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हार नहीं मानने की जिद ने नारायण को बनाया चैंपियन

रेहड़ी लगाकर अपना पेट भरने और अपने सपने को बुनने वाले नारायण की कहानी बेहद संघर्षपूर्ण रही है।

By Lakshya SharmaEdited By: Published: Sun, 21 Oct 2018 07:36 PM (IST)Updated: Sun, 21 Oct 2018 07:36 PM (IST)
हार नहीं मानने की जिद ने नारायण को बनाया चैंपियन
हार नहीं मानने की जिद ने नारायण को बनाया चैंपियन

नई दिल्ली, योगेश शर्मा। जकार्ता एशियन पैरा गेम्स के पुरुषों की 100 मीटर टी 35 स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाले भारतीय पैरा एथलीट नारायण ठाकुर की अब तक की राह बेहद कठिन परिस्थितियों में गुजरी है, लेकिन कुछ कर दिखाने की जिद और हार नहीं मानने की आदत ने उन्हें एक उभरता हुआ सितारा बना दिया। वह इस स्पर्धा में पदक जीतने वाले पहले भारतीय पैरा एथलीट हैं।

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रेहड़ी लगाकर अपना पेट भरने और अपने सपने को बुनने वाले नारायण की कहानी बेहद संघर्षपूर्ण रही है। जब उन्होंने इस खेल को चुना तो लोगों ने उन्हें खेल छोड़ने की सलाह देते हुए ताने मारना शुरू कर दिया। नारायण कहते हैं, 'यहां तक पहुंचना मेरे लिए खुशी की बात है, लेकिन दिल से कहूं तो दिव्यांग होना ही अभिशाप है। 

पहले तो अपनी दिव्यंगता से लड़ना होता है और फिर उन लोगों से, जो हमेशा यह अहसास कराते हैं कि हम कुछ नहीं कर सकते। लेकिन, पैरा गेम्स में स्वर्ण पदक जीतकर मैंने बस यह बताने की कोशिश की है कि किसी भी चीज को पाने के लिए मेहनत और लगन जरूरी है।'

27 वर्षीय नारायण दिल्ली के समयपुर बादली में रहते हैं, लेकिन उनका परिवार बिहार के दरभंगा से है। उन्होंने अपने जीवन यापन के लिए क्या कुछ नहीं किया, होटल में वेटर का काम किया, बस डिपो में सफाई का काम किया और अब रेहड़ी लगाकर अपना और अपने परिवार का गुजारा करते हैं। हालांकि, इस रेहड़ी पर कभी वह, कभी उनकी मां और कभी परिवार का कोई अन्य सदस्य बैठता है। 

नारायण ने बताया, 'हम गरीब हैं और पिताजी के देहांत के बाद हालात और खराब हो गए। पेट भरने के लिए कुछ ना कुछ करना था और ऐसे में सभी ने कहा कि खेल को छोड़कर सिर्फ काम पर ध्यान दो, ताकि घर परिवार का खर्चा चल सके। लेकिन, मैंने हार नहीं मानी। मेरे लिए सबसे ज्यादा संघर्ष त्यागराज स्टेडियम तक पहुंचने का रहता है। 

मैं शुरू से ही त्यागराज स्टेडियम में अभ्यास करने जाता हूं, जो मेरे घर से 35 किमी पड़ता है। घर से स्टेडियम तक आजे-जाने में छह घंटे का समय लग जाता है। मेट्रो का किराया महंगा है और ऐसे में मुझे बस से सफर करना होता है। हमारा परिवार 2010 तक यहां झुग्गी में रहता था, लेकिन इसके बाद हमने छोटा सा मकान लिया, जिसमें हमारे पांच परिवार रहते हैं।'

जब नारायण से पूछा कि पदक जीतने के बाद क्या बदलाव आया तो उन्होंने कहा, 'ऐसा लग रहा है कि सब कुछ जीत लिया हो। मेरा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह पहला पदक है। सभी लोग मेरी तारीफ कर रहे हैं और सम्मान दे रहे हैं। इतना सब कुछ मेरे कोच अमित खन्ना से ही मिला जिन्होंने मेरा सही समय पर चयन करके मुझे प्रशिक्षण देने के साथ आर्थिक मदद भी की। लेकिन इस खेल में मुझे प्रदीप राज लेकर आए जो दिव्यांग लोगों के लिए काफी कार्य करते हैं। उन्होंने ही मुझे खन्ना सर से मिलवाया, जिसके बाद मेरा प्रशिक्षण शुरू हो पाया।'

नारायण ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हुई मुलाकात को यादगार पल बताया। उन्होंने कहा कि मुझे उम्मीद नहीं थी कि मैं कभी प्रधानमंत्री जी से भी मिल पाऊंगा। हमारे खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर के प्रयासों से ही यह संभव हो पाया। प्रधानमंत्री ने कहा कि आप लोग भविष्य में कभी भी हिम्मत नहीं हारना। आप सभी ने साबित कर दिया है कि आप भी किसी से कम नहीं हैं।


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