दान की भावना सकारात्मकता का प्रतीक है
दान कई प्रकार का होता है जैसे धन, रक्त व ज्ञान का दान। शास्त्रों में ऐसा निर्देश है कि मनुष्य जिस भी वस्तु से संपन्न हो उसको उसे अन्य जीवों की भलाई में लगाना चाहिए। समस्त ब्रहृमांड एक ही परब्रहृम का विस्तार है।
दान कई प्रकार का होता है जैसे धन, रक्त व ज्ञान का दान। शास्त्रों में ऐसा निर्देश है कि मनुष्य जिस भी वस्तु से संपन्न हो उसको उसे अन्य जीवों की भलाई में लगाना चाहिए। समस्त ब्रहृमांड एक ही परब्रहृम का विस्तार है। जीव उसी की उत्पत्ति है। इसीलिए परमेश्वर को परमपिता भी कहा जाता है। हर प्रकार के दान में करुणा, दया व मुदिता की भावना प्रबल होती है और इसी भावना के कारण जीव दूसरे जीवों की भलाई की सोचता है।
जिस प्रकार दान की भावना सकारात्मकता का प्रतीक है उसी प्रकार नकारात्मकता की अधिकता होने पर मनुष्य इस नकारात्मकता को तिरस्कार व निंदा के रूप में औरों को दुख पहुंचाने के लिए बांटना शुरू कर देता है। जिन पदार्थो को मनुष्य दु:ख में हेतु या सुख में बाधक समझता है उनमें जो विरोध वृद्धि होती है उसका नाम द्वेष है। इसके स्थूल रूप वैर, ईष्र्या, घृणा व क्त्रोध आदि हैं। इन सबको अध्यात्म या मनोविज्ञान की भाषा में अंत:करण का विकार कहते हैं। जीवन में निंदा व तिरस्कार के घातक परिणाम आते हैं। आज के समय में असहिष्णुता व हिंसा के पीछे सबसे बड़ा कारण इन नकारात्मक प्रवृत्तियों का है। इन प्रवृत्तियों के कारण आज मानव समाज में प्रेम, विश्वास व वसुधैवकुटुंबकम् का स्थान असहिष्णुता ने ले लिया है। अपने को श्रेष्ठ, बड़ा समझना एवं मान-बढ़ाई की इच्छा रखना ही दंभ कहलाता है। ऐसे दंभी व्यक्ति झूठे मान-सम्मान का दिखावा कर धन संपदा का संग्रह अपने दंभ की सुरक्षा के लिए करते हैं और इस कारण लोभ व मोह आ जाता है। इन विकारों का सबसे बड़ा उदाहरण महाभारत का युद्ध था। दुर्योधन एक दंभी व्यक्ति था। वह पांडवों को उनका न्यायोचित राज नहीं देना चाहता था। इसी कारण उसने हर समय पांडवों की निंदा व तिरस्कार किया। निंदा व तिरस्कार पूर्ण भावनाओं से इनको करने वाला व्यक्ति अपनी नकारात्मक विचारों को सही ठहराना चाहता है, परंतु होता इसके विपरीत है, अटल सत्य के अनुसार जीत हमेशा सत्य की होती है। आइए अपने चरित्र का आकलन करते हुए अपने अंदर छुपी नकारात्मकता को पहचानें और उसे सकारात्मकता में बदलने की कोशिश करें।
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