चौक पर उसकी तोपें अपने छात्रों की आवाज दबाने में लगी हुई थी। चीन जो बाते पहले दबी जुबां में कहा करता था अब उसे एक स्पष्ट दिशा दे रहा है। सीपीसी के एक प्रस्ताव के मुताबिक शी चिनफिंग आजीवन राष्ट्रपति बने रह सकते हैं। ऐसे में ये जानना जरूरी है कि चीन की घरेलू राजनीति में इसके असर के साथ वैश्विक स्तर पर इसका क्या प्रभाव होगा।

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चीनी राष्ट्रपति के दो कार्यकाल की सीमा को समाप्त करने की घोषणा बेहद सावधानीपूर्वक की गई है क्योंकि चीनी लोग सोमवार को चीनी नया साल मनाने के बाद काम पर लौटेंगे। शीतकालीन ओलंपिक के समापन समारोह में भी चीन केंद्र में है क्योंकि दक्षिण कोरिया के बाद 2022 में बीजिंग में यह खेल होने हैं।पार्टी के केंद्रीय समिति के वरिष्ठ नेता सोमवार को बीजिंग में एक बैठक करने जा रहे हैं। संसद में जाने से पहले यह प्रस्ताव 5 मार्च से शुरू हो रहे नेशनल पीपल्स कांग्रेस में रखा जाएगा। 

इस प्रस्ताव की खास बात ये है कि मौजूदा राष्ट्रपति शी चिनफिंग के समाजवाद पर विचारों और चीन की तरक्की पर रोशनी डाली गई है। इसके जरिए चीन में एक ऐसी व्यवस्था पर जोर दिया गया है कि चीन के राष्ट्रपति के लिए मौजूदा दो कार्यकाल की समय सीमा को खत्म कर दिया जाए। चीनी विश्लेषकों का कहना है कि अह सीपीसी को लगता है कि पूरी दुनिया में चीनी प्रभुत्व को कायम रखने के लिए राष्ट्रपति का दो टर्म का कार्यकाल उपयुक्त नहीं है।2020 से लेकर 2035 तक चीन में समाजवादी आधार पर देश को आधुनिकीकरण पर ले जाना है इसके साथ ही 2035 से लेकर 2050 तक चीन को उस मुकाम पर पहुंचाना है जिसमें घरेलू तरक्की के साथ साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन का दबदबा कायम हो सके। सीपीसी में इस बावत गंभीर सोच विचार के बाद फैसला किया गया।

जानकार की राय

दैनिक जागरण से खास बातचीत में अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार प्रोफेसर हर्ष वी पंत ने कहा कि इसकी झलक दिसंबर के महीने में ही दिखाई दी जब सीपीसी मे शी चिनफिंग के दूसरे कार्यकाल पर मुहर लगा दी। चीन की मौजूदा तस्वीर को देखें तो घरेलू मैदान से लेकर वैश्विक मैदान में चिनफिंग फुटबॉल का मैच खेल रहे हैं। वो एक ऐसे प्लेयर की तरह काम करना चाहते हैं जो आलराउंडर हो। उनका मकसद है कि तरीका जो भी हो वो लगातार गोल करते रहे हैं। अगर आप चीन की तरक्की को देखें तो निस्संदेह शी के कार्यकाल में तरक्की हुई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वो अपने आपको सुर्खियों में बनाए रखने में कामयाब रहे हैं। दक्षिण  चीन सागर हो, दक्षिण एशिया में भारत के पड़ोसी देशों पर दबाव बढ़ाकर दखल देने की बात हो या वन बेल्ट, वन रोड के जरिए दुनिया के बाजारों में चीन की एंट्री हो। इन सब विषयों पर चीन ने दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा। जहां तक मौजूदा व्यवस्था में बदलाव हो उसके पीछे एक खास मंतव्य ये हो सकता है कि जिसमें शी चिनफिंग को ज्यादा से ज्यादा ताकत प्रदान किया जाए जिसमें वो अपनी नीतियों को अमली जामा पहुंचा सकें। 

चीनी राष्ट्रवाद और सीपीसी

सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स के मुताबिक चीन की मौजूदा तस्वीर और आने वाले समय के लिए ये जरूरी है कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तौर जिस विरासत को हम आगे बढ़ा रहे हैं उसे और धार देनी है और इसके लिए शासक को इस तरह का माहौल देना चाहिए जिसमें वो बिना किसी भय और दबाव के अपनी नीतियों को आगे बढ़ा सके। 21वीं सदी के मध्य तक अपेक्षित मकसद की कामयाबी के लिए ताकतवर केंद्रीय नेतृत्व की आवश्यकता है, जरुरत से ज्यादा विकेंद्रीकरण उन उद्देश्यों को नहीं हासिल कर सकेगा जो एक ताकतवर चीन के निर्माण के लिए जरूरी है। शी चिनफिंग ने संविधान की महत्ता के बारे में बताते हुए कहा कि कोई भी शख्स इतना ताकतवर नहीं है कि वो कानून और संविधान से इतर जाकर काम करे। संविधान में शी चिनफिंग के राजनीतिक विचारों को भी जोड़ा जाएगा, जो पार्टी के संविधान में पहले ही जोड़े जा चुके हैं। इससे न सिर्फ एक भ्रष्टाचार विरोधी कानूनी ढांचा तैयार होगा, बल्कि सत्ता पर पार्टी की पकड़ भी मजबूत बनेगी।

