भला कर भाग लें, धन्यवाद के लिए भी न रुकें
स्वार्थ नाम सुनते ही मन में नकारात्मक भाव आने लगते हैं। धीरे-धीरे इसकी सभी लोगों को आदत हो चुकी है।
स्वार्थ नाम सुनते ही मन में नकारात्मक भाव आने लगते हैं। धीरे-धीरे इसकी सभी लोगों को आदत हो चुकी है। यदि आपने कभी किसी का भला निस्वार्थ भाव से किया हो तो भी सामने वाला सोचेगा कि कोई ना कोई स्वार्थ तो जरूर था वरना आज के इस युग में जब कोई दो मीठे बोल नहीं बोलता तब भला करना, वह भी बिना कुछ लिए कुछ अटपटा सा लगता है। आज की दुनिया में स्वार्थी इंसानों की तादाद बहुत ज्यादा है। कभी-कभी स्वार्थी बनना हानिकारक सिद्ध हो जाता है। बहुत पुरानी बात है। एक बार पशुओं और पक्षियों में झगड़ा हो गया। चमगादड़ों ने इस लड़ाई में किसी का पक्ष नहीं लिया। उन्होंने सोचा, हम पक्षियों की भांति उड़ते हैं, इसलिए पक्षियों में शामिल हो सकते हैं। मगर पक्षियों की तरह हमारे पंख नही होते हम अंडे़ भी नही देते। इसलिए हम पशु दल में भी शामिल हो सकते हैं। हम पक्षी भी हैं और पशु भी हैं। इसलिए दोनों में से जो पक्ष जीतेगा, उसी में हम मिल जाएंगे। अभी तो हम इस बात का इंतजार करें कि इनमे से कौन जीतता है। पशुओं और पक्षियों में युद्ध शुरू हुआ। एक बार तो ऐसा लगा कि पशु जीत जाएंगे, चमगादड़ों ने सोचा, अब शामिल होने का सही वक्त आ गया है। वे पशुओं के दल में शामिल हो गए। कुछ समय बाद पक्षी-दल जीतने लगा। चमगादड़ों को इससे बड़ा दुख हुआ। अब वे पशुओं को छोड़कर पक्षी-दल में शामिल हो गए। अंत में युद्ध खत्म हुआ। पशुओं और पक्षियों ने आपस में संधि कर ली। वे एक-दूसरे के दोस्त बन गए। दोनों ने चमगादड़ों का बहिष्कार कर दिया। स्वार्थी चमगादड़ अकेले पड़ गए। तब चमगादड़ वहां से दूर चले गए और अंधेरे कोटरों में छुप गए। तब से वे अंधेरे कोटरो में ही रहते हैं। केवल शाम के धुंधले में ही वे बाहर निकलते हैं। इस समय पक्षी अपने घोंसलों में लौट आते हैं और जंगली जानवर रात में ही अपनी गुफा से बाहर निकलते हैं। इस तरह चमगादड़ अपने स्वार्थ के कारण न घर का रहा न घाट का। वास्तव में सारी दुनिया स्वार्थी नहीं है कितु हम पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। लोगों के मुंह से अक्सर सुनते हैं स्वार्थ है तो संसार है, कितु ऐसा नहीं है। हमारे स्वर्णिम इतिहास में ऐसे सैकड़ों महापुरुष है जिन्हें स्वार्थ का मतलब तक नहीं पता। महात्मा गांधी चाहते तो आराम से बैरिस्टरी कर अपना जीवन व्यतीत करते हैं, भगत सिंह भी शादी करते और सुखमय जीवन व्यतीत करते, सुभाष चंद्र बोस ने तो आइसीएस जैसी नौकरी ठुकराई। चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती और भी ना जाने कितने गुमनाम लोग थे जिन्होंने अपने जीवन में कभी स्वार्थ नहीं किया। अत: जब भी कभी भला करने की सोचो तो 'नेकी कर दरिया में डाल' वाली कहावत पर चलो। भला कर भाग ले धन्यवाद के लिए भी ना रुके क्योंकि भला करने वाले निस्वार्थी व्यक्ति का धन्यवाद और इनाम उसके द्वारा किया गया भला और निस्वार्थ कार्य ही होता है।
-सविता रानी, शिक्षिका, केंद्रीय विद्यालय, बंडामुंडा। अहम भाव से ग्रसित व्यक्ति स्वार्थी : मनुष्य के हृदय में स्वभाव से ही गुण और अवगुण मौजूद हैं। उसे चाहे वह परोपकार में लगाए या राक्षस बन जाए। स्वार्थ भी उन्हीं स्वभाव में से एक है। जब वह अहम भाव से ग्रसित होता है तो वह स्वार्थ कहलाता है और वहीं भाव परहित की भावना से ओतप्रोत होता है तो परोपकार बन जाता है। इसे हम छोटी सी घटना से समझें। रोशन एक सरकारी अधिकारी है। उसकी नियुक्ति सुदूर जंगल पहाड़ों से घिरे पिछड़े क्षेत्र में हुई। आरंभ में तो वहां उसे अच्छा नहीं लगा परंतु वहां की प्राकृतिक सुंदरता के बीच बसे अभावग्रस्त, ईमानदार