जो मान प्रतिष्ठा से परे वही साधु
माधव प्रसाद शुक्ला से महंत माधवदास बने अनी के प्रधानमंत्री का जीवन काफी कष्टभरा रहा है। उनको मां का सुख मात्र 15 दिन ही मिल पाया। उनके पिता ने रुई से दूध पिलाकर उन्हें पाला पोसा। चार साल चार माह 14 दिन में वे अपने एक साथी के साथ घर छोड़कर काठमांडू चले आए।
माधव प्रसाद शुक्ला से महंत माधवदास बने अनी के प्रधानमंत्री का जीवन काफी कष्टभरा रहा है। उनको मां का सुख मात्र 15 दिन ही मिल पाया। उनके पिता ने रुई से दूध पिलाकर उन्हें पाला पोसा। चार साल चार माह 14 दिन में वे अपने एक साथी के साथ घर छोड़कर काठमांडू चले आए। बिल्कुल नग्न अवस्था में वे 15-16 दिन जंगल में रहे। यहां से माधवदास धूलीखेत, बेनेपा से गोकर्णवन पहुंच गए। फिर विभिन्न शहरों से भटकते हुए वीरगंज आए। यहीं से उनका जीवन परिवर्तित हो गया। यहां अयोध्या के अशर्फीभवन के मकसूदनाचार्य श्री महंत का यज्ञ हो रहा था। उस यज्ञ में मंत्रोच्चार सुनकर वे आचार्य जमुनाप्रसाद उपाध्याय के पहुंचे और उनके साथ अयोध्या आ गए। यहीं आगे की शिक्षा ग्रहण की। बीच में समाज से विरक्ति होने पर सरयू में डूबने की कोशिश की लेकिन एक साथी ने बचा लिया। इसी दौरान इनकी मुलाकात हनुमान गढ़ी के महंत गद्दीनशीन महंत बालकदास से हुई और उनके वे शिष्य बन गए। 1968 में उनसे दीक्षा ली। 2007 के प्रयाग अर्धकुंभ में तीनों अनी अखाड़े के आजीवन प्रधानमंत्री चुने गए महंत माधवदास से रवि उपाध्याय की बातचीत के प्रमुख अंश-
साधु क्या है। इसका तात्पर्य क्या है?
-जो मान प्रतिष्ठा से परे है। सांसारिक वस्तुओं से जिसका कोई मतलब नहीं है। तपस्या और दूसरों के लिए जीने वाला साधु है। जितना जरूरी है उसी वस्तु का वह प्रयोग करे और जब इस संसार से जाए तो सबकुछ समाज के लिए छोड़ जाए।
आपको नहीं लगता कि साधु भी अब भौतिक वस्तुओं में लिप्त है। महंगी गाडि़या और महंगे मोबाइल साधुओं के लिए स्टेटस सिंबल बन गए हैं?
-यह बात कुछ हद तक सही है। लेकिन धर्म के प्रचार प्रसार के लिए साधु संत देश के विभिन्न हिस्सों में जाते हैं। ऐसे में पैदल तो उनका सब जगह पहुंचना मुश्किल होगा। उन्हें भक्तों और साधुओं से बातचीत करनी होती है। प्राचीन काल में साधु संत घोड़े या रथों पर चलते थे। उस समय संचार की सुविधा नहीं थी अब मोबाइल जरूरी वस्तु में शामिल है। वाहनों का प्रयोग भी गलत नहीं हैं। लंबी यात्राएं करनी पड़ती है। देश के सुदूर इलाकों में जाना पड़ता है। ऐसे में अच्छे वाहन जरूरी है। अब कोई उन्हें स्टेटस सिंबल कहे तो क्या कहा जा सकता है।
आप कैसे साधु बन गए?
-जब मैं 15 दिन का था तभी मेरी माता का निधन हो गया। इसके बाद युवावस्था तक मैं भटकता रहा। 1968 अयोध्या में हनुमानगढ़ी गद्दीनशीन महंत रामबालक दास से मेरी मुलाकात हो गई। उनको देखकर मैं उन्हीं का होकर रह गया। उनके अंदर अद्भुत तेज था। वे मुझे अपने साथ लेकर हनुमानगढ़ी लेकर गए। जब मैंने उन्हें अपने जीवन की पूरी दास्तान बताई तो उन्होंने कहा कि अब यही आपका घर है। दो वर्ष बाद उन्होंने मुझे दीक्षा दी और मेरा नाम माधवदास रखा। यहीं से मै साधु हो गया।
महंत रामबालक दास में ऐसा क्या था कि आप उनके शिष्य बन गए?
-एक वृतांत से आप समझ जाएंगे। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एक बार अयोध्या आई और हमारे गुरु जी से जब मिलीं तो वे भी काफी देर वहां बैठी रह गईं। उनके तेज और ज्ञान से इंदिरा गांधी इतना प्रभावित हुई कि उन्होंने पत्रकारों से अपनी भावनाओं को साझा किया। कहा कि वह एक अद्भुत संत से मिलकर आ रही हैं। गुरु जी से जो मिलता था वह उन्हीं का होकर रह जाता था।
क्या साधु बनने के लिए गुरु का होना आवश्यक है?
