Move to Jagran APP

झुकने को मजबूर हुआ चीन लेकिन भारत को बने रहना होगा कड़क

राष्ट्रहित के संरक्षण-संवर्धन में न तो कोई शाश्वत शत्रु होता है और न ही सनातन मित्र। विवशता के वशीभूत ही सही, चीन यदि आज सभी कड़वाहट भूल आगे आ रहा है, तो भारत को इस अवसर का लाभ उठाने से नहीं चूकना चाहिए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 30 Apr 2018 04:00 PM (IST)Updated: Mon, 30 Apr 2018 04:02 PM (IST)
झुकने को मजबूर हुआ चीन लेकिन भारत को बने रहना होगा कड़क
झुकने को मजबूर हुआ चीन लेकिन भारत को बने रहना होगा कड़क

नई दिल्ली (जेएनएन)। भारत-चीन संबंध। एक कदम आगे दो कदम पीछे। जब- जब भारत ने संबंधों को पुख्ता करने के लिए विश्वास की सीमेंट डाली, चीन ने धोखे का रेत मिला दिया। बुनियाद मजबूत न हो सकी। इसी उतार-चढ़ाव को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने चौथी बार चीन की यात्रा की। लोग इस यात्रा को 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की यात्रा से भी ज्यादा प्रभावकारी बता रहे हैं। 1962 की जंग के बाद दोनों देशों के बीच जमी बर्फ उसी यात्रा ने पिघलाई। डोकलाम तनातनी के बाद पहली बार मोदी चीन गए। भारत-चीन मामले पर गहरी पकड़ रखने वाले कई विशेषज्ञ इस यात्रा को ऐतिहासिक करार दे रहे हैं। वजहें भी वाजिब हैं। आगामी जून में चीन में ही प्रस्तावित शंघाई सहयोग संगठन से ठीक पहले आपसी मतभेदों को दूर करने के लिए भारत को चीन का यह निमंत्रण ही काफी कुछ कह देता है।

loksabha election banner

अच्छी बात यह है कि पहल दोनों तरफ से है। तिब्बती धर्मगुरु दलाईलामा से जुड़ी चीन की चिंताओं की परवाह करके भारत ने भी सकारात्मक संदेश दिया है। दरअसल अमेरिका से छिड़े ट्रेड वार के बाद और नए वैश्विक परिदृश्य में चीन को कहीं न कहीं यह भान हो चुका है कि आज भारत को जितनी जरूरत चीन की है, उससे कहीं ज्यादा जरूरत चीन को भारत की है। समभाव वाले संबंध दोनों देशों के लिए जरूरी हैं। पासंग नहीं चलेगा। लिहाजा अमेरिका की तरफ झुक रहे भारत को येन केन प्रकारेण वह अपने पाले में करने की जुगत भिड़ा रहा है। दोनों देशों के बीच यह अच्छा संकेत हैं कि दोनों एक दूसरे की वाजिब चिंताओं का सम्मान कर रहे हैं और समाधान की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे में पीएम मोदी की चीन यात्रा की ऐतिहासिकता की पड़ताल आज सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

एशियाई दिग्गज

15वीं से लेकर 18वीं सदी तक भारत-चीन का संयळ्क्त रूप से आधे वैश्विक व्यापार पर नियंत्रण था। यह प्रभुत्व 19वीं सदी में भारत को ब्रिटेन द्वारा उपनिवेश बनाए जाने तक कायम था। बीसवीं सदी के मध्य में भारत को आजादी मिली तो चीन में साम्यवाद स्थापित हुआ। अब 21वीं सदी में दोनों देश दुनिया की सबसे तेज विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बन चुके हैं। लिहाजा वैश्विक व्यापार का केंद्र पूर्व की ओर बदलता महसूस किया जा सकता है।

हाल तक भारत और चीन के रिश्ते असाधारण रूप से तनावग्रस्त थे। डोकलाम में दोनों फौजें मुठभेड़ की मुद्रा में आमने- सामने थीं। भड़काऊ बयानबाजी में कोई पक्ष कसर नहीं छोड़ रहा था। बाद में जब हालात कुछ सामान्य हुए और भारत में दलाई लामा के शरण लेने की साठवीं जयंती मनाई जा रही थी तब भारत के कैबिनेट सचिव ने मंत्रियों तथा सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों को इन जलसों में भाग न लेने का निर्देश दिया, जिससे यह आशंका प्रकट हुई कि शायद किसी गुप्त समझौते के बाद चीन की बेरुख़ी दूर करने के लिए यह पहल की गई।

