China-Taiwan Conflict: ताइवान के निकट युद्धपोतों को तैनात कर तनाव बढ़ाता चीन
China-Taiwan Conflict बढ़ते समय ‘वन चाइना पालिसी’ को बाधा के रूप में देखने की जरूरत इसलिए भी नहीं है क्योंकि चीन और पाकिस्तान इकोनमिक कारिडोर गुलाम कश्मीर क्षेत्र में नैतिकता का पालन करता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है।
डा. रहीस सिंह। पिछले दिनों अमेरिकी हाउस आफ रिप्रेजेंटेटिव की स्पीकर नैंसी पेलोसी ने ताइवान की यात्र की थी। उसके बाद से ताइवान के चारों तरफ चीन जिस तरह से युद्धाभ्यास कर रहा है, क्या उसे हम युद्ध के लिए किए जा रहे रिहर्सल की श्रेणी में रख सकते हैं? यदि ऐसा हुआ तो क्या ताइवान चीन से अकेले लड़ पाएगा? यदि नहीं तो क्या दुनिया के वे देश उसके साथ खड़े होंगे जो लोकतंत्र को बचाने के नाम पर बड़े-बड़े ध्वंस कर चुके हैं? भारत इसे किस तरह से देखेगा और ताइवान के साथ किस रूप में खड़ा हो पाएगा?
ताइवान चीन के खिलाफ अकेले नहीं लड़ सकता
इन अभ्यासों के माध्यम से उसने ताइवान के नभ क्षेत्र में अतिक्रमण कर रखा है। लेकिन अभी दुनिया की तरफ से ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं आई जिसे चीन के लिए धमकी के तौर पर देखा जा सके। हालांकि चीन के सैन्य अभ्यास के जवाब में ताइवान ने भी सैन्य अभ्यास शुरू कर दिया है। लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि अगर ताइवान के मामले में चीन अपने इरादे में सफल हो गया तो विश्व लोकतंत्र के एक चमकदार उदाहरण और उदार वैश्विक आर्थिक केंद्र को उस दौर में खो देगा, जब रूस और चीन जैसे अधिनायकवादी देश अपने आक्रामक इरादों को अनवरत विस्तार दे रहे हैं। इन सभी बिंदुओं में सबसे अहम यह है कि ताइवान चीन के खिलाफ अकेले नहीं लड़ सकता। ऐसे में सवाल यह उठता है कि ताइवान के साथ कौन-कौन खड़ा है? क्या अमेरिका और उसके सहयोगी ताइवान के साथ खड़े होंगे? क्या वे लोकतांत्रिक शक्तियां जो ‘रेस्टोरेशन आफ फ्रीडम एंड डेमोक्रेसी’ के नाम पर बड़े-बड़े कारनामे कर चुकी हैं, वह लोकतंत्र के नाम पर ताइवान को रक्षा कवच प्रदान कर पाएंगी? अभी नकारात्मक उत्तर पर पहुंचना तो ठीक नहीं, लेकिन हां में भी आवाजें तो नहीं सुनाई दे रहीं।
ऐसा क्यों है? इस कार्य-कारण को समझने की जरूरत है। दरअसल चीन अब पिछली सदी के नौवें दशक के देंग के ‘टू-कैट थ्योरी’ (यानी यह बात मायने नहीं रखती कि बिल्ली काली है या सफेद, मायने यह रखती है कि बिल्ली चूहे पकड़ती है या नहीं) से शी जिनपिंग की ‘टू-बर्ड थियरी’ का सफर तय कर चुका है। इतनी दूरी तय करते-करते चीन एक महाशक्ति बनने के दरवाजे तक पहुंच चुका है या नेपोलियन के शब्दों में कहें कि महादानव जाग चुका है तो शायद गलत नहीं होगा। शी चिन¨फग वर्ष 2014 में ही 12वीं नेशनल कांग्रेस को संबोधित करते हुए कह चुके हैं कि अब पिंजरे को खोलने की आवश्यकता है। चूंकि चीन में कानून बदलकर शी जिनपिंग को पूरी जिंदगी सत्ता में बने रहने का रास्ता साफ कर दिया गया है, इसलिए पिंजरा खुलने के बाद महादानव कैसी कहानी लिखने की कोशिश करेगा, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। सही अर्थो में जिस एक चीज ने चीन को और भी ज्यादा खतरनाक बना दिया है, वह उसके नेताओं की ऐसी घोषणा है जिसने पार्टी को माओ तानाशाही युग से बहुत आगे बढ़ा दिया।
