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लंगोट बेचकर बिटिया को बना दिया पहलवान, अब मिलने जा रहा अर्जुन अवॉर्ड

दिव्या काकरान अब तक छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक करीब 72 के आस पास पदक हासिल कर चुकी हैं।

By Sanjay SavernEdited By: Published: Wed, 19 Aug 2020 08:16 PM (IST)Updated: Wed, 19 Aug 2020 08:16 PM (IST)
लंगोट बेचकर बिटिया को बना दिया पहलवान, अब मिलने जा रहा अर्जुन अवॉर्ड
लंगोट बेचकर बिटिया को बना दिया पहलवान, अब मिलने जा रहा अर्जुन अवॉर्ड

पुष्पेंद्र कुमार, नई दिल्ली। माता-पिता हमेशा उस कुम्हार की तरह होते है जो ऊपर से आकार देते हैं तो पीछे से हाथ लगाकर सुरक्षात्मक सहयोग। खुद धूप-छांव सब सहते हैं पर अपने कच्चे घड़े को दीन-दुनिया के अपने अनुभव से पका कर ही दम लेते हैं। माता संयोगिता और पिता सूरज पहलवान ने मेरे सपने को पूरा करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। मां खुद लंगोट की सिलाई किया करती थी और पिता उन्हीं लंगोट को अखाड़ों में जाकर बेचा करते थे। उन्होंने न जाने कितनी रातें भूखे पेट काटीं, ताकि मुझे मेरे सपनों का आसमान मिल सके। यह कहना है ईस्ट गोकलपुर गांव निवासी भारतीय महिला पहलवान दिव्या काकरान का।

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दिव्या बताती है कि अब तक छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक करीब 72 के आस पास पदक हासिल कर चुकी हैं। अंतरराष्ट्रीय कुश्ती में 14 पदक भारत के नाम किए हैं, जिसमें पांच स्वर्ण, चार रजत व पांच कांस्य पदक शामिल हैं। उन्होंने कॉमनवेल्थ गेम्स व एशियन गेम्स में कांस्य पदक जीते थे। उनकी उपलब्धियों को देखते हुए उनके नाम की सिफारिश अर्जुन अवॉर्ड के लिए की गई। यह पुरस्कार मेजर ध्यानचंद के जन्मदिवस 29 अगस्त को दिया जाता है। दिव्या कहती हैं, असल में माता-पिता की मेहनत आज रंग लाई है, जो सपना माता-पिता ने देखा था आज वो पूरा होने जा रहा है।

सफलता से मिली पहचान : दिव्या बताती हैं कि माता-पिता पहलवानों के लिए लंगोट तैयार करते थे। मां संयोगिता कटिंग व सिलाई का काम करती थीं, पिता सूरज उन्हें अखाड़ों में जाकर पहलवानों को बेचा करते थे। उनके पास रोजगार और आय का यही एक मात्र जरिया था जो परिवार चलाने के लिए नाकाफी था। लेकिन, इसी के सहारे माता-पिता ने उन्हें पहलवान बनाया। धीरे-धीरे सफलता हाथ लगने लगी तो खुद-ब-खुद पहचान भी बन गई।

नन्ही उम्र में ही अखाड़े को बना लिया जीवन का लक्ष्य : पिता सूरज पहलवान बताते हैं कि वह मूलरूप से उत्तर प्रदेश के जिला मुजफ्फरनगर स्थित पुरबालियान गांव के रहने वाले हैं। करीब 20 साल से दिल्ली के यमुनापार स्थित ईस्ट गोकलपुर गांव में परिवार के साथ एक किराये के मकान में रह रहे हैं। वह बताते ही कि गांव में खुद कुश्ती किया करते थे, लेकिन कभी कामयाबी नहीं मिली। इसलिए अपने सपने को पूरा करने के लिए बच्चों को पहलवानी में उतार दिया। परिवार में दो बेटे व एक बेटी हैं और तीनों ही पहलवान हैं, लेकिन कभी यह नहीं सोचा था कि उनके बेटों के बजाय बेटी पहलवानी के क्षेत्र में मुकाम हासिल कर उनका राम रोशन करेगी।

देश की बेटियां किसी से कम नहीं : शाहदरा जंक्शन के चल टिकट परीक्षक (टीटीआइ) रामेश्वर सिंह ने बताया कि दिव्या काकरान दिल्ली के शाहदरा रेलवे स्टेशन पर सीनियर टिकट कलेक्टर के पद पर कार्यरत है और अब रेलवे बोर्ड की तरफ से खेलती हैं। दिव्या के नाम की सिफारिश अर्जुन अवॉर्ड के लिए होने पर भारतीय रेलवे के सभी स्टाफ में हर्ष का माहौल है। उन्होंने कहा कि अगर बेटियों को बेहतर मंच और अवसर दिए जाएं तो वे भी सिद्ध करके दिखा सकती हैं कि बेटियां किसी भी क्षेत्र में बेटों को टक्कर व मात दे सकती हैं।


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