साठ बरस में संसद ने देखे कई उतार-चढ़ाव
भारतीय संसद आज अपने साठ वर्ष पूरे कर रही है। इस दौरान संसद ने कई उतार चढ़ाव देखे। कभी शालीन भाव से बहस करने वाली संसद मे आज के दौर मे शोर शराबा के अलावा और कुछ नही होता।
नई दिल्ली [इंटननेट डेस्क]। भारतीय संसद आज अपने साठ वर्ष पूरे कर रही है। इस दौरान संसद ने कई उतार चढ़ाव देखे। कभी शालीन भाव से बहस करने वाली संसद में आज के दौर में शोर शराबा के अलावा और कुछ नहीं होता।
जहां उस दौर में सांसद संसद में पचास फीसदी समय विकास कार्यो पर चर्चा के लिए खर्च करते थे, वहीं आज यह समय घटकर दस से बारह फीसद तक रह गया है। आजादी के करीब नौ माह पहले ही भारतीय संविधान बनाने की शुरुआत की जा चुकी थी। उन्नीस माह की मेहनत के बाद यह संविधान बना और कुल सत्रह समितियों ने संविधान सभा में हिस्सा लिया तब कहीं जाकर यह संविधान हमारे सामने आया।
लगभग 165 दिन संविधान सभा चलती रही जिसमें 114 दिनों तक केवल संविधान के मसौदे पर ही चर्चा चलती रही। 26 जनवरी 1930 को कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य की मांग की थी लिहाजा भारतीय संविधान को लागू करने के लिए भी 26 जनवरी 1950 का ही दिन चुना गया था।
17 अप्रैल 1952 को पहली संसद के लिए प्रतिनिधि चुने गए थे लेकिन मुस्लिम लीग की नाराजगी के बाद 13 मई 1952 को संसद की पहली बैठक आहूत की गई थी।
आज का केंद्रीय हाल ही कभी कंस्टिट्यूशन हाल कहा जाता था। जब संविधान तैयार हुआ तो इस हाल को हरा कालीन बिछाया गया और सभापति के लिए एक ऊंचा आसन लगाया गया। सभापति के सामने बैठने वालों के लिए सीट लगाई गई।
भारत की आजादी की घोषणा के तुरंत बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू देश में चुनाव करवाना चाहते थे। लेकिन चुनावी ढांचा तैयार न होने की वजह से देश के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। उन्होंने इसके लिए कुछ समय मांगा। लोकसभा के पहले चुनाव से जुड़े कुछ दिलचस्प पहलू यह भी है कि पहली लोकसभा के लिए कराए गए चुनाव में करीब चार माह का समय लगा था। सर्दी करीब आते देख सबसे पहले चुनाव हिमाचल और पहाड़ी इलाकों में कराए गए। इसके बाद देश के दूसरे इलाकों में चुनाव कराए गए। पहली लोकसभा के लिए जहां कांग्रेस ने बहुमत हासिल किया। कांग्रेस को 489 में से 364 सीट मिलीं वहीं भाकपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई। इस चुनाव में उसे लगभग 16 सीटें मिलीं थीं।
पहली लोकसभा के चुनाव में कुल दस लाख रुपये का खर्च हुआ था। लेकिन आज के मौजूदा दौर में यही खर्च 89 अरब तक पहुंच गया है। यह वो दौर था जब महिलाओं को घर से निकलना सही नहीं माना जाता था। ऐसे में सभी को मतों का अधिकार देने के निर्णय का काफी विरोध भी हुआ। इसमें कई दिक्कतें भी आई।
इस दौरान लाखों महिलाओं को मतदाता सूची से सिर्फ इसलिए हटा दिया गया क्योंकि वह अपने पति का नाम लेना गलत समझती थीं वहीं अपना नाम बताने से भी कतराती थीं।
यह वो दौर था जब संसद में सत्तारूढ़ दल विपक्ष की न सिर्फ बेहद इज्जत करता था बल्कि उसकी बात सुनी जाती थी। मौजूदा दौर की तरह उस वक्त सत्ता पक्ष की हर बात पर विपक्ष खड़ा होकर हाय-हाय नहीं करता था। लोकसभा में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सी राजगोपालचार्य को यह कहते हुए चुप कराने की कोशिश की थी कि हमारे पास बहुमत है। इस पर राजगोपालाचारी ने बड़े ही शालीन भाषा पर इसका जवाब दिया था। उनके जवाब से पंडित जी इतने खुश हुए कि उनकी सभी मांगों पर मुहर लगा दी। ऐसा था वह दौर जहां बहस भी शालीनता के साथ होती थी। लेकिन मौजूदा दौर में यह चीजें देखने को नहीं मिलती हैं।
आज जिस संसद को हम देखते हैं वह 1927 में बनकर सभी के सामने आई थी। बदलते दौर में जहां संविधान सभा लगभग पचास फीसद समय संविधान को तैयार करने पर चर्चा करती थी वहीं आज सांसद महज दस से बारह फीसद समय ही बहस या चर्चा पर खर्च करते हैं।
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