-हर व्यक्ति के लिए गुरुमुखी होना जरूरी है। गेह और ध्येह जिसका सही है उसी का जीवन सफल है। जो मनमुखी होता है वह परंपरा को नहीं मानता है। वह भ्रमित रहता है। दूसरों को गलत दिशा देगा।
अखाड़ों में कल्पवास की परंपरा क्या है?
-ऋषि कर्दम ने कल्पवास शुरू किया था। प्रयाग में माघमास में कल्पवास उन्हीं की देन है। कल्पवास अखाड़े नहीं करते हैं। यह गृहस्थ और साधु करते हैं। अनादि काल से यह परंपरा चली आ रही है। काशी के अन्नापूर्णा कुंड में कार्तिक माह एवं हरिद्वार में गंगा तट पर बैशाख में कल्पवास होता है। प्रयाग का कल्पवास सबसे उत्तम माना जाता है। यहां बालू की रेती पर लोग एक माह एक समय भोजन करके कल्पवास करते हैं। कल्पवासी एक माह में साक्षात भगवान को प्राप्त कर लेते हैं।
धर्म में लोगों की आस्था कुछ बढ़ रही है। ऐसा क्यों हैं?
-धर्म में आस्था कहां बढ़ रही है। यहां जो भीड़ दिख रही है वह सैलानियों की है। पर्यटन के लिए सब यहां घूम रहे हैं। युवकों को यहां धर्म नहीं शिविरों की चकाचौंध दिख रही है। यह तपोभूमि है। देव भूमि हैं। चारों ओर भागवत कथा चल रही है। कहीं दिख रहा है कि युवा इन कथाओं को सुन रहा है। जो जनता प्रवचन पंडालों में बैठी है वह आस्थावान है। एक शेर से इसे आप और अधिक समझ जाएंगे। दोस्तों की दोस्ती तो बढ़ रही है लेकिन आस्था घट रही है।
समाज में जो गिरावट आ रही है उस पर आप क्या कहेंगे?
-अवर्णनीय क्षति हो रही है। दिल्ली की घटना बेहद अफसोसजनक है। इसी से समाज में जो गिरावट आ रही है उसका अंदाज आप लगा सकते हैं। हम कैसे संस्कार लोगों को दे रहे हैं। यह कष्ट का विषय हैं। हमने यहां क्यों जन्म लिया है। इससे लोग बेखबर है। नाच रहे हैं। दौड़ रहे हैं। फिर थक कर चूर हो जा रहे हैं। सब दिशाहीन जिदंगी जी रहे हैं। इसका दायित्व माता पिता पर है। वह अपने बच्चों को सही दिशा दे। इसके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं। इस गिरावट के लिए गृहस्थ, संत समाज सभी को इसकी जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए।
सबकुछ कैसे पटरी पर आएगा?
-हर व्यक्ति को आगे आना होगा। लोग अपने को पहचाने। साधु समाज को अपना दायित्व निभाना होगा। सभी पहले अपने अंदर के भ्रष्टाचार को समाप्त करें। दूसरे की आलोचना बंद करें। अभिभावक अपने बच्चों की आलोचना करते हैं। इससे समाज सही नहीं होगा।
अखाड़ा परिषद के विवाद में वैष्णव महंतों का नाम बहुत आ रहा है। आप तीनों अनी अखाड़े के प्रधानमंत्री है, ऐसे में इस विवाद को आप कैसे समाप्त कर सकते हैं?
-मैं साधु हूं। विवादित जीवन नर्क के समान होता है। किसी को भी विवादित नहीं होना चाहिए। साधु समाज की अपनी अलग मर्यादा है। वैसे भी अखाड़े के विवाद से मेरा कोई मतलब नहीं है। अखाड़ा परिषद का मैं सदस्य भी नहीं हूं। हां महंत ज्ञानदास हमारे मुखिया हैं। हमारा मानना है कि वहीं अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष हैं। सभी वैष्णव अखाड़े उनके पीछे खड़े हैं तो इसमें बुराई क्या है। जब शैव अखाड़े के महंत 50 वर्ष तक अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रह सकते हैं तो वैष्णव को इतना कम कार्यकाल क्यों दिया जा रहा है। सब अपनी-अपनी व्यवस्था में रहे तो कोई विवाद नहीं होगा। खैर अब तो न्यायालय ने भी हमारे पक्ष में फैसला दे दिया है।
मेले की व्यवस्था पर आप की क्या राय है?
-अब तक चार कुंभ कर चुका हूं। ऐसी खराब व्यवस्था कभी नहीं थी। अखाड़ा परिषद की भूमिका नहीं होने से भी मेला प्रशासन साधु समाज की नहीं सुन रहा है। मेले के सुंदर स्वरूप का विश्र्र्व में जो संदेश जाना चाहिए था वह नहीं जा रहा है। अन्य कुंभ से जो लोग यहां आए हैं उनमें काफी खिन्नता है। जैसी स्थिति है वह ठीक नहीं है। हालांकि अभी सुधार हो सकता है।
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