विजय का पर्व
विजयादशमी का पर्व श्रीराम और रावण के माध्यम से पवित्र चेतना का प्रदूषित चेतना पर विजय का पर्व है। उसे वासना पर प्रेम की, संग्रहण पर त्याग की और दंभ पर शौर्य की विजय के रूप में भी देखा जा सकता है।
राम और रावण वस्तुत: हमारे जीवन में चेतना के दो अलग-अलग छोरों और स्तरों का प्रतिनिधित्व करते हैं। दोनों ही छोर अपने-अपने चरम पर स्थित हैं। राम जहां चेतना की परम विशुद्ध अवस्था हैं, तो वहीं रावण उसकी अत्यंत प्रदूषित स्थिति। इस सच्चाई को श्रीरामचरितमानस के एक महत्वपूर्ण प्रसंग में देखा जा सकता है।
मानस का यह प्रसंग उस समय का है, जब धनुष-यज्ञ के पहले सुबह राम और लक्ष्मण जनक जी की वाटिका में फूल तोड़ने के लिए जाते हैं। वहां सीता भी आ जाती हैं। भगवती सीता श्रीराम को देखती हैं और राम सीता को। दोनों एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। यहां गौर करने की बात यह है कि जब राम अपने भाई लक्ष्मण से यह बात बताते हैं, तो उस समय उन्होंने मोर मन क्षोभा शब्द का प्रयोग किया है, यानी सीता के अलौकिक सौंदर्य को देखकर मेरा मन विक्षुब्ध हो गया है। पुरुषोत्तम राम का मन विक्षुब्ध होना नहीं चाहिए था, लेकिन हो जाता है। इससे राम के मन में एक अपराध-बोध आ जाता है। लेकिन राम ने यह बात जाकर अपने गुरु विश्वामित्र को बता दी। इस प्रकार उन्होंने इस बात को स्वीकार करके इस अपराध से मुक्ति पा ली, यानी अपनी चेतना को विशुद्ध कर लिया। चेतना पर कोई दाग नहीं होना चाहिए। यह चेतना की पवित्रता की पराकाष्ठा है।
जबकि दूसरी ओर रावण है, जो किसी अन्य (श्रीराम) की पत्नी का अपहरण करता है और उसके सामने अपनी पटरानी बन जाने का अभद्र प्रस्ताव रखता है। रावण को उसके शुभचिंतक समझाते हैं, लेकिन वासना से भरी हुई इस चेतना की समझ में कुछ नहीं आता। यही नासमझी उसके पराभव और अंत का कारण बनती है।
विजयादशमी का पर्व मूलत: श्रीराम और रावण के माध्यम से पवित्र चेतना का प्रदूषित चेतना पर विजय का पर्व है। उसे वासना पर प्रेम की विजय, संग्रहण पर त्याग की विजय, दंभ पर शौर्य की विजय तथा बुद्धि पर विवेक की विजय के रूप में भी देखा जाना चाहिए। इस प्रसंग में सीता को देखकर राम के मन का विक्षुब्ध होना स्वाभाविक था। यह प्रकृति प्रदत्त भाव है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या हमें इस स्वाभाविकता के सामने पूर्ण रूप से समर्पण कर देना चाहिए? राम के व्यवहार में हमें इसका उत्तर मिलता है। यह उत्तर है- समर्पण हो, किंतु संयम के साथ। दमन नहीं, बल्कि संयम। संयम, अनुशासन और मर्यादा से आता है। एक विवेकशील प्राणी होने के नाते यह हमारा कर्तव्य बनता है कि हम अपनी समस्त इंद्रियों को अपने संयम में रखें, ताकि उनसे सकारात्मक कार्य कराए जा सकें। इन्हें उन्मुक्त कर देने का परिणाम स्वयं को रावण में परिवर्तित कर देना होगा, जिसका अंत निश्चित है। इंद्रियों को खुली छूट देना भी एक प्रकार की अप्राकृतिक स्थिति ही है, फिर चाहे हम बुद्धि के द्वारा इसके पक्ष में कितने भी ठोस तर्क क्यों न प्रस्तुत कर दें। रावण के दस मस्तकों का होना उसके अत्यधिक बुद्धिवादी के होने का ही तो प्रतीक है। लेकिन काश! उसके पास थोड़ा विवेक भी होता। राम केवल बुद्धि के बल पर जीने वाले लोगों में नहीं हैं। उनके हर निर्णय के पीछे विवेक दिखाई पड़ता है। विवेक की सबसे बड़ी खूबी यह होती है कि जहां वह अत्यंत व्यावहारिक होता है, वहीं अत्यंत विनम्र भी। उसमें दंभ नहीं होता, जबकि बुद्धि के पास दंभ का विपुल भंडार होता है, जो रावण के पास है।
श्रीराम अपने संपूर्ण आचरण द्वारा हमें तीन महत्वपूर्ण अनमोल सूत्र देते हैं, जिनके माध्यम से हम अपनी इंद्रियों को वश में रख सकते हैं। पहला सूत्र है संयम का, दूसरा संघर्ष का तथा तीसरा त्याग का। राम का वनवास इन तीनों का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करता है, जिसमें उनका जीवन, उनकी भावनाएं और कार्य संयमित हैं। अयोध्या की राजगद्दी को छोड़ना उनके त्याग तथा तपस्वी जीवन उनके बाह्य एवं आंतरिक
शक्ति-पूजा और सत्य की जीत-
नवरात्रों में मां भगवती की पूजा द्वारा शक्ति हासिल करके श्रीराम ने अश्रि्वन शुक्ल दशमी अर्थात दशहरे के दिन रावण का वध किया था और विजय प्राप्त की थी। इसीलिए इसे विजय पर्व के रूप में मनाया जाता है। यही कारण है कि पूरे नवरात्र रामलीला का आयोजन किया जाता है और दशहरे के दिन प्रतीकात्मक रूप में रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाए जाते हैं। इसे असत्य पर सत्य की जीत के रूप में देखा जाता है।
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