ऐसा चीन एक प्रमुख शक्ति बनकर ही संतुष्ट नहीं रह सकता, अब उसमें पूरी दुनिया पर अपना दबदबा कायम करना की इच्छा शक्ति बलवती होगी। प्रशांत क्षेत्र में उसकी जो आक्रामकता और सक्रियता दिख रही है, वह इसी का परिणाम है। लेकिन यह अकेले चीनी नेताओं के बल पर नहीं हुआ, बल्कि जिन पश्चिमी अर्थशास्त्रियों या फिर कहें कि राजनीतिशास्त्रियों ने चीन की अर्थव्यवस्था का नया माडल खड़ा करने में मदद की है, वे सभी आज की ‘स्थिर तानाशाही’ के लिए जिम्मेदार हैं। यही वह छद्म गठबंधन है जो कई बार चीन के मुकाबले ताइवान को अकेला कर देता है।
अमेरिका की नीति
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन कई बार बयान दे चुके हैं कि ताइवान पर किसी हमले की सूरत में अमेरिका सैन्य मदद देने से नहीं हिचकेगा। लेकिन अमेरिका सही अर्थो में सौदागर है। वह किसी भी सहायता, सहयोग और मित्रता से पहले लाभ-हानि का गुणा-भाग करता है। ताइवान यदि उसके इस कैलकुलस पर खरा उतर रहा होगा तभी शायद बाइडन के बयान के अनुसार अमेरिका मदद दे, अन्यथा नहीं। कारण यह है कि यूक्रेन मामले में अमेरिका लगभग अपनी साख गवां चुका है। रूस-यूक्रेन मामले में अमेरिका ने धमकाया, आंखें भी दिखाईं और एक हद तक गिड़गिड़ाया भी, लेकिन रूस इसके बावजूद आगे बढ़ता गया। वैसे अधिकांश लोकतांत्रिक देश यदि ताइवान के साथ-साथ खड़े हो जाएं तब संभव है कि चीन पीछे हट जाए। कारण यह है कि चीन सही अर्थो में एक उत्पादन एवं निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था है जिसकी घरेलू मांग लगातार गिर रही है। ऐसे में उसकी अर्थव्यवस्था की रफ्तार इन्हीं लोकतांत्रिक देशों पर निर्भर है। लेकिन क्या ये देश वास्तव में चीन के सामने तन कर खड़े होंगे? क्या आप यह उम्मीद कर सकते हैं कि जब चीन के आंखें दिखाते ही तमाम बड़े देश दलाई लामा का आमंत्रण निरस्त कर देते हैं, तो यहां तो पूरे एक देश का मामला है। यही वजह है कि दुनिया के 15 देश ही ताइवान को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देते हैं। वह अमेरिका जो पहले ताइवान को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता दे रहा था, उसने भी शीतयुद्ध के दौर में अफगानिस्तान संकट के समय अपने सिद्धांत बदल दिए। तब से अब तक वह एक समझौते के तहत ताइवान को मदद दे रहा है।
बदलती विश्व व्यवस्था
हालांकि आज की बदलती विश्व व्यवस्था जिन समूहों और जिन रणनीतियों की मांग करती है, वह विश्वपटल पर दिखने लगी है जिनमें बहुत चीन के समर्थन में हैं और बहुत खिलाफ भी। इस बदलती विश्व व्यवस्था में यदि चीन लीडर बनता है तो यह दुनिया की शांति के लिए खतरा पैदा करेगा, इसलिए चीन को रोकना आवश्यक है। क्वाड और आकस जैसे कुछ मंच इसके उदाहरण हो सकते हैं। कमोबेश इस बात से सभी देश सहमत होंगे कि दमनात्मक और अधिकनायकवादी माडल न ही कल्याणकारी हो सकता है, न प्रगतिशील, इसलिए उसका विस्तार दुनिया में नए किस्म के उपनिवेशवाद की शुरूआत मानी जाएगी। फिर तो चीन का रोकना होगा। लेकिन यह भी सही है कि एशिया प्रशांत क्षेत्र में उससे वन-टू-वन लड़कर सफलता नहीं पाई जा सकती है। उसके लिए सबसे बेहतर हथियार एशिया-प्रशांत में बनने वाले व स्थापित रणनीतिक मंच होंगे। शी चिन¨फग जिस चीन की परिकल्पना कर रहे हैं, उसका रास्ता यदि नहीं रोका गया तो फिर ताइवान किसी खेत की मूली साबित नहीं हो पाएगा। यह रास्ता ऐसे ही गठबंधन रोक सकते हैं। फिलहाल तो अमेरिका के साथ ब्रिटेन भी ताइवान के साथ दिख रहा है, लेकिन आस्ट्रेलिया अभी अनिर्णय की स्थिति में है। वहीं दूसरी तरफ दक्षिण कोरिया चीन के साथ नए संबंधों में बंधता हुआ दिख रहा है। हां, जापान की तरफ से सहायता मिल सकती है। अभी आसियान देशों की तरफ से भी ऐसा कोई संकेत मिलता दिख नहीं रहा है।
