एक मेडल ने बदल दिया गांव को, भारती के मेडल ने बदल दी सबकी सोच
भारती बताती है जब पहली बार मेडल लेकर आई और अखबारों में फोटो छपा तो लोगों को लगा कि इस खेल में कुछ तो है।
जीतेंद्र कुमार, भागलपुर। कील-कांटे वाली पगडंडी पर जख्म खाते पांवों ने जब जुनून की हद पार की तो न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर तक इसकी धमक सुनाई दी, बल्कि गांव की तस्वीर ही बदल गई। बिहार के भागलपुर जिले में पड़ने वाले नाथनगर प्रखंड के एक गांव गनौरा बादरपुर के बदलाव का यह सफर दिलचस्प ही नहीं, बदलते भारत की तस्वीर भी है। जहां 2014 से पहले कोई भी लड़की मैट्रिक पास नहीं थी, खेल ने सबकी सोच ऐसी बदली कि वे अब पढ़ भी रहीं, मैदान में दौड़ भी रहीं।
गरीबी थी, जागरूकता का अभाव भी। सो, लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई की बात कहां। सुबह-सुबह लकड़ी चुनना और शाम चूल्हे के धुएं संग। चौदह-पंद्रह की होते-होते शादी की बात। वर्ष 2012 में जब यहीं के सरकारी स्कूल में शिक्षक जितेंद्र मणि राकेश आए तो लड़कियों को खेलने के लिए प्रेरित किया। यह एक शुरुआत थी। भारती उन्हीं में एक है, जिसने एथलेटिक्स में राष्ट्रीय स्तर पर गोल्ड के साथ कई मेडल जीते। सपना ने राज्य स्तर पर प्रदर्शन किया। कुछ नाम और, जिनमें चंदा कुमारी, करीना, रौशनी, कोमल राष्ट्रीय स्तर पर एथलेटिक्स में शिरकत कर चुकी हैं तो आस्था और आकृति कबड्डी में गोल्ड विजेता टीम की सदस्य रहीं। ये सभी अभी स्कूल-कॉलेज में पढ़ रहीं और प्रतियोगिताओं के लिए अभ्यास भी कर रहीं।
करना पड़ा बहुत संघर्ष
भारती की किस्मत अच्छी थी कि छोटी सी किराने की दुकान चलाने वाले उसके पिता रवि कुमार व मां भाग्यवती देवी ने हर ताने सुनकर भी उसे खेलने दिया। भारती बताती है, जब पहली बार मेडल लेकर आई और अखबारों में फोटो छपा तो लोगों को लगा कि इस खेल में कुछ तो है। बस यहीं से माहौल बदलने लगा, वरना वह जब प्रैक्टिस के लिए पगडंडी या खेतों में जाती थी तो शरारती तत्व कील-कांटे और कांच के टुकड़े भी फेंक जाते थे। लेकिन हार नहीं मानी।
एक सिलसिला शुरू हुआ
वर्ष 2014 था, जब पहली बार इस गांव की बेटी ज्योति ने मैट्रिक पास किया। वे अभी एमए में पढ़ रही हैं। भारती स्नातक में हैं, और भी लड़कियां स्कूल-कॉलेज में। ग्रामीणों की सोच बदल गई। अब वे अपनी बेटियों को खेल के मैदान में भेजने लगे थे। एक दशक पहले तक होने वाला बाल विवाह भी रुक गया। यहां सुबह-शाम पगडंडियों पर, खेतों में लड़कियां भी दौड़ लगाती हैं। जितेंद्र कहते हैं, गांव में दूर-दूर तक खेल का माहौल नहीं था। स्कूल में शिक्षक होने के कारण बच्चे-बच्चियों से संपर्क हुआ। उनके स्वजनों को समझाने की कोशिश की। शुरूआती दौर में भारती और सपना दो लड़कियां थीं। इसके बाद कारवां बनता चला गया। आज यहां 20-25 लड़के-लड़कियां राज्य व राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी हैं।