तथा मेहनती लोगों को देखकर उसने कुछ करने की ठानी। उसने वहां बच्चों तथा युवाओं से संपर्क किया और शाम को वह उन्हें एक जगह एकत्र कर पढ़ाना तथा भविष्य में कुछ करने की ललक उनमें जगाना शुरू किया। उन बच्चों के पास पढ़ाई का कोई साधन नहीं था, ना ही पुस्तकें थी। इस लिए वह अपनी पुरानी पुस्तकों से एक छोटा सा पुस्तकालय अपने कमरे में बनाया। जब कभी कार्यालय के कार्य से बाहर जाता तो कभी नई तो कभी पुरानी किताबें खरीद कर लाता। जिसे वे बच्चे पढ़ते और अपना ज्ञान बढ़ाते। आधुनिक तकनीक से परिचित कराने तथा उसकी जानकारी के लिए अपने लैपटॉप और मोबाइल का सहारा लेता। इस तरह रोशन उस क्षेत्र में विद्या की अलख जगाकर लोगों को स्वावलंबी बना रहा है। वह उस क्षेत्र के बच्चों तथा युवाओं का मसीहा बन गया है। इसी तरह देश के इस संकट काल में अनेकों लोग स्वार्थ से ऊपर उठकर लोगों की सेवा कर रहे हैं। करुणा, दया, क्षमा, परहित, एकता और निस्वार्थता के बहने वाली शीतल हवा का अनुभव करते हुए उसे अपने जीवन में कार्यान्वित कर रहे हैं। इंसानियत की लौ प्रज्वलित कर रहे हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने मनुष्यता के लिए जीने की प्रेरणा देते हुए कहा है कि मनुष्य है वही, जो मनुष्य के लिए मरे।
- मिलयानी कुजूर, शिक्षिका, केंद्रीय विद्यालय बंडामुंडा। स्वार्थ से परे रहने वाले को ही आत्मिक सुख की प्राप्ति : स्वार्थ दो शब्दों से मिलकर बना है। स्व और अर्थ। स्व शब्द का अर्थ होता है अपना, मैं या अहम और अर्थ शब्द का अर्थ है, मतलब, उद्देश्य या लक्ष्य। अर्थात स्वार्थ का अर्थ है स्वयं की इच्छा के अनुसार लक्ष्य या आनंद की प्राप्ति। मैं शब्द का अर्थ प्रयोग लोग दो अर्थों में करते हैं, जो लोग ज्ञानी होते हैं वे लोग मैं को आत्मा समझते हैं। वे आत्मा के बारे में सोचते हैं और आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति चाहते हैं। परंतु जो लोग अज्ञानी होते हैं वे लोग मैं को शरीर मानते हैं। वे लोग भौतिक सुख सुविधाओं के बारे में सोचते हैं और शारीरिक आनंद के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं। यह सत्य है कि दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति आनंद की प्राप्ति चाहता है। यह उनका स्वभाव होता है। अज्ञानी व्यक्ति मैं को शरीर मानता है। वह आनंद प्राप्ति का प्रयास करता है और ज्ञानी व्यक्ति मैं को आत्मा मानता है वह भी आनंद की प्राप्ति का प्रयास करता है। इस लिए दोनों ही स्वार्थी होते हैं। जब उनकी इच्छा अनुसार काम होता है तो खुश होता है और उनकी इच्छा के विरुद्ध काम होता है तो दुखी होते हैं। समाज में तीन तरह के लोगों का व्यवहार देखने को मिलता है। पहला दूसरों को हानि पहुंचाकर अपना मतलब सिद्ध करता है। वे मानव नहीं दानव के समान हैं। दूसरा सिर्फ और सिर्फ अपना मतलब रखते हैं। वे पशु के समान होते हैं। तीसरा जो व्यक्ति मैं सोचता है और आवश्यकता पड़ने पर हानि उठाकर भी लोगों की सहायता करता है, क्योंकि इससे उन्हें आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है। यह जीवन का सबसे बड़ा परमार्थ और मानवता है। अत: मनुष्य को मनुष्यता का गुण बनाए रखने के लिए स्वार्थी जीवन त्याग कर परमार्थी जीवन अपनाना चाहिए। एक समय की बात है कि एक गांव में स्वार्थी और परमार्थी दो तरह के लोग निवास करते थे। स्वार्थी लोग अपने-अपने मतलब सिद्ध थे और वे लोग अपने भौतिक सुख सुविधाओं की व्यवस्था में परेशान रहते हैं। परंतु परमार्थी लोग भौतिक सुख-सुविधाओं से ऊपर उठकर परोपकार का काम करते हैं और वे लोग प्रसन्नता पूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। स्वार्थी लोगों की परेशानी को देखकर परमात्मा के ऊपर दया आ जाती