कारगर वैश्विक रणनीति के माध्यम से चीन को चौतरफा घेरने की तैयारी में भारत
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसी महीने मध्य एशिया के पांच देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ एक बैठक में शामिल होंगे। यह बैठक इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इस क्षेत्र में बहुत कुछ बदल रहा है। बदलाव का असर भारत के लिए महत्वपूर्ण है।
सतीश कुमार। पिछले दिनों मध्य एशिया के सबसे बड़े देश कजाखस्तान में भारी उपद्रव मचा हुआ था। उस राजनीतिक आंदोलन के कई कारण थे। लेकिन एक बड़ा कारण चीन की घुसपैठ थी। पिछले दो दशकों से चीन वहां के लोगों की जमीन हड़प रहा था और यह देश गरीबी के गर्त में जा रहा था। इसलिए भी भारत की बैठक की कूटनीतिक अहमियत है। चीन के फैलते मकड़जाल को भेदना जरूरी भी है। बहुत कुछ इसी तरह के हालात दक्षिण एशिया के देशों में देखे जा सकते हैं।
विशेषज्ञ यह मानते हैं कि चीन के लिए दक्षिण एशिया को अपने तरीके से कब्जे में लेना संभव नहीं है। भारत की कूटनीतिक धार तेज और मजबूत है। क्वाड के अलावा यूरोपीय देश भी चीन विरोध की कतार में खड़े हैं। चीन के पड़ोसी देश भी चीन से आहत हैं। ऐसे हालात में भारत की शक्ति उनके लिए एक आशा की किरण है। मिडिल पावर भी भारतीय नेतृत्व के पक्ष में है। इसमें जर्मनी, जापान आस्ट्रेलिया और कुछ अन्य देश शामिल हैं।
मध्यपूर्व एशिया और दक्षिणपूर्व एशिया में असफल होने के बाद चीन दक्षिण एशिया को अपने तरीके से बांधने की कोशिश कर रहा हैं। कोशिश का मकसद भी स्पष्ट है। संदेश भारत के लिए है। गतिविधियां भारतीय महाद्वीप के आसपास हो रही हैं। संदेश दो टूक है। चीन की दादागिरी दक्षिण एशिया में क्यों नहीं बन सकती उसकी विवेचना जरूरी है। महत्वपूर्ण आर्थिक और सैनिक ताकत बनने के बावजूद चीन की तुलना अमेरिका से नहीं की जा सकती। आण्विक हथियार और प्रक्षेपास्त्र अमेरिका की तुलना में कमजोर है। दक्षिण एशिया की बात होने पर अमेरिका की चर्चा क्यों? यह प्रश्न पूछा जा सकता है। भारत-चीन संघर्ष को लेकर भी अमेरिकी ताकत की बात कितनी यथोचित है। दरअसल मध्यपूर्व और अफगानिस्तान से अपनी सैन्य व्यवस्था को संकुचित करने के बाद अमेरिका की शक्ति पर भी पिछले कुछ वषों से सवालिया निशान लगाया जा रहा है। अमेरिका के पास विश्व व्यवस्था को केंद्र में रखने के लिए कोई तो कारण होना चाहिए। और वह रास्ता लोकतंत्र से होकर गुजरता है, जिसकी सबसे महत्वपूर्ण धुरी दक्षिण एशिया में भारत है।
बांग्लादेश और श्रीलंका में लोकतांत्रिक ढांचा निरंतर मजबूत हो रहा है। इसमें सबसे अहम पहलू भारत का ही है। चीन तीन दशकों से भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश करने की कोशिश कर रहा है। इसमें वह बहुत हद तक सफल भी रहा, लेकिन चीन की चाल पिछले कुछ वर्षो से कमजोर हो चुकी है। इसके लक्षण श्रीलंका, मालदीव और बांग्लादेश में देखे जा सकते हैं। दूसरा, संघर्ष की अहम इकाई हिंद प्रशांत क्षेत्र बन चुका है। चीन अपने समुद्री मार्ग को व्यापक बनाने की हर कोशिश में जुटा हुआ है। दक्षिण पूर्व एशिया सहित पूर्व एशिया के सभी देश चीन के व्यवहार से दुखी हैं। जापान, फिलीपींस, मलेशिया, इंडोनेशिया और अन्य देश भी चीन के विरोध में खड़े हैं। क्वाड की शुरुआत भी हिंद प्रशांत को लेकर बनी थी। अब इस मुहिम में अमेरिका के साथ यूरोप और एशिया के मिडिल पावर भी शामिल हैं। अर्थात दक्षिण एशिया में पाकिस्तान को छोड़कर सभी देश इस कतार में खड़े हैं। अमेरिका दक्षिण एशिया के लोकतांत्रिक ढांचे को एक नया स्वरूप भी देना चाहता है। यही कारण है कि अमेरिका ने जी-20 की जगह जी-7 संगठन को अहमियत दी है, क्योंकि जी-7 में चीन शामिल नहीं है।
