Move to Jagran APP

भगवान जगन्नाथ रथयात्रा: भक्तों को दर्शन देने खुद चलकर आते हैं भगवान

वर्षों से चली आ रही इस यात्रा में भगवान जगन्नाथ के साथ बडे भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा भी अलग-अलग रथों पर सवार होकर श्रीमंदिर से गुंडिचा मंदिर तक जाते है।

By BabitaEdited By: Published: Sat, 14 Jul 2018 10:32 AM (IST)Updated: Sat, 14 Jul 2018 10:32 AM (IST)
भगवान जगन्नाथ रथयात्रा: भक्तों को दर्शन देने खुद चलकर आते हैं भगवान
भगवान जगन्नाथ रथयात्रा: भक्तों को दर्शन देने खुद चलकर आते हैं भगवान

भुवनेश्वर, शेषनाथ राय। समग्र जगत के स्वामी भगवान जगन्नाथ को पतित पावन भी कहा जाता है। मान्यता है कि वे अलग-अलग पंथ, धर्म, संप्रदाय के लोगों को दर्शन देने के लिए साल में एक बार रथयात्रा के मौके पर मंदिर से बाहर निकल कर आते हैं। पतितों का उद्धार करने के लिए रथयात्रा वाकई एक ऐसा अनूठा त्योहार है, जहां भक्त से मिलने भगवान मंदिर से बाहर निकलते है। वर्षों से चली आ रही इस यात्रा में भगवान जगन्नाथ के साथ बडे भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा भी अलग-अलग रथों पर सवार होकर श्रीमंदिर से गुंडिचा मंदिर तक जाते है। यह वही दिन है, जब भगवान श्रीकृष्ण अत्याचारी कंस का वध करने मथुरा की यात्रा पर निकले थे।

loksabha election banner

पुरी के विशाल बड़दांड़ (चौड़े रास्ते) पर मंदिर की आकृति के तीन रथ जब चलते हैं तो विशाल जन समुद्र में तीनों रथ तैरते हुए प्रतीत होते हैं। चारों ओर जयकारे, घंट, घंटा, शंख, मृदंग बजाते, कीर्तन करते, भजन गाते लोगों का उत्साह देखते ही बनता है। 14 जुलाई को इस साल रथयात्रा का आयोजन हो रहा है। रथयात्रा के दौरान पुरी का स्वरूप ही बदल जाता है। कश्मीर से कन्याकुमारी, असम से गोवा तक व्याप्त विभिन्न प्रदेशों के लोग एवं हजारों विदेशी भी इस मौके पर हर साल पुरी आते रहे हैं। तीन किलोमीटर लंबे श्रीमंदिर से गुंडिचा मंदिर तक के रास्ते में छतों, पेड़ों आदि पर लोग चढ़कर इस मनोरम दृश्य को देखते मिलते हैं। पेड़ों पर लोग इस कदर लदे रहते हैं मानो मनुष्यों का पेड़ हो। पूरे रास्ते में अगर कुछ दिखायी देता है तो वह है केवल आदमी। इस भीड में अगर थाली चला दी जाए तो वह लोगों के सिर के ऊपर होकर गुजर जायेगी, जमीन पर नहीं गिरेगी। अपने रत्न सिंहासन को छोड़कर भगवान रथ में बैठकर गुंडिचा मंदिर जाते हैं। वहां पर एक सप्ताह रहकर फिर वापस श्रीमंदिर आते हैं।

यहां से जब जगत के नाथ जगन्नाथ श्रीमंदिर को लौटते हैं तो उस वापसी यात्रा को बाहुड़ा यात्रा कहा जाता है। चारों धाम में श्री जगन्नाथ धाम पुरी का विशेष महत्व है। यहां पर जगत के नाथ जगन्नाथ जी का वास है। इनकी दिनचर्या भी विचित्र हैं। मौसम के अनुसार इनकी क्रियाएं बदलती  रहती हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा को भगवान 108 घड़ा (कलश) जल से स्नान कराया जाता है जिसे स्नान पूर्णिमा कहा जाता है। स्नान के बाद तीनों विग्रहों को बुखार हो जाता है और उन्हें अणसर घर में रखा जाता है और वहां पर उनका इलाज किया जाता है।

महाप्रभु इन 15 दिन भक्तों को दर्शन नहीं देते हैं। कोलाहलपूर्ण श्रीमंदिर की रौनक फीकी पड़ जाती हैं। इस दौरान श्रीमंदिर में भगवान बलभद्र के स्थान पर अनंत बासुदेव, जगन्नाथ की जगह नारायण और देवी सुभद्रा के लिए भुवनेश्वरी के पट्टचित्र का पूजन किया जाता है। इस दौरान श्रीमंदिर में हर दिन की तरह 56 प्रकार के महाप्रसाद का भोग नहीं लगता है। तीनों विग्रह इस दौरान सफेद रंग के हलके कपड़े पहनते हैं और उन्हें सफेद फूल चढ़ाया जाता है। फलाहार और वैद्य की चिकित्सा से धीरे धीरे तीनों विग्रहों का बुखार ठीक हो जाता है।

