अब साम-चक, साम-चक अइह हे, अइह हे.. की गूंज
समस्तीपुर। छठ पूजा संपन्न होने के साथ ही भाई-बहन का पर्व सामा-चकेवा शुरू हो गया है।
समस्तीपुर। छठ पूजा संपन्न होने के साथ ही भाई-बहन का पर्व सामा-चकेवा शुरू हो गया है। हर ओर 'साम-चक, साम-चक अइहे हे, अइहे हे, चुगला करे चुगली बिलैया करे म्याऊं' की गूंज सुनाई दे रही है।
मिथिला में भाई-बहन के प्रेम का पर्व सामा-चकेवा काफी प्रसिद्ध है। यह छठ की समाप्ति के दिन से कार्तिक पूर्णिमा तक मनाया जाता है। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में घर-घर इसकी धूम रहती है। बहनें सामा-चकेवा के अलावा डिहली, चुगला, भरिया, खड़लिस, मिठाइवाली, झाझी कुत्ता, ढोलकिया तथा वृंदावन सहित अन्य मिट्टी की प्रतिमाएं बनाती हैं या खरीदकर लाती हैं। कार्तिक पूर्णिमा तक बहनें सामा-चकेवा के गीत गाती हैं। जिसमें 'साम-चक, साम-चक अइहे हे, अइहे हे, चुगला करे चुगली बिलैया करे म्याऊं , गाम के अधिकारी हमर बड़का भैया हो, सामा खेल चलली, भौजी संग' आदि शामिल हैं। लड़कियां मैथिली लोक गीत गाकर भी हंसी-मजाक करती हैं। अंत में चुगलखोर चुगला का मुंह जलाती हैं। देवोत्थान एकादशी की रात मूर्तियों को ओस चटाती हैं। कार्तिक पूर्णिमा की रात मिट्टी के बने पेटार में संदेश स्वरूप दही-चूरा भर गीत गाकर विदा करती हैं। भाई सामा-चकेवा को नदी या तालाब में विसर्जित करते हैं।
समस्तीपुर के प्रोफेसर कॉलोनी की विजेता, माधोडीह गाव की श्वेता कुमारी, दलसिंहसराय की रंजू झा बचपन से ही इस त्योहार को मनाती आ रही हैं। इनका कहना है कि इससे भाई-बहन का रिश्ता और मजबूत होता है। वीर कुंवर सिंह कॉलोनी निवासी शिक्षक कनक चौधरी कहती हैं कि यह लोकपर्व शहर से ज्यादा गावों में मनाया जाता है।
सदियों से चली आ रही परंपरा :
कहते हैं कि सामा कृष्ण की पुत्री और साम्ब जिसे मैथिली में सतभइया या चकेवा के नाम से जाना जाता है, पुत्र था। दोनों भाई-बहन में असीम स्नेह था। कृष्ण ने अपने एक मंत्री चूरक जिसे चुगला भी कहा जाता है, उसकी बातों में आकर सामा को पक्षी बनने का शाप दे दिया था। चकेवा ने किसी तरह पिता को मनाया। कृष्ण ने वचन दिया था कि सामा हर साल कार्तिक महीने में आठ दिनों के लिए उसके पास आएगी। तभी से यह पर्व मनाया जाता है।