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माता मचैल के दरबार में योद्धा झुकाते थे सिर

जम्मू संभाग के किश्तवाड़ जिले में स्थित माता मचैल मंदिर की प्रसिद्धी पूरे देश में है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में योद्धा इस मंदिर में पहुंचकर माता की पूजा अर्चना करते थे।

By Edited By: Published: Mon, 22 Oct 2012 05:18 PM (IST)Updated: Mon, 22 Oct 2012 05:18 PM (IST)
माता मचैल के दरबार में योद्धा झुकाते थे सिर

जम्मू। जम्मू संभाग के किश्तवाड़ जिले में स्थित माता मचैल मंदिर की प्रसिद्धी पूरे देश में है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में योद्धा इस मंदिर में पहुंचकर माता की पूजा अर्चना करते थे।

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मचैल गांव किश्तवाड़ से 95 किलोमीटर और गुलाबगढ़ से तीस किलोमीटर दूरी पर भूर्ज और भोट नाले के बीच में स्थित अत्यंत खूबसूरत गांव हैं। दुर्गम पहाडिय़ों के बीच प्रकृति की गोद में बसे इस गांव के मध्य भाग में प्रसिद्ध मचैल माता का मंदिर लकड़ी का बना हुआ है। इस मंदिर के मुख्य भाग के बीचोबीच समुद्र मंथन का आकर्षक और कलात्मक दृश्य अंकित हैं।

मंदिर के बाहरी भाग में पौराणिक देवी देवताओं को कई मूर्तियां लकड़ी की पटिकाओं पर बनी हुई हैं। मंदिर के गर्भ में मां चंडी एक पिंडी के रूप में विराजमान है। इसके साथ ही दो मूर्तियों में से एक मूर्ति चांदी की है। कहा जाता है कि इसे बहुत समय पहले जंस्कार (लद्दाख) के बौद्ध मतावलंबी भोटों ने मंदिर में चढ़ाया था। इसलिए इस मूर्ति को भोट मूर्ति भी कहते हैं।

इस देवी पीठ के बारे में कई जनश्रुतियां प्रचलित हैं। कहते हैं कि जब भी किसी शासक ने मचैल के रास्ते से होकर जंस्कार या लद्दाख के अन्य क्षेत्र पर चढ़ाई की तो अपनी विजय के लिए माता से प्रार्थना की और मन्नत रखी। सेनानायक और योद्धाओं की इष्ट देवी होने के कारण ही इस देवी का नाम रणचंडी पड़ा। जोरावर सिंह, बजीर लखपत जैसे सेना नायकों ने जब जंस्कार (लद्दाख) पर चढ़ाई की तो इसी मार्ग से गुजरते हुए मां से प्रार्थना की और विजय हासिल की थी। 1947 में जब जंस्कार क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में आ गया तो भारतीय सेना के कर्नल हुकम सिंह ने माता के मंदिर में मन्नत रखी और जब वह जीत कर आ गए तो मंदिर में भव्य यज्ञ के आयोजन के साथ साथ धातु की मूर्ति स्थापित की, जो कि मंदिर में विराजमान दूसरी मूर्ति है।

वर्तमान में मचैल यात्रा के संयोजक ठाकुर कुलवीर सिंह पाडर क्षेत्र में पुलिस अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए थे तो उनका भी मचैल आना हुआ। जहां उन्हें माता की भव्यता और कृपा का एहसास हुआ और वह माता की भक्ति में लग गए। उन्होंने सन 1981 में मचैल यात्रा का प्रारंभ किया। पहले यह यात्रा छोटे से समूह तक ही सीमित रही। लेकिन किश्तवाड़ और गुलाबगढ़ का मार्ग खुलने के बाद यात्रियों की संख्या बढ़ती गई। बढ़ते बढ़ते यह संख्या हजारों तक पहुंच गई और यह स्थानीय यात्रा न रहकर पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश से आए श्रद्धालुओं की भी यात्रा बन गई। मचैल छड़ी यात्रा भाद्रपद संक्त्रांति से दो दिन बाद अगस्त में भद्रवाह के चनौत गांव से शुरू होती है।

मंदिर में पहुंच कर मन उल्लास से भर जाता है। यहां पहुंच कर जैसे यात्री जन्म जन्म के पुण्य प्राप्त कर बंधनों से मुक्त हो जाता है। अब यह यात्रा हजारों में न रहकर लाखों श्रद्धालुओं में तबदील हो गई।

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