दोनों शासनाध्यक्षों की मुलाकात भले ही अनौपचारिक हो इसकी तैयारी किसी औपचारिक शिखर सम्मेलन से कम गंभीरता से नहीं की गई है। मोदी के चीन पहुंचने के पहले भारत की विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार चीन जाकर इसकी जमीन तैयार कर चुके हैं।

इस वक्त अमेरिका ने चीन के विरुद्ध वाणिज्य युद्ध का ऐलान कर दिया है। चीन को इसका बड़ा नुकसान निकट भविष्य में उठाना पड़ सकता है। अमेरिका भारत को यह प्रलोभन दे सकता है कि वह चीन के बाजार को तज भारत का रुख कर सकता है। चीन इस संभावना के प्रति सतर्क है। इसके अलावा ट्रंप ने चीन को हाशिए पर धकेलते हुए उत्तरी कोरिया के साथ सीधा संवाद आरंभ करने का प्रयास किया है। जिसका नतीजा भी ऐतिहासिक रहा है।

जाहिर है चीन को यह साजिश रास नहीं आई है। भारतीय प्रधानमंत्री को चीन आमंत्रित करने के पहले वह जापान के साथ सुलह की पेशकश कर चुका है। दूसरी तरफ भारत को काफी समय से यह महसूस हो रहा है कि चीन की सहायता और सहकार के बिना न तो हाफिज सईद के प्रत्यर्पण की आशा की जा सकती है और न ही परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की सदस्यता हासिल हो सकती है। दक्षिण एशिया में पड़ोसियों के बीच हमारा कद बौना करने की रणनीति पर चीन डटकर अमल करता रहा है। इसमें उसे कामयाबी भी मिलती नजर आ रही है। नेपाल से लेकर श्रीलंका तक यही सूरतेहाल है।

चीन का ‘वन बेल्ट वन रोड’ तथा चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा वास्तव में भारत की घेराबंदी और उसके गले में जहरीले मोतियों की कंठमाला पहनाने की दूरदर्शी रणनीति का ही हिस्सा है। अत: जब चीन के तेवर सुलह समझौते के नजर आते हैं तब यह स्वाभाविक है कि भारत इसका राजनयिक लाभ उठाने की चेष्टा करे। आज भारत, चीन और अमेरिका बहुत बदल चुके हैं। तीनों देश में पहले की अपेक्षा कहीं अधिक ताकतवर आत्मविश्वास से भरे नेता सत्तारूढ़ हैं। इससे दशकों से चली आ रही उलझी गुत्थियों को सुलझाने की संभावना बढ़ी है। लेकिन किसी भी विकल्प को चुनने के पहले हर सामरिक साझेदार की विश्वसनीयता की जांच-पड़ताल जरूरी है। यह बात चीन और अमेरिका दोनों पर लागू होती है।

आज दुखद यादें कुरेदने का वक्त नहीं है कि अतीत में चीन ने हमारे साथ विश्वासघात किया है या वह कभी भी भारत को अपना समकक्ष नहीं स्वीकार करेगा। यह भी सच है कि ऊर्जा सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में भारत और चीन ही एक दूसरे के प्रमुख प्रतिस्पर्धी हैं। पर याद रहे राष्ट्रहित के संरक्षण-संवर्धन में कोई भी शाश्वत शत्रु नहीं होता और न ही किसी को सनातन मित्र समझा जा सकता है। चीन यदि आज सीमा विवाद निपटारा न सही, बस तनाव घटाने भर के लिए प्रस्तुत है तब भी हमें इस अवसर का लाभ उठाने की चेष्टा करनी चाहिए। यह प्रयास हमारे लिए ट्रंप के राजनयिक दबाव का सामना करने में भी सहायक होगा। यह सोचना भी अक्लमंदी नहीं कि कोई भी एक अकेली मुलाकात मनमुटाव या हितों के टकराव को एक झटके में समाप्त कर सकती है। फ़िलहाल जरा धैर्य रखने की जरूरत है!

प्रो.पुष्पेश पंत

स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू 


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.