रथयात्रा के एक दिन पहले विग्रहों का दर्शन भक्तों को मिलता है, इसे नवयौवन दर्शन कहते हैं। हर साल आषाढ़ शुक्ल द्वितीय की तिथि में जगत के नाथ जगन्नाथ जी की रथयात्रा अनुष्ठित होती है। आज कल रथयात्रा केवल भारत में ही सीमित नहीं रह गई है बल्कि विदेशों में भी बड़े ही धूमधाम के साथ महाप्रभु की रथयात्रा अनुष्ठित की जाती है। हालांकि महाप्रभु श्रीजगन्नाथ की यह यात्रा यानी रथयात्रा कब से मनायी जाती है इसका कुछ निश्चित प्रमाण नहीं दिया जा सकता है। हर वर्ष नए रथों का निर्माण किया जाता है। रथ निर्माण कार्य अक्षय तृतीय को प्रारंभ होता है। शास्त्रों में वर्णित विधि एवं नियमानुसार रथ बनाए जाते हैं। तीनों आराध्यों के लिए अलग-अलग तीन रथ निर्मित होते हैं। भगवान जगन्नाथ का रथ शेष दो रथों के पीछे रहता है। उनके रथ को नंदीघोष कहा जाता है। यह 13.5 मीटर ऊंचा और 16 विशालकाय पहियों से युक्त होता है।

भगवान बलभद्र के रथ को तालध्वज और देवी सुभद्रा के रथ को दर्पदलन कहा जाता है। तालध्वज रथ 13.2 मीटर ऊंचा होता है और इसमें 14 पहिये होते हैं। दर्पदलन अपेक्षाकृत छोटा होता है। इसकी ऊंचाई 12.9 मीटर है और इसमें 12 पहिये होते हैं। नंदीघोष लाल और पीले रंग के कपड़े से, तालध्वज लाल और हरे से तथा दर्पदलन लाल और काले रंग के कपड़ों से ढके जाते हैं। नंदीघोष के सारथी का नाम मातली, तालध्वज के सारथी का नाम सान्यकी एवं सुभद्रा के सारथी का नाम अर्जुन है। रथयात्रा के दिन तीनों मूर्तियों को मंदिर से बाहर लाने वाली प्रक्रिया पहंडी बिजे कहलाती है। पुरी के राजा जिन्हें गजपति महाराज कहते हैं, भगवान जगन्नाथ के प्रथम भक्त कहलाते है। समग्र भारत वर्ष के राजाओं में इनका विशेष स्थान है। ओडिशा के लोग पुरी के राजा को भगवान विष्णु मानते हैं। स्थानीय  भाषा में इन्हें चलंती विष्णु कहा जाता है। रथयात्रा के दिन तीनों रथ सिंहद्वार के सामने खड़े किए जाते हैं।

भगवान को उनके सेवादार, जिन्हें दईता कहते हैं, पंहड़ी बिजे कराकर रथासीन करते हैं। पंहडी बिजे का दृश्य बड़ा ही मनोहारी होता हैं। छत्र चमर से सज्जित इस झांकी को देख कर भक्त आंनद विभोर हो जाते हैं। हिलते-डुलते अपने दइता लोगों के साथ भगवान पंहडी बिजे कर रथों पर सवार होते है। पहंडी बिजे के उपरांत रथों पर विग्रहों की आरती के साथ पूजा-अर्चना की जाती है। बाद में चंदन, कपूर, पुष्प आदि के मिश्रण से प्रस्तुत पेस्ट के साथ गंगाजल का छिड़काव किया जाता है और ठाकुर राजा यानी पुरी के गजपति महाराजा तीनों रथों पर सोने के झाड़ू से बुहारते हैं, जिसे छेरा पंहरा कहा जाता हैं। भले ही आज राजशाही कहीं नहीं रही हो, मगर रथयात्रा के दिन पुरी के गजपति महाराजा को वही पुरानी शानो-शौकत से लाया जाता है। भगवान श्रीगुंडिचा मंदिर में सात दिन रहकर श्रीमंदिर लौटते हैं। सबसे पहले तालध्वज रथ, उसके बाद दर्पदलन एवं अंत में नंदीघोष रथ, घर्घर नाद करता जनता द्वारा खींचते हुए गुंडिचा मंदिर पहुंचाया जाता हैं, जिसे बाहुड़ा यात्रा कहते हैं।
 


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.