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ओबामा के लिए चुनौतीपूर्ण होगा दूसरा कार्यकाल

डेटन (ओहायो) [विशेष संवाददाता]। राष्ट्रपति बराक ओबामा को यह दूसरा मौका कुछ कर दिखाने के लिए मिला है। ओबामा का पहला कार्यकाल यथास्थिति और रिपब्लिकन के साथ गहरे मतभेद के लिए जाना जाता है। ओबामा ने जो एजेंडा दुनिया के सामने रखा है और वक्त जो एजेंडा उनकेसामने रख रहा है, दोनों मिल कर ओबामा की दूसरी पारी को पहल

By Edited By: Published: Wed, 07 Nov 2012 03:39 PM (IST)Updated: Wed, 07 Nov 2012 08:42 PM (IST)
ओबामा के लिए चुनौतीपूर्ण होगा दूसरा कार्यकाल

डेटन (ओहायो) [विशेष संवाददाता]। राष्ट्रपति बराक ओबामा को यह दूसरा मौका कुछ कर दिखाने के लिए मिला है। ओबामा का पहला कार्यकाल यथास्थिति और रिपब्लिकन के साथ गहरे मतभेद के लिए जाना जाता है। ओबामा ने जो एजेंडा दुनिया के सामने रखा है और वक्त जो एजेंडा उनकेसामने रख रहा है, दोनों मिल कर ओबामा की दूसरी पारी को पहले से ज्यादा चुनौतीपूर्ण बनायेंगे। ओबामा के दूसरे कार्यकाल में अमेरिका में टैक्स बढ़ना तय है और बैंकों व वित्तीय संस्थाओं पर सख्ती होगी।

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दुनिया कल यानी गुरुवार से ही एक नया काउंटडाउन शुरू कर देगी। अमेरिका एक बडे़ संकट की गर्त की तरफ बढ़ रहा है। इसमें एक तरफ वित्तीय संकट है और दूसरी तरफ मंदी। दुनिया इस स्थिति को फिस्कल क्लिफ के नाम से बुला रही है। एक जनवरी, 2013 को अमेरिका का आटोमैटिक संवैधानिक सिस्टम सरकारी खर्च में कमी, भारी कमी व टैक्स में जोरदार बढ़ोतरी का बटन दबा देगा।

इसे टालने के लिए ओबामा को राजस्व में चार से पाच फीसद की बढ़त और खर्च में एक फीसद कमी केजरिये करीब 665 अरब डॉलर की बचत या अतिरिक्त राजस्व का जुगाड़ करना होगा। यह राशि अमेरिका की राष्ट्रीय आय के करीब पाच फीसद हिस्से के बराबर है। ओबामा की यह चुनौती सबसे बड़ी हैं क्योंकि इस राजकोषीय सुधार केतहत अमेरिका में फेडरल टैक्स की दर औसत पाच फीसद बढे़गी, जिससे अमेरिका की आर्थिक विकास दर घटकर 0.6 फीसद रह जाएगी जो अगले साल के लिए 2.5 फीसद आकी जा रही है।

राष्ट्रपति ओबामा को फिर एक विभाजित काग्रेस मिल रही है जबकि संकट से उबरने के लिए उन्हें अमेरिकी सियासत में बड़ी सहमति चाहिए। अमेरिकी जबान में इसे ग्रैंड बारगेन कहा जाता है। ओबामा ने दो महत्वपूर्ण बदलावों का वादा किया है। वह अमीरों पर नए टैक्स लगायेंगे और प्रवासियों के लिए नियम बदलेंगे। यह दोनों कदम राजनीतिक सर्वानुमति से ही लागू होंगे। यकीनन दूसरे कार्यकाल में ओबामा को उस विपक्ष की ज्यादा जरूरत होगी जिससे उनके रिश्ते बहुत अच्छे नहीं रहे हैं।

ओबामा की उम्मीदों से कदमताल होगी भारत के लिए चुनौती

जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। अमेरिकियों के लिए ज्यादा रोजगार व अर्थव्यवस्था को नई रफ्तार के वादों के साथ कुर्सी बचाने में कामयाब हुए बराकओबामा की दूसरी पारी में भारत को भी उनकी उम्मीदों का बोझ उठाना होगा। खास तौर पर नाभिकीय व्यापार और बड़े हथियार सौदों और सुधारों के मोर्चे पर ओबामा की नजर भारत के बाजार पर होगी। घरेलू मोर्चे पर संप्रग सरकार की सियासी दिक्कतें अमेरिका से कदमताल में भारत के लिए रास्ता मुश्किल बना सकती हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ओबामा को भेजे बधाई संदेश मेंफायदेमंद साझेदारी के जारी रहने की उम्मीद जताई।

प्रधानमंत्री ने कहा है, 'चुनावी नतीजों ने ओबामा को यह ऐतिहासिक मौका दिया है कि वह अमेरिकी जनता के साथ ही नाजुक मोड़ पर खड़ी विश्व व्यवस्था में शांति और प्रगति के लिए काम कर सकें। राष्ट्रपति ओबामा की दोस्ती को व्यक्तिगत तौर पर अहम बताने के साथ सिंह ने इस बात पर भी जोर दिया कि दोनों मुल्कों की साझेदारी नए आर्थिक अवसरों के दरवाजे खोल सकती है।' ज्ञात हो कि ओबामा ने चुनाव अभियान में ही यह साफ कर दिया था कि उनके अगले कार्यकाल में अर्थव्यवस्था सबसे अहम मुद्दा होगा। नतीजों के बाद अपने 20 मिनट के धन्यवाद भाषण में भी उन्होंने रोजगार और अर्थव्यवस्था का हवाला करीब आधा दर्जन बार दिया।

गत दो वर्षो में भारत और अमेरिका के रिश्तों में साझेदारी के संकल्प तो हर बार जताए गए लेकिन बड़े सौदों की गाड़ी धीमी ही चल रही है। नाभिकीय करार पर दस्तखत के तीन साल बाद भी अभी भारत से परमाणु व्यापार का सिलसिला शुरू नहीं हो पाया है।

खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को भारत सरकार ने मंजूरी भले दे दी हो, लेकिन अगले ही हफ्ते संसद में इसकी अग्निपरीक्षा होगी। कुडानकुलम, जैतापुर, हरिपुर सहित नाभिकीय परियोजना स्थलों पर विरोध ने नए परमाणु ऊर्जा केंद्र बनाने की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। भारतीय वायुसेना के लिए 126 लड़ाकू विमान खरीद सौदे में अमेरिकी कंपनियों के बाहर होने ने भी वाशिंगटन को खासा झटका दिया था।

पूर्व विदेश सचिव सलमान हैदर का कहना है कि संभव है कि नाभिकीय व्यापार और बड़े रक्षा सौदों को लेकर अमेरिका भारत से अपने आग्रह को अधिक बढ़ाए। अमेरिकी अर्थव्यवस्था सुधरने का भारत को भी लाभ मिलेगी लेकिन घरेलू राजनीतिक मुश्किलों के बीच भारत के लिए अमेरिका संग कदम मिलाकर चलना आसान नहीं होगा।

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