तीसरा, अंतरराष्ट्रीय राजनीति के पंडितों को ऐसा महसूस होता है कि समय से पहले चीन ने अपनी शक्ति का परचम लहराना शुरू कर दिया। चीन की आर्थिक व्यवस्था को नया आयाम देने वाले पेंग ने चीन की धार को दुनिया की नजरों से छिपाकर रखा था। उनका सोच था कि जब तक चीन उस मुकाम तक पहुंच नहीं जाता तब तक संघर्ष के हालात पैदा करना यथोचित नहीं होगा। लेकिन शी चिन¨फग को लगा कि चीन ‘जंगल का राजा’ बन चुका है। इस बात की घोषणा में देरी नहीं होनी चाहिए। इसी उन्माद में चीन ने ताईवान से लेकर गलवन तक का अपना मोर्चा खोल दिया। चूंकि चीन के व्यापारिक स्वरूप सैनिक तंत्र में बदलने लगे, लिहाजा तकरीबन हर देश उससे नाराज होने लगा।
अगर महाशक्तियों के भौगोलिक स्वरूप का अवलोकन करें तो चीन की स्थिति न ही अमेरिका की तरह थी और न ब्रिटेन की तरह। अगर दो महत्वपूर्ण भौगोलिक सिद्धांत के ढांचे में भी चीन को डालकर देखा जाए तब भी चीन की स्थिति महाशक्ति के रूप में नहीं बनती। महाशक्ति की पहचान भी इस रूप में की जाती है कि उनके विरोध की कतार लंबी नहीं हो। अगर हो भी तो उसे भेदने की क्षमता उसके पास उपलब्ध हो। क्या चीन के पास ऐसी क्षमता है? चीन की आर्थिक शक्ति निर्यात तंत्र पर आश्रित है। व्यापार नेटवर्क कमजोर पड़ेगा तो चीन की गति भी थम जाएगी।
चौथा, चीन के भीतर कई दरार है। समय समय पर दरार से असंतोष के बुलबूले फूटते दिखाई देते हैं। गलवन वैली संघर्ष के दौरान भी तिब्बत का मसला उभर कर सामने आया। वृहत्तर तिब्बत पूरे चीन का 40 प्रतिशत हिस्सा है। अगर विरोध की लहर को भारत और अमेरिका का साथ मिल जाता है तो तिब्बत एक अलग अस्तित्व में दिखाई देगा। और चीन का सर्वशक्तिशाली बनने का मंसूबा रेत की भीत की तरह बिखर जाएगा। चीन के समाज में कई सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियां भी हैं। ऐसे में चीन का भारत के साथ शत्रुपूर्ण व्यवहार उसके लिए आत्महत्या से कम नहीं होगा। दक्षिण एशिया को समेटने में कहीं वह खुद न दरकने लगे। चीन की आर्थिक और सैनिक शक्ति भारत से कई गुणा अधिक है। लेकिन चीन की चाल और उसकी व्यूह रचना चटकने लगी है। चूंकि चीन ने महाशक्तियों के साथ अपने पड़ोसी देशों को भी दुश्मन बना लिया है, लिहाजा लगभग पूरा विश्व उसके विरुद्ध है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसी महीने मध्य एशिया के पांच देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ एक बैठक में शामिल होंगे। यह बैठक इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस क्षेत्र में बहुत कुछ बदल रहा है। बदलाव का असर भारत के लिए महत्वपूर्ण है। श्रीलंका, मालदीव, नेपाल और भूटान में चीन की विस्तारवादी नीति के कारण वहां के लोग बहुत परेशान हैं। चीन अपना शिकंजा कस इन देशों की राजनीतिक व्यवस्था को तोड़ने की फिराक में है, परंतु भारत इन देशों और समूचे क्षेत्र को सही राह दिखाकर अपने हित भी सुरक्षित रख सकता है।
[प्रो. राजनीतिक विज्ञान, इग्नू, नई दिल्ली]