अमेरिकी हाउस आफ रिप्रेजेंटेटिव की स्पीकर नैंसी पेलोसी की हालिया ताइवान यात्र के बाद वैश्विक राजनीतिक एवं कूटनीतिक वर्ग में एक विशेष दृष्टिकोण विकसित हुआ है जो प्रशांत क्षेत्र में युद्ध की आशंका जता रहा है। इसमें कोई संशय नहीं कि इस समय एशिया-प्रशांत और यूरेशियाई क्षेत्र भू-रणनीति की दृष्टि से दुनिया के सबसे संवेदनशील क्षेत्र बने हुए हैं। ऐसे में एक बड़ा सवाल यह भी उठ रहा है कि चीन यदि ताइवान पर आक्रमण करता है तो विश्व के कौन-कौन से देश ताइवान के समर्थन में सामने आ सकते हैं
चीन की वन चाइना पालिसी
भारत ने चीन की ‘वन चाइना पालिसी’ को मान्यता देने के साथ-साथ ताइवान के साथ भी अनौपचारिक रिश्तों की निरंतरता बनाए रखी है। ताइवान के साथ भारत ने भले ही औपचारिक कूटनीतिक संबंध स्थापित न किए हों, लेकिन वर्ष 1995 में भारत-ताइपे एसोसिएशन की स्थापना की और गलवन घटना के बाद वर्ष 2020 में गौरांगलाल दास को ताइपे में डिप्लोमेट भी नियुक्त किया। साथ ही नई दिल्ली में भी ताइपे आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की गई। वैसे भारत ने वर्ष 2010 से ही चीन को कुछ संकेत देना शुरू कर दिया था जब दिसंबर 2010 में तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की भारत यात्र के दौरान, नई दिल्ली ने संयुक्त बयान में चीन की वन चाइना पालिसी के समर्थन का जिक्र ही नहीं किया था। यही नहीं, वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण कार्यक्रम में तिब्बत प्रशासन के अध्यक्ष लोबसंग सांगे और ताइवान के राजदूत चुंग-क्वांग टी एन को भी आमंत्रित किया था।
भारत और ताइवान वर्ष 2018 में एक द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर कर चुके हैं और पिछले कुछ समय में दोनों देशों के बीच व्यापारिक संबंधों नई गतिशीलता आई है। ताइवान की कंपनियां भारत के सबसे बड़े निवेशकों में से एक हैं। दरअसल ताइवान के साथ भारत के संबंधों की शरुआत पिछली सदी के अंतिम दशक में ‘लुक ईस्ट पालिसी’ के समय से ही हो गई थी। वर्ष 1995 में नई दिल्ली में ‘ताइपे इकोनमिक एंड कल्चरल सेंटर इन इंडिया’ की स्थापना और ताइपे में ‘भारत-ताइपे एसोसिएशन’ की स्थापना लुक ईस्ट पालिसी का ही परिणाम था। ‘एक्ट ईस्ट पालिसी’ ने इन संबंधों में और नए आयाम जोड़े जिनमें वाणिज्य के साथ प्रौद्योगिकी, शैक्षणिक व सांस्कृतिक क्षेत्र भी शामिल हैं। अमेरिका चीन को रणनीतिक रूप से घेरना चाहता है और भारत उत्तरी, पश्चिमी तथा पूर्वी सीमा पर व पड़ोसी देशों की उसकी गतिविधियों को काउंटर करना चाहता है। इस दृष्टि से ताइवान एक्ट ईस्ट का बेहतर घटक बन सकता है और भविष्य में पूर्वी एशिया में चीन का मुकाबला करने के लिए एक रणनीतिक साझीदार साबित हो सकता है। चूंकि भारत इंडो-पैसिफिक में अपना रणनीतिक विस्तार कर रहा है, इस दृष्टि से ताइवान महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। ताइवान को समूचे विश्व में एक ‘टेक पावरहाउस’ के रूप में जाना जाता है। लेकिन घटती जन्म दर और प्रवासन में वृद्धि के कारण ताइवान में कुशल श्रमिकों की संख्या घटती जा रही है, ऐसे में भारत के प्रोफेशनल्स और कामगारों के लिए ताइवान एक बेहतर गंतव्य साबित हो सकता है।
[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]