 1953 में पैदा हुए शी जिनपिंग के पिता कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक थे। 1974 में वह पार्टी में शामिल हुए और 2013 में राष्ट्रपति बनने से पहले उन्होंने पार्टी में अपनी पकड़ बनाई। उनके कार्यकाल में आर्थिक सुधार, भ्रष्टाचार के खिलाफ भयंकर अभियान और राष्ट्रवाद में एक नई शुरुआत को देखा गया। उनके कार्यकाल में मानवाधिकारों को लेकर दमन भी देखा गया।

1990 में शुरू हुई थी परंपरा

10 साल तक पद पर बने रहने की परंपरा 1990 में शुरू हुई थी। उस समय दिग्गज नेता डेंग जियाओपिंग ने अराजकता को दोहराने से बचने की मांग की थी। इसके बाद माओ से पहले और बाद का युग माना जाता है। शी चिनफिंग से पहले के दो पूर्व राष्ट्रपतियों ने इसी उत्तराधिकार की घोषणा का पालन किया लेकिन जिनपिंग के 2012 में ताकत में आने के बाद इन्होंने अपने नियम लिखने की तत्परता दिखाई। यह अभी साफ नहीं है कि जिनपिंग कब तक सत्ता में रहेंगे लेकिन चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स के एक संपादकीय के अनुसार बदलाव का मतलब नहीं है कि चीनी राष्ट्रपति का आजीवन कार्यकाल होगा। कम्युनिस्ट पार्टी के अकादमिक और पार्टी सदस्य सू वेई के हवाले से कहा गया है कि यह एक महत्वपूर्ण निर्णय है क्योंकि चीन को 2020-2035 तक स्थिर, शक्तिशाली और सुसंगत नेतृत्व की जरूरत है। शी चिनफिंग की तस्वीर पूरे देश में बोर्डों पर लगी हुई है और उनका आधिकारिक निकनेम 'पापा शी' शासकीय गीत में शामिल है।
चीन की किसी से नहीं बनती
ड्रैगन यानि चीन पड़ोस से बनाए रखने वाले मुहावरे पर यकीं नहीं करता है। दुनिया में रूस के बाद वहीं एक ऐसा देश जिसकी सीमाएं 14 देशों से सटी हुई हैं। लेकिन पाकिस्तान को छोड़कर चीन की किसी से नहीं बनती है।

जापान- चीन और जापान के बीच पूर्वी चीन सागर पर स्थित कुछ द्वीपों को लेकर विवाद है। जापान नियंत्रित सेनकाकू द्वीप पर चीन अपना हक जताता है। वह इसे डियाओयू द्वीप कहता है। इन द्वीपों पर ताइवान भी अपना अधिकार जताता है।

ताइवान- ताइवान पर चीन शुरू से ही अपना हक जताता है। इसके अलावा चीन की तरफ से अक्सर ये बयान आता है कि ताइवान से रिश्ता रखने वाले देशों के साथ वो संबंध तोड़ देगा।

रूस- चीन और रूस की सीमा 4300 किमी लंबी है। उसूरी नदी पर स्थित झेनबाओ द्वीप और एमर व एर्गन नदी पर बसे कुछ द्वीपों के मालिकाना हक को लेकर चीन और रूस के बीच कई साल से विवाद है। 1995 और 2004 में समझौते के बाद भी चीन इस मसले को बीच-बीच में उठाता रहता है।

नेपाल- नेपाल में चीन आर्थिक निवेश कर रहा है। वहां सड़कें और रेल बिछा रहा है। लेकिन चीन द्वारा नेपाल की भूमि का अधिक इस्तेमाल करने पर बीच-बीच में दोनों देशों के रिश्ते तीखे हो जाते हैं।

भूटान- तिब्बत के कुछ हिस्सों को लेकर भूटान और चीन में तनातनी है। इनमें दस से अधिक क्षेत्र हैं। मौजूदा समय में भूटान के डोकलाम में चीन हस्तक्षेप कर रहा है।

उत्तर कोरिया- चीन और उत्तर कोरिया के बीच यालू और तुमेन के बीच सीमा रेखा को लेकर विवाद है। इसमें कई द्वीप हैं और इलाके का सबसे ऊंचा पर्वत पेकतू है। इस पर चीन अपना हक जताता है। हालांकि दोनों देश आर्थिक मित्र हैं, लेकिन तनातनी बनी रहती है।
दूसरे पड़ोसी भी परेशान
चीन की विस्तारवादी सोच से मंगोलिया, लाओस, वियतनाम, म्यांमार, अफगानिस्तान, कजाखिस्तान, किर्गिस्तान ताजिकिस्तान भी परेशान हैं।
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