है। परमात्मा इन अज्ञानी, स्वार्थी लोगों को ज्ञान प्रदान करना चाहते हैं। वे दो बड़े बर्तन में खिचड़ी लेकर गांव में उपस्थित होते हैं और वे एक बर्तन स्वार्थी समाज और दूसरा बर्तन परमार्थी समाज को प्रदान करते हैं। खिचड़ी खाने का नियम बताते हैं, तीन-तीन फीट का चम्मच देते हैं और कहते हैं कि यह खिचड़ी हाथ से नहीं बल्कि चम्मच से खाना है। अब दोनों समाज के लोग खिचड़ी खाने की शुरुआत करते हैं। स्वार्थी समाज के लोग अपना मतलब सिद्ध करने में लगे रहते हैं इस लिए लोग वहां पर भी खिचड़ी खाने का प्रयास करते हैं। जब खिचड़ी चम्मच में लेकर मुंह में डालने की कोशिश करते हैं तो खिचड़ी मुंह से आगे निकल जाती है क्योंकि चम्मच की लंबाई ज्यादा है और वे खिचड़ी नहीं खा पाते हैं और परेशानी का सामना करते हैं और उन्हें आनंद की प्राप्ति नहीं होती है। दूसरे परमार्थी समाज के लोग परोपकारी होते हैं इस लिए वहां पर खुद खिचड़ी खाने का प्रयास नहीं करते बल्कि वे चम्मच से खिचड़ी उठाकर दूसरों को खिलाने लगते हैं और सभी खिचड़ी खाने में सक्षम होते हैं तथा इसमें आनंद की प्राप्ति होती है। इस लिए मानव को स्वार्थ का भाव त्याग कर परमार्थ को अपनाने का प्रयास करना चाहिए।
- रंजीत उरांव, स्नातक शिक्षक, केंद्रीय विद्यालय बंडामुंडा। स्वार्थ से मिलता है केवल क्षणिक सुख : मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इस कारण उसके अंदर कई प्रकार की विशेषता होती है। वह कई गुणों का स्वामी होते हुए भी कुछ अवगुणों से ग्रसित है। स्वार्थ भी इन्हीं अवगुणों में से एक है। स्वार्थ का अर्थ मनुष्य के द्वारा क्षणिक लाभ या सुख हेतु किया गया अनैतिक कृत्य है। इस प्रकार के कृत्य निश्चित ही व्यक्ति को क्षणिक लाभ की प्राप्ति होती है परंतु उसके जीवन में शांति का लोप हो जाता है। त्रेता युग में भगवान श्रीराम का जीवन भी इसी तरह से प्रभावित हुआ था। अगर ऐसा नहीं होता तो क्यों श्रीराम को अपने पुत्र से भी ज्यादा प्रेम करने वाली कैकई श्री राम के लिए 14 वर्ष का वनवास मांगती है। अगर भगवान भी अवगुणों से अछूते नहीं रह सके तो हम तो केवल साधारण मनुष्य हैं। एक गांव में एक कुम्हार रहता था। वह बाजार में मिट्टी के घड़े बेचकर अपना जीवन निर्वाह कर खुश रहता था। उसका एक पुत्र था जिसने हाल में ही शिक्षा पूर्ण की थी। उस पुत्र ने एक दिन अपने पिता से कहा पिताजी आप हमेशा से मिट्टी के घड़े बनाते व बेचते आ रहे हैं, जिसका मूल्य भी कम होता है। आखिर कब तक ऐसे ही चलता रहेगा, क्यों न हम ऐसे घड़े बनाएं जो मजबूत होने के साथ साथ टिकाऊ भी हों, इससे हमें ज्यादा आमदनी होगी। उस कुम्हार को अपने पुत्र की बात जम गई। इसके बाद उस कुम्हार ने और ज्यादा मजबूत और टिकाऊ घड़े बनाये और उनको ऊंचे दामों में बेचना शुरु किया। कुछ समय में ही उसके पास ढेर सारा धन हो गया परंतु कुछ समय बाद स्थिति बदलने लगी। बाजार में उनके बनाए घड़ों की मांग घटने लगी क्योंकि लोगों को नए घड़े की आवश्यकता नहीं पड़ रही थी। परिणाम स्वरूप उसकी आय भी घटने लगी। जिससे उसके जीवन की शांति चली गई। ऐसा कुछ हमारे जीवन में या हमारे आसपास अक्सर होता रहता है जिनकी वजह से हम चिताग्रस्त रहने लगते हैं। इस लिए मनुष्य के जीवन में स्वार्थ का उतना ही महत्व रखना चाहिए जितना महत्व आटे व नमक का होता है। इसका अर्थ यह है कि हमें अपने जीवन में स्वार्थ को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। इसका एक ही उपचार है और वह है आत्म चितन व आत्म मंथन। आत्म चितन से ही हम अपने ऊपर नियंत्रण रख सकते हैं ताकि हम अपने जीवन की शांति को बरकरार रख सकें और स्वार्थ जैसी बुराइयों से दूर रह सकें।
- सुरेन्द्र सिंह, पीजीटी, कामर्स, केंद्रीय विद्यालय बंडामुंडा।